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भविष्य केंद्रित हो बजट, व्यय की सक्षम निगरानी और उसे प्रदर्शन से जोड़ने की आवश्यकता

जीवन की गुणवत्ता सुधारने की दिशा में केंद्र सरकार को कोई सार्थक राह दिखानी होगी। निसंदेह यह मुद्दा बजट व्यय से कहीं आगे का है। फिर भी आवंटन का प्राथमिकता के स्तर पर निर्धारण कर एक अच्छी शुरुआत तो की ही जा सकती है।

By Tarun GuptaEdited By: Amit SinghPublished: Tue, 24 Jan 2023 11:59 PM (IST)Updated: Tue, 24 Jan 2023 11:59 PM (IST)
भविष्य केंद्रित हो बजट, व्यय की सक्षम निगरानी और उसे प्रदर्शन से जोड़ने की आवश्यकता
केंद्रीय बजट के माध्यम से वित्त मंत्री का भी होता है आकलन

तरुण गुप्त: भारत में फरवरी का महीना परीक्षाओं के नाम होता है। स्कूली छात्रों की परीक्षाएं इसी दौरान होती हैं तो केंद्रीय बजट के माध्यम से वित्त मंत्री का भी आकलन किया जाता है। इस विषय में मुख्यधारा के मीडिया से लेकर इंटरनेट आधारित मंचों पर सुझावों की बाढ़ आई रहती है। वैसे भी हम भारतीय उन्मुक्त भाव से सुझाव देने के लिए जाने जाते हैं। खासतौर से जब मामला हमारी क्रिकेट टीम और वित्त मंत्रालय से जुड़ा हो तो विशेषज्ञों की भरमार हो जाती है। बजट एक महत्वपूर्ण वार्षिक आयोजन है और उस पर चर्चा स्वागतयोग्य है। इससे जुड़े विमर्श के अमूमन दो पहलू होते हैं। पहला यह कि परिस्थितिजन्य क्या किया जाना चाहिए और दूसरा यह कि दूरगामी लक्ष्यों की पूर्ति के लिए किस दिशा में अग्रसर होना है।

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एक राष्ट्र के तौर पर हमें वर्ष 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने की प्रधानमंत्री की संकल्पना को आत्मसात करना होगा। कम प्रति व्यक्ति आय वाले विकासशील देश से उच्च प्रति व्यक्ति आय वाले विकसित देश तक की यात्रा को पूर्ण करने के लिए हमें विकास पर जोर देना होगा। इसके लिए बुनियादी ढांचे पर पूंजीगत व्यय बढ़ाना न केवल ऊंची आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहन देगा, अपितु अन्य क्षेत्रों को गति देने एवं रोजगार सृजन में भी सहायक सिद्ध होगा। इस मोर्चे पर हमारी हालिया प्रगति सराहनीय है।

दूसरी ओर, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, शहरी नियोजन, स्थानीय निकाय गवर्नेंस, पुलिस और न्यायिक तंत्र जैसे विकास के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं के स्तर पर हमारी स्थिति अब भी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं। यही मानक मानव विकास सूचकांक में हमें नीचे की ओर खींचते हैं, जहां विकसित देश हमसे मीलों आगे रहते हैं। ये विषय मुख्य रूप से समवर्ती या राज्य सूची में आते हैं। ऐसे में यह आवश्यक है कि सहकारी संघवाद, डबल इंजन या ट्रिपल इंजन की सरकार जैसे शब्द कागजी न होकर साकार रूप में भी दिखाई दें। यूं तो इससे जुड़ी जिम्मेदारी सभी की है, लेकिन मौजूदा सत्तारूढ़ दल के सभी स्तरों पर राजनीतिक वर्चस्व को देखते हुए उसका दायित्व कहीं ज्यादा बढ़ जाता है।

बात चाहे जीडीपी के अनुपात में हो या प्रति व्यक्ति व्यय के हिसाब से, हमारा बजट आवंटन उपरोक्त मदों में बढ़ना चाहिए। भारत के तकनीकी कौशल और डिजिटल सफलता को विश्व में व्यापक सराहना मिली है। न्यायिक देरी से बचने और बेहतर पुलिसिंग के लिए पारंपरिक नियुक्तियों और सुधारों के अतिरिक्त अब तकनीक की सहायता लेना भी आवश्यक हो गया है। वर्तमान में न सही, लेकिन निकट भविष्य में अवश्य ही हमारी आधी से अधिक आबादी शहरों में रहेगी। जबकि हमारे शहरी नियोजन, अपशिष्ट प्रबंधन, निकासी-सीवेज, जल संरक्षण और वायु गुणवत्ता की स्थिति बेहद खराब है। स्वच्छ वायु के लिए 100 शहरों में स्माग टावरों का वादा अभी तक अधूरा है। यातायात प्रबंधन और सड़क सुरक्षा को लेकर स्थिति लचर है, तो शिक्षा एवं स्वास्थ्य से जुड़े मानक भी संतोषजनक नहीं हैं।

