हमें चाहिए भविष्य संवारने वाली शिक्षा, बच्चों को हमारी विरासत की हो पूरी जानकारी जिसपर वो गर्व करें
हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी हो जो बच्चों को अपनी विरासत और राष्ट्र पर गर्व करने की शिक्षा दे। वर्ष 1835 में एक ब्रिटिश प्रशासक थामस मैकाले को यह दायित्व सौंपा गया था कि वह भारतीय समाज को यूरोपीय संस्कृति और अंग्रेजी भाषा के सांचे में ढाल दे।
सृजन पाल सिंह : यदि कोई एक निवेश ऐसा है, जो सही मायने में समाज या देश का उत्थान कर सकता है, तो वह है शिक्षा। अच्छी शिक्षा बेहतरीन डाक्टर, शानदार इंजीनियर, शूरवीर सैनिक, अच्छे बैंकर और महान नेता आदि तैयार करती है। शिक्षा नागरिकों को निजी हितों से आगे बढ़कर देश और दुनिया के लिए कुछ करने का ज्ञान देती है। भविष्य के लिए ऐसी अनुकरणीय शिक्षा की पहली शर्त है पाठ्यक्रम को निरंतर अद्यतन बनाते रहना।
‘एडवांटेज इंडिया’ नामक पुस्तक को मैंने डा. एपीजे अब्दुल कलाम के साथ मिलकर लिखा था। इसमें हमने बताया है कि शिक्षा में आने वाले परिवर्तनों को समझने के लिए हमने दुनिया भर के तमाम शिक्षकों से बात की। हम इस नतीजे पर पहुंचे कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के कुल ज्ञान का लगभग आधा हिस्सा हर 13 महीने में अनुपयोगी हो जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि 9वीं कक्षा के किसी बच्चे को भविष्य की तकनीक के बारे में जो कुछ बताया जाता है, उसका लगभग 90 प्रतिशत उसके 12वीं कक्षा पूरा करते-करते बदलना पड़ेगा।
2015 में हमने साथ मिलकर स्कूली छात्रों के लिए एक नया विषय तैयार किया ‘द स्टडी आफ फ्यूचर’, जहां डा. कलाम ने 15 ऐसे क्षेत्रों की पहचान की थी, जिनके बारे में पढ़ाकर बच्चों को भविष्य के लिए तैयार किया जा सकता है। इनमें नैनो टेक्नोलाजी, स्पेस टेक्नोलाजी, बायोसाइंस, क्वांटम कंप्यूटिंग और डीप लर्निंग शामिल थे। हमें सुनिश्चित करना होगा कि बच्चों को ऐसे ही आधुनिक विषय भी पढ़ाए जाएं। वहीं, शिक्षक स्कूली प्रणाली से या डिजिटल माध्यम से भविष्य के ऐसे विषयों को प्रभावी ढंग से पढ़ा सकें। भारतीय उद्योग जगत को भी चाहिए कि वह ज्ञान को साझा कर और शिक्षकों को प्रशिक्षण देकर स्कूली स्तर पर भविष्य के लिए ऐसी शिक्षा को तैयार करने में योगदान दें। इसके लिए सभी स्तरों पर प्रयास करने ही होंगे।
जमीनी स्तर पर स्कूली शिक्षा प्रणाली की निगरानी के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग एक महत्वपूर्ण पहलू है। पिछले महीने मैंने गुजरात सरकार के गांधीनगर स्थित विद्या समीक्षा केंद्र का दौरा किया। वहां एक विशालकाय डिजिटल ढांचा है, जो केंद्रीकृत रूप से गुजरात के एक-एक बच्चे के प्रदर्शन की खबर रखता है। बच्चे ने प्रत्येक विषय, प्रत्येक अध्याय और यहां तक कि किसी अध्याय में उसने कितना सीखा, उसमें उसकी भी जानकारी रहती है। जानकारों की एक टीम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआइ की मदद से उपस्थिति, टीचिंग प्लान और 35,000 से अधिक स्कूलों के प्रदर्शन की निगरानी करती है। हमारा दूसरा सुझाव है कि पूरा देश इस प्रणाली से प्रेरणा ले सकता है। छात्रों के प्रदर्शन पर आधारित स्कूलों की निगरानी की इस व्यवस्था को प्राथमिकता से लागू करने की आवश्यकता है।
