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Gambhir Singh Banga : 51 रुपये की नौकरी, वर्कशाप और आज इंडस्ट्री से देश-विदेश में नाम

Gambhir Singh Banga News वर्ष 1947 में जब देश का विभाजन हुआ तो उसका दंश बांगा परिवार को भी झेलना पड़ा। वहीं अपने मेहनत के बल पर गंभीर सिंह ने गजब का काम किया। अब देशभर में जाने जाते हैं।

By Susheel BhatiaEdited By: Published: Sun, 14 Aug 2022 03:15 PM (IST)Updated: Sun, 14 Aug 2022 06:28 PM (IST)
Gambhir Singh Banga : 51 रुपये की नौकरी, वर्कशाप और आज इंडस्ट्री से देश-विदेश में नाम
Gambhir Singh Banga : 51 रुपये की नौकरी, वर्कशाप और आज इंडस्ट्री से देश-विदेश में नाम

फरीदाबाद [सुशील भाटिया]। देश आज आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। इस दिन के लिए जहां हजारों वीर जवानों ने बलिदान दिया, स्वतंत्रता सेनानियों ने संघर्ष किया, वहीं देश को आत्मनिर्भर बनाने और प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाने में गंभीर सिंह बांगा जैसे स्वावलंबी शख्सियत का संघर्ष व पुरुषार्थ भी छिपा है। गंभीर सिंह को औद्योगिक नगरी में जीएस बांगा के नाम से ज्यादा जाना जाता है।

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देश के बंटवारे के समय गंभीर सिंह बांगा तब 17 वर्ष के थे, जब माता-पिता हरबंस सिंह-राम भज्जी व बहन-भाइयों के साथ उन्हें भी अपनी जन्मस्थली कोहाट (उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत का जिला, अब पाकिस्तान में) को छोड़ना पड़ा। जीएस बांगा के अनुसार तब परिवार सहित हरिद्वार में उनके दादा-परदादा द्वारा स्थापित बैकुंठ साहब आश्रम में सहारा लेना पड़ा।

यहां से देहरादून के प्रेम नगर में स्थापित कैंप में चले गए। वहीं तब रक्षा क्षेत्र की एक योजना के तहत उन्हें तोपखाने में 51 रुपये माह की नौकरी मिल गई। उनके भाई प्रतिदिन घर से 16 किलोमीटर दूर साइकिल पर छोड़ने जाते थे, वो साइकिल फिर वापस ले आते थे, दिन भर उन्हें उस पर काम के सिलसिले में घूमना होता था और शाम को छुट्टी के समय फिर लेने आते थे। इस तरह 64 किलोमीटर साइकिल चलती थी।

इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद आया मोड़, आगे बढ़ी जिंदगी

स्कूल के समय से ही मेधावी छात्र जीएस बांगा को इस दौरान इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए बंबई (अब मुंबई) जाने का अवसर मिल गया। यहां से उनके जीवन को एक नया मोड़ मिला। जर्मनी के एक प्रोजेक्ट के तहत इंजीनिय¨रग करने के बाद उन्हें 200 रुपये प्रति माह की नौकरी मिल गई। इसके बाद 1962 में परिवार सहित औद्योगिक नगरी आ गए। किराए के मकान में रहे और 2200 रुपये की नौकरी औद्योगिक नगरी एनआइटी में जीएस बांगा एक नंबर में लघु उद्यमी संतराम भाटिया के यहां किराए के मकान में रहे। शुरू में नेप्को, फिर कटलर हैमर में और फिर एस्का‌र्ट्स में नौकरी की। एस्का‌र्ट्स में कुछ साल काम करने पर स्वयं का काम शुरू करने के इरादे से नौकरी छोड़ दी।

जीएस बांगा बताते हैं कि जब 1972 में नौकरी छोड़ी, तब 2200 रुपये प्रति माह मिलते थे। उस समय यह बड़ी राशि थी, पर उन पर कुछ अपना काम करने की धुन सवार थी। तब थोड़े से पैसे भी जमा हो गए थे, तो करीब साढ़े चार हजार रुपये में नीलामी में दो नंबर ई ब्लाक में 28 नंबर मकान ले लिया। इसी मकान में उन्होंने विक्टोरा टूल्स के नाम से वर्कशाप लगाई, जो आज भी है। आज देश-विदेश में विक्टोरा ग्रुप की 20 यूनिट वाहेगुरु अकाल पुरख के आशीर्वाद और खुद में भरोसा, हाथों के हुनर व परिश्रम से जीएस बांगा की वर्कशाप चल निकली और इसके बाद उन्नति के पथ पर आगे बढ़ते चले गए।

वर्कशाप के समय से ही आयकरदाता

जीएस बांगा द्वारा स्थापित विक्टोरा ग्रुप की आज फरीदाबाद के अतिरिक्त हरिद्वार, गुजरात, पुणे, चेन्नई, अमेरिका, जर्मनी, थाईलैंड में लिफ्ट, टूल्स व आटो पा‌र्ट्स उत्पादों की विक्टोरा टूल्स, विक्टोरा आटो, विक्टोरा इंडस्ट्रीज के नाम से 20 यूनिट हैं। इसमें 12 हजार से अधिक श्रमिक काम करके स्वावलंबन की राह पर अग्रसर हैं। इन औद्योगिक ईकाइयों को उनके होनहार सुपुत्र सतेंद्र सिंह और हरदीप सिंह सफलतापूर्वक संभाल रहे हैं। अब तीसरी पीढ़ी सतबीर सिंह भी कारोबार में सक्रिय हैं।

गुरुबाणी व गीता के अनुसार चलने का संदेश जीएस बांगा आज भी सबसे पहले सेक्टर-15 स्थित गुरुद्वारा सिंह सभा साहब में माथा टेकने जाते हैं, उसके बाद फैक्ट्री चले जाते हैं। काबिल बेटों के बावजूद उनकी काम पर नजर रहती है और अपने अनुभव से श्रमिकों का भी मार्गदर्शन करते हैं। युवा पीढ़ी को अपने संदेश में कहते हैं कि गुरुबाणी, गीता व अन्य धार्मिक ग्रंथों से सच के रास्ते पर चलने और ईमानदारी से अपना काम करने की सीख मिलती है। उन्होंने गुरुबाणी को ही अपने जीवन में ढाला, उसी अनुसार परिश्रम किया, बाकी रास्ते अपने आप खुलते चले गए। जो व्यक्ति सच्चाई, ईमानदारी, मेहनत, लगन से काम करेगा, तो रास्ता अपने आप मिलता चला जाएगा, चाहे सामने पहाड़ ही क्यों न हो।


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