ममता हों तो सब मुश्किल है!
इसे ममता बनर्जी का दोष कहे या सरकार की अक्षमता, लेकिन यह जगजाहिर है कि पिछले तीन साल मे संप्रग के लिए तृणमूल कांग्रेस सहयोगी कम विपक्ष की भूमिका मे ज्यादा रही। विदेशी पूंजी निवेश, लोकपाल, एनसीटीसी, पेशन व बैकिंग विधेयक समेत महंगाई के मुद्दे पर विपक्ष ने कम इस सहयोगी ने सरकार को ज्यादा रुलाया।
नई दिल्ली [जागरण ब्यूरो]। इसे ममता बनर्जी का दोष कहें या सरकार की अक्षमता, लेकिन यह जगजाहिर है कि पिछले तीन साल में संप्रग के लिए तृणमूल कांग्रेस सहयोगी कम विपक्ष की भूमिका में ज्यादा रही। विदेशी पूंजी निवेश, लोकपाल, एनसीटीसी, पेंशन व बैंकिंग विधेयक समेत महंगाई के मुद्दे पर विपक्ष ने कम इस सहयोगी ने सरकार को ज्यादा रुलाया।
यूं तो संप्रग की पहली सरकार में बाहर से समर्थन दे रहे वामदलों के साथ भी अनुभव अच्छा नहीं था, लेकिन कांग्रेस को ममता के साथ चलना ज्यादा मुश्किल साबित हो रहा है। समय-समय पर केंद्र सरकार पर पश्चिम बंगाल की राजनीति हावी नजर आई। राज्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए वह केंद्र सरकार को अल्टीमेटम दे चुकी हैं।
इससे पहले केंद्रीय मंत्री रहते हुए वह उस भूमि अधिग्रहण विधेयक को रोक चुकी हैं, जिसे लेकर प्रधानमंत्री से लेकर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी तक उत्साहित थे। इसके बाद सरकार कभी भी आश्वस्त नहीं हो पाई। खुदरा क्षेत्र में एफडीआई को सरकार ने अपने लिए प्रतिष्ठा का विषय बनाया, लेकिन ममता ने वहां भी वीटो लगा दिया। एनसीटीसी पर विरोध की शुरूआत हुई तो ममता वहां भी आगे दिखीं, जबकि पेट्रोल और डीजल कीमत में बढ़ोतरी पर वह सरकार को गिराने तक की धमकी देने से नहीं चूकीं। रेल बजट से नाराज ममता तत्कालीन मंत्री दिनेश त्रिवेदी का इस्तीफा लेकर सरकार की किरकिरी करवा चुकी हैं। बैंकिंग व पेंशन विधेयक को सरकार अब तक सदन में पेश भी नहीं कर पाई है।
बात यहीं तक नहीं रुकी। राष्ट्रपति चुनाव को लेकर कवायद शुरू हुई तो वह सरकार से अलग खड़ी हैं। सपा और दूसरे दलों के साथ मिलकर एक गैर संप्रग गैर राजग उम्मीदवार उतारने की मुहिम और तेज हो तो आश्चर्य नहीं।
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