हरियाली में ही खिलेंगे खुशहाली के फूल
हम प्रकृति को दोष नहीं दे सकते। उसने देने में कोई कंजूसी नहीं की है। हम ही हैं कि सहेज नहीं पाए। हरियाली का गला घोंटते रहे और कंक्रीट का जंगल फैलता गया। पावन-जीवनदायिनी नदियों तक को हमने नहीं छोड़ा। सबको गंदा कर दिया। विकास का ऐसा मॉडल चुना कि सास लेना दूभर होता जा रहा है। हो सकता है आने वाले समय में हमें
अलीगढ़। हम प्रकृति को दोष नहीं दे सकते। उसने देने में कोई कंजूसी नहीं की है। हम ही हैं कि सहेज नहीं पाए। हरियाली का गला घोंटते रहे और कंक्रीट का जंगल फैलता गया। पावन-जीवनदायिनी नदियों तक को हमने नहीं छोड़ा। सबको गंदा कर दिया। विकास का ऐसा मॉडल चुना कि सास लेना दूभर होता जा रहा है। हो सकता है आने वाले समय में हमें सास लेने के लिए भी टैक्स चुकाना पड़े। जाहिर है पर्यावरण के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है। इसी पहाड़ के बीच से हमें समाधान का रास्ता निकालना पड़ेगा। उम्मीदें अभी बाकी हैं..
जीवनदायिनी नदियों को भी प्रदूषण के भंवरजाल से निकालने की जरूरत
-राज नारायण सिंह, अलीगढ़
नल में एक दिन पानी न आने पर सिर पर आसमान उठा लेने वाले हम पर्यावरण के साथ खिलवाड़ का तमाशा मूकदर्शक बनकर देखते हैं। यह नहीं सोचते कि पर्यावरण ही नहीं बचेगा तो हम कहा रहेंगे? नतीजा सामने है। न नदिया जीवनदायिनी रह गई हैं, न हवा सास लेने लायक। भूगर्भ जल तक को हमने प्रदूषित कर दिया है। ऐसे में क्या इस शहर में कोई शख्स स्वस्थ रह पाएगा? आइए, जरा देखें पर्यावरण किन चुनौतियों से जूझ रहा है और समाधान का रास्ता किधर से निकलेगा।
पहली चुनौती मृत्युशैय्या पर पड़ी नदियों को बचाने की है। जिले में गंगा, यमुना, करवन, सेंगुर, काली, रुतबा, नीम, छुइया, बड़गाम समेत नौ नदिया हैं। कुछ तो लुप्तप्राय हो गई हैं। जिले को चार नदिया तो बस छूकर निकल जाती हैं। सबसे बड़ी काली नदी है, मगर इसका पानी इतना जहरीला हो गया है कि इसमें जीव-जंतु भी नहीं पनप पाते।
दूसरी चुनौती भूगर्भ जल को प्रदूषित होने से बचाने की है। जिले में 44 फैक्ट्रियों के पास प्रदूषित जल के निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं है। यह पानी सीधे जमीन के अंदर या फिर नालों में डाला जा रहा है। किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं।
तीसरी चुनौती हरियाली बचाने की है। जिले में वन क्षेत्र मात्र 0.1 प्रतिशत है, जबकि 33 फीसद होना चाहिए। अवैध आरा मशीनें हरियाली का सफाया कर रही हैं। वन विभाग पौधे लगाने के जो दावे कर रहा है, वो हकीकत में कहीं दिखता नहीं है। जिले की प्रसिद्ध शेखा झील पर आने वाले मेहमान परिंदों तक की संख्या कम होती जा रही है।
चौथी चुनौती भूगर्भ जलस्तर को बनाए रखने की है। अंधाधुंध दोहन से जल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। कई गावों में पानी 100 फुट नीचे पहुंच गया है।
क्या है समाधान
1. वन विभाग और नगर निगम के उद्यान विभाग का दावा है कि 2012 में अब तक करीब 2.62 लाख पौधे लगाए जा चुके हैं। हर साल लगभग इतने ही पौधे लगाने के दावे होते हैं। इनमें से आधे पौधों का भी संरक्षण कर लिया जाए तो जिले में हरियाली नजर आएगी। इसके लिए इच्छाशक्ति की जरूरत है। अफसरों को भी जिम्मेदार बनाना होगा।
2. सीवरेज और गंदे पानी को साफ करके ही नदियों में डाला जाए। नालों के किनारे वेटलैंड बनाए जाएं। ऐसे प्रयोग राजस्थान के उदयपुर में हुए थे जो बहुत कामयाब रहे। नालों में माइक्रोफाइट्स लगाकर प्रदूषण को घटाया जा सकता है। चेन्नई की तर्ज पर औद्योगिक कचरे को यहा भी जीरो वेस्टेज तक लाने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए।
3. अब कस्बों तक में पालीथिन और कचरों का ढेर दिखाई देता है। पालीथिन से नालिया जाम हो जाती हैं। कस्बों में भी कचरा निस्तारण की योजनाएं बनें तो पर्यावरण की शुद्धता बढ़ेगी।
काली नदी को बचाइए प्लीज-
मुजफ्फरनगर के खतौली से निकलने वाली काली नदी अलीगढ़-हाथरस से भी गुजरती है। इस नदी में ऑक्सीजन की मात्रा शून्य हो चुकी है। जलचर भी नहीं बचे हैं। ये पानी सिंचाई के लायक भी नहीं है। इसे दूषित किया है शहर की गंदगी ने। पिछले दो शतक में अलीगढ़ के नालों की गंदगी पी-पीकर यह नदी जहरीली हो गई है। दो साल पहले जिला प्रशासन ने इसकी सफाई के लिए हाथ-पैर चलाए थे, मगर हुआ कुछ नहीं। बजट का अभाव आड़े आ गया। हर दो माह में प्रदूषण विभाग काली नदी के नमूने लेता है। इसकी टेस्टिंग रिपोर्ट लखनऊ भेजी जाती है। मगर इसे प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए आज तक कोई योजना नहीं बनी।
करवन नदी का हाल भी इससे जुदा नहीं है। यह यमुना में गंदा पानी डाल रही है। शहर का कचरा सारसौल नाले के जरिये सादाबाद में करवन नदी में मिलता है जो आगरा जाकर यमुना में समाहित हो जाता है। इस करवन नदी की सफाई के लिए छह साल पहले एक कोशिश जरूर हुई थी लेकिन अफसरों के ढुलमुल रवैये के चलते सब बेकार हो गया।
अलीगढ़ की स्थिति-
नदिया- 09
आरा मशीनें- 106
प्रदूषणकारी फैक्ट्रिया- 44
इस साल पौधरोपण- 262000
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