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सदियां लग जाएंगी नीरज को भुलाने में, ...इस दीये की गोद में इस तरह सवेरा हो न हो

यायावर नीरज के गीतों की खासियत यह है कि हर रुचि के लोग उसमें अपना मलाल या जलाल तलाश लेते हैं।

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Fri, 20 Jul 2018 04:35 PM (IST)Updated: Fri, 20 Jul 2018 04:35 PM (IST)
सदियां लग जाएंगी नीरज को भुलाने में,  ...इस दीये की गोद में इस तरह सवेरा हो न हो
सदियां लग जाएंगी नीरज को भुलाने में, ...इस दीये की गोद में इस तरह सवेरा हो न हो

नई दिल्‍ली, मनोज झा। स्वप्न नयना इस कुमारी नींद का, कौन जाने कल सवेरा हो न हो, इस दीये की गोद में इस तरह सवेरा हो न हो। सृजन संसार की जीवित किवदंती माने गए गीतों के राजकुमार गोपाल दास नीरज के इस गीत को फिर से इसलिए पढ़ें, क्योंकि महाकवि की कुमारी नींद अब चिरनिद्रा में समा चुकी है। साहित्य की बिरादरी के अलावा तमाम लोग उन्हें अब अपने-अपने करीने से याद कर रहे हैं। कोई कवि सम्मेलनों में उनके गीत पढ़ने के अंदाज को दोहरा रहा है तो कोई फिल्मों के जरिये जुबान पर चढ़े गीतों को गाकर। यायावर नीरज के गीतों की खासियत यह है कि हर रुचि के लोग उसमें अपना मलाल या जलाल तलाश लेते हैं।

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जहां तक नीरज की सृजन विधा का सवाल है तो वह कभी किसी साहित्यिक प्रवृति से नहीं बंधे। हिंदी साहित्य में नीरज का न तो कोई खेमा था, न ही उन्होंने किसी खेमेबंदी में कभी दिलचस्पी ली। उल्टे वह इससे बेहद क्षुब्ध रहते थे। खुद नीरज अपने रचना संसार को इंसान की जिंदगी का दस्तावेज बताते थे। वह कहते भी थे रूमान तो उनके गीतों का मुलम्मा भर है, गहराई में जीवन दर्शन समाया है। इसी प्रकार अध्यात्म को लेकर नीरज का मानना था कि ईश्वर की सत्ता एकीकृत नहीं है, यह विश्वास पर टिकी है।

ईश्वर को वह मनुष्य की कल्पना का सुंदरतम रूप भर मानते थे। कहते थे कि इंसान ने अपनी सुविधा के लिए ईश्वर को बनाया है। शायद नीरज के इसी फलसफे ने ओशो को भी आकर्षित किया था। ओशो के साहित्य में नीरज का उद्धरण कई बार आता है। नीरज लिखते हैं- एक दिन भी जी मगर तू ताज बनकर जी, अमर युगगान बनकर जी, मत पुजारी बन स्वयं भगवान बनकर जी।

 

ओशो का दर्शन भी कहीं न कहीं इस गीत के फलसफे के आसपास टिकता-ठहरता है। शब्द और उनमें गुंथे बिंबों को गेयता की माधुरी में पिरोने वाला गीतों यह चितेरा 93 साल की जरायु में भी जिस अंदाज में नवगीत गाता था, वह बेजोड़ है। नीरज के गीतों में जिंदगी और उसका दर्शन, रोमांस, उम्मीद, कथ्य-अकथ्य, साकार-निराकार सब कुछ मिलता है; लेकिन मांसलता से परे, कोरी कल्पना से कोसों दूर। उनके शब्दों में अस्तित्व के प्रति अनंत प्रत्याशा है। उनकी काव्य चेतना का मर्म जिंदगी और उसे संजाने-संवारने के तमाम उपक्रमों के इर्द-गिर्द ही घूमता है। यह अलग है कि कोई उसमें रूमान तलाश लेता है तो कोई अध्यात्म व दर्शन।

कविता के मंच पर चढ़ने से पहले नीरज ने कॉलेजों में शिक्षण और इससे पहले टाइपिस्ट की भी नौकरी की। हालांकि वहां मन रमा नहीं। काम करते हुए कविता लिखते रहने के शौक को आगे बढ़ाते रहे। 1943 में कोलकाता के एक कवि सम्मेलन में अचानक से जाने का मौका मिला। वह भीषण अकाल का समय था। वहां उन्होंने रोटी के लिए इंसानों को कुत्तों की मानिंद लड़ते देखा तो अगले दिन मंच पर गर्जना की- मैं विद्रोही हूं, जग में विद्रोह करने आया हूं। अंग्रेजी शासनकाल में इस क्रांति गीत को बाद में कई सारे कवि सम्मेलनों में खूब दाद मिली। धीरे-धीरे हिंदी कविता के मंच पर नीरज की मौजूदगी दमदार होती गई।

आखिरकार 1967 में वह मुंबई गए और दो साल बाद फिल्मों के लिए पहला गाना (काल का पहिया घूमे भइया...) लिखा और फिर लिखते चले गए। फिल्मों के लिए उन्होंने करीब सवा सौ गीत लिखे। उस दौर में एक मिथक यह भी बना कि नीरज के गाने तो हिट होते हैं, लेकिन फिल्में फ्लॉप। बहरहाल, बॉलीवुड में ऐसी लोकप्रियता मिली कि वह गीतों के राजकुमार बन गए। यह नीरज की यायावरी ही थी कि बॉलीवुड में बेशुमार सफलता और बेपनाह मुहब्बत पाने के बावजूद उनका मन मायानगरी की बेचैनियों से उचट गया। उन्होंने मुंबई छोड़ दी और फिर तब से अपने ही अंदाज में गीत गढ़ते रहे और उसे मंच पर गाते रहे। उनकी निजी जिंदगी, उनकी आदतें और फक्कड़पन के बहुत-से किस्से-प्रसंग हैं। हालांकि नीरज इन सब से बेपरवाह लिखते रहे कि- इतने बदनाम हुए हम तो इस जमाने में, सदियां लग जाएंगी नीरज को भुलाने में। 


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