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निरक्षर दंपती से ट्रेनिंग लेकर युवा कर रहे हैं अपना रोजगार

आदिवासी बहुल इस इलाके में शिक्षा की दर भले ही कम हो लेकिन भोले-भाले ग्रामीणों में हुनर की कमी नहीं है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 05 Mar 2019 10:43 AM (IST)Updated: Tue, 05 Mar 2019 10:44 AM (IST)
निरक्षर दंपती से ट्रेनिंग लेकर युवा कर रहे हैं अपना रोजगार
निरक्षर दंपती से ट्रेनिंग लेकर युवा कर रहे हैं अपना रोजगार

विनोद सिंह, जगदलपुर। देश-दुनिया में नक्सल घटनाओं को लेकर हमेशा सुर्खियों में रहने वाले छत्तीसगढ़ के बस्तर के और भी कई चेहरे हैं। आदिवासी बहुल इस इलाके में शिक्षा की दर भले ही कम हो, लेकिन भोले-भाले ग्रामीणों में हुनर की कमी नहीं है। उनकी सोच भी सामाजिक है। आज जब शहरों में तकनीकी शिक्षा पाने के लिए युवाओं को हजारों रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं, ग्राम भुरसुंडी का एक निरक्षर आदिवासी दंपती युवाओं को मुफ्त में मोटर मैकेनिक बना रहा है। इनके सिखाए पचास से ज्यादा युवा आज स्वरोजगार कर अपने पैरों पर खड़े हैं। इतना ही नहीं, आज जहां उच्च शिक्षित परिवारों में बेटियों को लेकर रुढ़ीवादी सोच से जुड़ी खबरें आती रहती हैं, वहीं यह दंपती बड़ी बेटी को पॉलिटेक्निक करा रहा है। तीन बेटियों वाला यह दंपती इन्हें देवियां मानता है। आसपास के गांव वाले इनके घर को मुफ्त वाला आइटीआइ कहते हैं।

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जिला मुख्यालय से करीब 20 किलोमीटर दूर बस्तर ब्लॉक के ग्राम भुरसुंडी निवासी 45 वर्षीय सोनूराम बघेल और उनकी पत्नी रूंजीबाई के हुनर की सभी दाद देते हैं। उनका हुनर ही है कि पूरे बस्तर ब्लॉक के लोग मोटर पंप सुधरवाने के लिए उनके पास आते हैं। ग्रामीणों की स्थिति देखकर मेहनताना लेते हैं।

निकले थे मजदूरी करने, मैकेनिक बनकर लौटे

सोनूराम बताते हैं कि वह बहुत ही गरीब परिवार से हैं। 16 साल की उम्र में मजदूरी करने के लिए धमतरी आ गए। विचार आया कि जब शहर आया ही हूं तो क्यूं न कोई हुनर सीख लूं। एक मोटर रिपेयरिंग की दुकान में काम करने लगे। जल्द ही सब कुछ सीख लिया। इसके बाद गांव लौट आए। अपना काम शुरू किया। पिता बोकलूराम को लगा कि अब बेटे का ब्याह कर देना चाहिए। परिवार संभाल लेगा। इस तरह रूंजीबाई से शादी हो गई। कुछ दिन सामान्य बीता फिर रूंजीबाई काम में सहयोग करने लगीं। आज मशीनों पर दोनों की अंगुलियां किसी मैकेनिकल इंजीनियर से कम नहीं दौड़तीं।

इस तरह आया सिखाने का विचार

सोनूराम कहते हैं कि गांव के पढ़े-लिखे युवक- युवतियों को बेरोजगार देखकर बहुत तकलीफ होती थी। सोचा कि क्यूं न अपना हुनर इन्हें भी सिखाया जाए। एक शुरुआत हुई और आज भुरसुंडी समेत आसपास के गांवों के सैकड़ों युवा उन्हें गुरु के रूप में पूजते हैं। सम्मान करते हैं। सोनूराम कहते हैं कि जब भी खबर मिलती है कि उनके सिखाए लड़के ने अपनी दुकान शुरू की है, यूं लगता है, जिंदगी में कुछ तो किया।

बेटियां नहीं, बेटे हैं ये

सोनूराम ने बताया कि उनकी तीन बेटियां हैं, जिन्हें वे बेटा ही मानते हैं। खुशबू सबसे बड़ी है। खुद पढ़ नहीं पाए, लेकिन बेटियों को पढ़ा रहे हैं। खुशबू धरमपुरा महिला पॉलिटेक्निक में पढ़ती है। दूसरी बेटी दसवीं और तीसरी पांचवीं में है। यह पूछने पर कि क्या कभी यह नहीं लगता कि एक बेटा भी होता। आसमान की ओर देखते हुए सोनूराम कहते हैं-जो बच्चे उनके पास सीखकर अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं, वे उनके बेटे ही तो हैं। गुरु का स्थान पिता से छोटा थोड़ी होता है।


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