इस दिशा में तीसरा सुझाव है कि हमें शिक्षकों के प्रशिक्षण पर भरपूर निवेश करना चाहिए। यह गिनती के कुछ शिक्षकों तक ही सीमित न रहे। एक व्यापक प्रशिक्षण में हमारी स्कूली प्रणाली का प्रत्येक शिक्षक शामिल हो। इसके लिए हमें तकनीक को अपनाना होगा। दुनिया के कई देशों में शिक्षकों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों को आभासी वास्तविकता यानी वर्चुअल रियलिटी आधारित कोर्स और वीडियो गेमिंग से सीखने के तरीके शामिल कर उन्नत बनाया जाता है। हमें उच्च कोटि के शिक्षक प्रशिक्षण केंद्रों के निर्माण पर तत्काल निवेश की आवश्यकता है, जहां सभी उपलब्ध आधुनिक तकनीकों का उपयोग हो और इसमें विश्व के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों के साथ साझेदारी हो। एक ऐसे केंद्र को स्थापित करने में पांच वर्षों में करीब 10 करोड़ रुपये की लागत आएगी, जहां अत्याधुनिक विषयों पर उस जिले के शिक्षकों को निरंतर रूप से प्रशिक्षित किया जा सकेगा।
चौथी सलाह है कि हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी हो, जो बच्चों को अपनी विरासत और राष्ट्र पर गर्व करने की शिक्षा दे। वर्ष 1835 में एक ब्रिटिश प्रशासक थामस मैकाले को यह दायित्व सौंपा गया था कि वह भारतीय समाज को यूरोपीय संस्कृति और अंग्रेजी भाषा के सांचे में ढाल दे। यही कारण था कि अंग्रेजों ने सुनियोजित षड्यंत्र के तहत वैदिक ज्ञान और भारतीय भाषाओं का अपमान किया। मैकाले ने भारतीयों में ऐसी हीन भावना पैदा की, जो सदियों तक उनमें भरी रही। इसलिए हमने शिक्षा से पाणिनि आदि विद्वानों को बाहर कर दिया और उनकी जगह एडम स्मिथ और शेक्सपियर आदि को ले आए। यह क्रम आज भी जारी है।
भारत में ऐसे कई स्कूल हैं, जिनमें स्टूडेंट ‘हाउस’ का नामकरण कार्नवालिस, डलहौजी और मिंटो जैसे अंग्रेज अत्याचारियों के नाम पर है। अनेक पुस्तकों में 1857 में हुए स्वतंत्रता के पहले संग्राम को ‘सिपाही विद्रोह’ बताया गया। ऐसे में, जब हम भविष्य की ओर देख रहे हैं, तब यह भी आवश्यक है कि हमारे बच्चों को हमारी विरासत की पूरी जानकारी हो और वे हमारे पूर्वजों की उपलब्धि पर गर्व करें।
शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ एक उत्पादक नागरिक तैयार करना ही नहीं होना चाहिए। वह खुश रहने वाले इंसान भी बनाए। इसमें छात्रों को एक ऐसा परिवेश मिले, जहां वे अपनी पूरी क्षमता का लाभ उठा सकें। छात्रों को यदि अपने साथियों और शिक्षकों के साथ अच्छे रिश्ते बनाने का अवसर मिला तो वे साथ मिलकर सीखने की प्रक्रिया में भागीदार बनेंगे। दिल्ली के स्कूलों में हैप्पी स्कूल और हैप्पीनेस करिकुलम की जो अवधारणा शुरू की गई है, उसके मूल में यही लक्ष्य है। संयुक्त अरब अमीरात, नेपाल से लेकर उत्तराखंड और आंध्र प्रदेश जैसे कई स्थानों में अब ऐसे ही पाठ्यक्रमों की योजना बनाई जा रही है।
इन पाठ्यक्रमों की मूल भावना यही है कि सीखने का दायरा परीक्षा में हासिल अंक या किसी असाइनमेंट में मिले ग्रेड तक सीमित नहीं है। इसमें जागरूकता, भावनात्मक मजबूती और समानुभूति का महत्व भी उतना ही है। अगले दशक में भारत खुद को कहां खड़ा देखता है, यह पूरी तरह से इस पर निर्भर करेगा कि हम अपने बच्चों को भविष्य के लिए कितना तैयार, आत्मविश्वास से ओतप्रोत और गर्व की भावना से भरपूर नागरिक बनाते हैं और इस प्रक्रिया को पूर्ण करने का केंद्र हमारी स्कूली प्रणाली ही होगी।
(पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के सलाहकार रहे लेखक होमी लैब के सीईओ हैं)