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मैदान में पहाड़ उगाने की जिद

खेत से एक खास किरदार लाया हूं। अवसर की मेढ़ पर जाति का रोना रोने वालों के लिए चश्मा बनाया हूं। शिक्षा की छत को मात्र बड़े ओहदे से जोड़ने वालों के लिए जमीनी आइना मुफ्त में खरीदा हूं। ऐसे ही एक पंडित को बगैर किताब पढ़ाते देख कर आया हूं। स्कूल उसका मैदान के लिए है, लेकिन पहाड़ को प्रमाण करते पाया हूं। इति

By Edited By: Published: Wed, 26 Sep 2012 05:29 PM (IST)Updated: Thu, 27 Sep 2012 01:45 PM (IST)
मैदान में पहाड़ उगाने की जिद

मुरादाबाद। खेत से एक खास किरदार लाया हूं। अवसर की मेढ़ पर जाति का रोना रोने वालों के लिए चश्मा बनाया हूं। शिक्षा की छत को मात्र बड़े ओहदे से जोड़ने वालों के लिए जमीनी आइना मुफ्त में खरीदा हूं। ऐसे ही एक पंडित को बगैर किताब पढ़ाते देख कर आया हूं। स्कूल उसका मैदान के लिए है, लेकिन पहाड़ को प्रमाण करते पाया हूं। इतिहास व भूगोल की इबारत से खेती-बाड़ी के पाठ बनाते देख कर लौटा हूं। सच मानिए, कानून की महीन धाराओं को समझने में वक्त बिताने वाले शख्स से खेती-बारी समझ कर आया हूं।

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मिलिए बिलारी ब्लाक के समाथल निवासी इस युवा बुजुर्ग से। जाति इनकी अनुसूचित है। पर, शैक्षणिक योग्यता इन्हें विद्वान सूचित करती है। इतिहास-भूगोल में परास्नातक हैं। विधि स्नातक की पुरानी डिग्री उनकी शैक्षिक पृष्ठभूमि को और व्यापक बनाती है। नाम है रघुपंत, लेकिन काम है खेती जीवन पर्यंत। जिद है कम से कम जमीन में अधिक से अधिक पैदावार वाली हर बहुमूल्य फसल को उगाना। वह भले ही पहाड़ में जिंदा रहने वाली अदरक ही क्यों न हो। उसे अपनी माटी में जीने की कला सीखाना रघुपंत की कल्पना है। ऐसी ही कई कल्पना को सकार कर देना उनका शगल है। लोहा सरकार भी मान चुकी है। दे चुकी है वर्ष 1993 में कृषि पंडित का खिताब। ऐसे खिताब के वे हकदार भी हैं। पचहत्तर वसंत देख चुके इस युवा बुजुर्ग का 25वा वसंत बदलाव लेकर आया। तब के जमाने में अच्छी शिक्षा अर्जित करने के बाद यह वसंत खेती की ओर ले गया। साढ़े चार एकड़ की जमीन पर गन्ना, गेहूं और धान उगाने में लग गए। पचास के पार हो चले तो तीन बेटे कंधा से कंधा मिला इस समर में उनके साथ हो लिए। बेटों ने पिता के खेत संभाली तो जिद्दी पिता ने मैदानी माटी को थाती बनाने की बागडोर। इस ओर बढ़े कदम तो हर उस जगह को ठौर बना लिए जहा भी खेती-बारी की महफिल सजी। मध्य प्रदेश, केरल, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब हो या फिर यूपी का कोई कोना, उसको बगैर देखे चैन की सांस नहीं ली। यहा से सीख और पौधे तथा बीज ले लौटे तो अश्वगंधा एवं सत्तावर जैसे एक दर्जन दुर्लभ पौधों की प्रजाति अपनी जमीन पर उगाने का रिकार्ड बनाए। इसके लिए यूपी सरकार ने कृषि पंडित का एवार्ड दिया।

सपनों को समर्थन मिला तो रघुपंत को जैसे पंख लग गए। ठान लिए कि अब पौधे उगाएंगे ही नहीं, बल्कि उन्हें व्यापक स्तर पर उगाने के लिए माहौल भी बनाएंगे। किसानों को समझाएंगे। बताएंगे। कि जमीन घट रही है ऐसे में अधिक उत्पादन वाली फसलें ही एक मात्र विकल्प हैं जो पैदावार व जरूरत के बीच की खाई को पाट सकती हैं। इसे समझाने में ही वह अब पचास से पचहत्तर की उम्र में पहुंच गए हैं। इस समय कल्याणपुर बारहोमासी लंबा करैला, पौष्टिक लौकी, बरूआ सागर लोकल अदरक, नीबू, अरूई जैसी एक दर्जन फसलों की विभिन्न प्रजातिया उगा रखे हैं। बताते हैं कि इनका उत्पादन सब्जी के लिए नहीं बल्कि किसानों को इन्हें उगाने का प्रोत्साहन देने के लिए कर रहा हूं। बीज और पौधे निकाल कर किसानों को देता हूं। बदले में जो पैसा मिलता है उसी से अन्य नई प्रजातियों को लाता हूं। किसान जब मेरे इस शोध को खेत का हिस्सा बनाता है तो गर्व से सीना तान के निकलता हूं। यही है हमारे जीवन की जमा पूंजी। रघुपंत अब तक पाच हजार से अधिक किसानों को अपने बीज वितरण अभियान से जोड़ चुके हैं। उनकी इस लगन को देखते हुए उद्यान विभाग समय-सयम पर उन्हें नई प्रजातिया उपलब्ध कराता है और उनके शोध के आधार पर ही उत्पादन की संभावना तय करता है। ऐसे में यह पचहत्तर वर्ष का बुजुर्ग सब्जियों की खेती का शोध यंत्र बन गया है जिसे मैदान तो मैदान पहाड़ की प्रजातिया भी प्रणाम करती हैं। ताजातरीन उदाहरण है उनके खेत में लगी अदरक है जो पहाड़ के साथ ही मैदानी इलाके में अपने विकास की पुष्टि करते हुए रधुपंत को अपने शब्दों में बोलती दिखती है।

[ज्ञानेन्द्र त्रिपाठी]

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