जीवन की गुणवत्ता सुधारने की दिशा में केंद्र सरकार को कोई सार्थक राह दिखानी होगी। नि:संदेह, यह मुद्दा बजट व्यय से कहीं आगे का है। फिर भी आवंटन का प्राथमिकता के स्तर पर निर्धारण कर एक अच्छी शुरुआत तो की ही जा सकती है। बजट व्यय की सक्षम निगरानी और उसे प्रदर्शन से जोड़ना भी उपयुक्त होगा। इस समय सभी स्तरों पर करीब आधे भारत में भाजपा का शासन है। ऐसे में इन क्षेत्रों को आदर्श राज्यों एवं शहरों के रूप में विकसित करने का प्रयास होना चाहिए, जिनकी मानव विकास सूचकांक के आधार पर विश्व में श्रेष्ठता के प्रतीकों से तुलना हो सके। विकास के इस एजेंडे को मूर्त रूप देने के लिए सरकार को राजस्व बढ़ाने और अनावश्यक खर्चों में कटौती करनी होगी।

फ्रीबीज यानी मुफ्त उपहारों की बहस को दरकिनार कर दें तब भी इसमें कतई संशय नहीं कि तमाम अतिशय अनुत्पादक सब्सिडी हैं, जिन पर सरकार पुनर्विचार करे। वहीं, विनिवेश और भू-मौद्रीकरण जैसे अहम राजस्व स्रोत अभी तक पूरी तरह विफल सिद्ध हुए हैं। सरकार भविष्य के उद्यमों में निजी इक्विटी निवेशक की अपनी भूमिका को लेकर नए सिरे से विचार करे। निजी उद्यमों के लिए अभिनव पूंजीगत वित्तपोषण के अतिरिक्त यह राज्य को वैल्युएशन पर दांव लगाने का अवसर भी देता है। इस विचार के आकार लेने का समय अब आ गया है।

यह सरकार अक्सर मध्यम वर्ग के उत्थान की बात इस रूप में करती है कि उसे उन्नत बुनियादी ढांचा और बेहतर सरकारी सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं। भारतीय मध्यम वर्ग की आवश्यकता और पात्रता इससे कहीं अधिक है। प्रत्यक्ष कर कानूनों में कुछ मूलभूत हस्तक्षेप अर्से से लंबित हैं। वेतनभोगी वर्ग के लिए मानक कटौती के दायरे और धारा 80सी-80डी के अंतर्गत बीमा, भविष्य निधि और आवास ऋण के भुगतान आदि की सीमा में कुछ बढ़ोतरी स्वागतयोग्य होगी। डिविडेंड टैक्स दोहरे कराधान का सबसे बदतर उदाहरण है। कारपोरेट कर की 25 प्रतिशत और निजी आयकर की 42 प्रतिशत की सर्वोच्च दर में भारी अंतर से निजी खर्चों को कंपनी के खाते में डालने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है।

हमारी अर्थव्यवस्था एवं समाज में छोटे एवं मझोले उद्यमों यानी एमएसएमई की महत्ता किसी से छिपी नहीं है। कंपनी मुनाफे पर घटा 25 प्रतिशत टैक्स केवल कारपोरेट्स पर लागू होता है। जबकि अधिकांश एमएसएमई निजी स्वामित्व (प्रोपराइटरशिप), साझेदारी (पार्टनरशिप) या एलएलपी इकाइयों के रूप में विद्यमान हैं। अप्रत्यक्ष करों के मोर्चे पर जीएसटी अपीलेट ट्रिब्यूनल की भी प्रतीक्षा है, क्योंकि अभी उद्यमों को किसी अनुचित दावे की स्थिति में उच्च न्यायालय में अपील करनी होती है, जो उनके लिए अपेक्षाकृत कठिन होता है। साथ ही, हमें एक ऐसी सुविचारित व्यापार नीति की उतनी ही आवश्यकता है, जो घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ वैश्विक कड़ियों से जुड़ाव बनाए रखने में भी सहायक हो।

वस्तुतः, किसी भी वैधानिक सुधार का कभी विरोध नहीं किया जाना चाहिए। यदि राज्य को संग्रह में किसी प्रकार की क्षति होती है तो विस्तारित अनुपालन से उसकी क्षतिपूर्ति संभव है। आम बजट वित्तीय विवरण के साथ ही सरकार की मंशा को भी प्रदर्शित करता है। यह नीतिगत रोडमैप दर्शाता है। हमारे विकास संबंधी लक्ष्यों को मूर्त रूप देने के लिए बजट में चतुराई के साथ-साथ सरलता भी झलकनी चाहिए।


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