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महामारी की चपेट में रहा वर्ष 2020, नहीं रुका विपक्ष का राजनीतिक कुचक्र

Year Ender 2020 यह साल 2020 पूरी तरह कोरोना वायरस की भेंट रहा लेकिन इस बीच कई और मुद्दे उठे। इनमें नागरिक संशोधन कानून कृषि कानून और विपक्ष की राजनीति जैसी कुछ चुनिंदा राजनीतिक घटनाओं को यहां पढ़ें-

By Monika MinalEdited By: Published: Tue, 29 Dec 2020 02:18 PM (IST)Updated: Tue, 29 Dec 2020 02:18 PM (IST)
महामारी की चपेट में रहा वर्ष 2020, नहीं रुका विपक्ष का राजनीतिक कुचक्र
महामारी के नाम रहा 2020, जानें बड़ी घटनाएं

नई दिल्‍ली, जेएनएन। वैसे तो ये साल पूरी तरह महामारी कोविड-19 की चपेट में रहा लेकिन राजनीतिक हलचलें भी जारी रहीं। विपक्ष त्रासदी में भी राजनीति के कुचक्र रच रहा था। जो खुद बिखराव का शिकार थे, उन्होंने देश को बिखेरने में अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं रहने दी। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में दिल्ली को दंगों की आग में झोंकना हो या कृषि सुधार कानूनों के विरोध की आड़ में सरकार और कृषकों के बीच संवाद के रास्ते रोकना, विपक्ष के पास जैसे हर बात पर जनता की दिनचर्या को बंधक बनाने के सिवाय कोई और काम नहीं था।

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कांग्रेस: जिद, हट और पतन

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के इतिहास में 2020 अनहोनियों और अचरजों के साथ इसके पतन की ओर अग्रसर होने के वर्ष के रूप में याद किया जाएगा। शायद ही कभी ऐसा सोचा गया हो कि कभी कांग्रेस की सबसे बड़ी ताकत और चुंबक रहे गांधी परिवार के खिलाफ विद्रोह जैसी गंभीर स्थिति पार्टी में पैदा होगी, लेकिन पार्टी को साम्राज्य की तरह चंद निकट दरबारी सिपहसालारों के सहारे चलाने की बीते दो दशक की संस्कृति ने कांग्रेस के संगठन को दीमक की तरह खोखला कर दिया। वह गांधी परिवार, जो एक समय में कांग्रेस की सबसे बड़ी पूंजी और चेहरा था उसकी सियासी पूंजी में कुछ बचा नहीं। कांग्रेस के नए अध्यक्ष की तलाश कर रही पार्टी के सामने मुसीबत यह है कि गांधी परिवार पार्टी पर अपनी पकड़ न छोड़ने की जिद पर अड़ा है। सोनिया गांधी पुत्रमोह में राहुल गांधी को फिर से कांग्रेस की बागडोर सौंपने की जिद पर अड़ी हैं तो राहुल भी पार्टी को पुराने नेताओं के बोझ से मुक्त कर नई कांग्रेस बनाने की हठ पर हैं। सियासी साम्राज्य बचाने की महत्वाकांक्षा के इस अंदरूनी संघर्ष में असंतुष्ट 23 नेताओं के समूह ने पत्र प्रकरण को गांधी परिवार पर प्रहार का अपना पहला हथियार बनाया। इसमें तीखे सवालों के तीर से साफ कर दिया कि पतन की ओर बढ़ रही कांग्रेस को बचाना है तो नया नेतृत्व सामने आना चाहिए। देखना दिलचस्प होगा कि इस अंदरूनी महासंग्राम और मंथन के बाद कांग्रेस के अंदर कोई अमृतघट निकलता है, जिससे देश की सबसे पुरानी पार्टी फिर से हरी-भरी हो पाएगी या फिर परिवार के साम्राज्य के साथ ही पार्टी का पतन होगा!

कृषि सुधार: अफवाहों से असमंजस में अन्‍नदाता 

किसानों की बेहतरी के लिए इस वर्ष संसद में बहुमत से पारित तीनों कृषि बिल हमारे अन्नदाताओं का भविष्य संवारने में बहुत बड़ा हथियार साबित होंगे। हमेशा से कृषिप्रधान रहा भारत भविष्य में कैसे और किस दिशा में आगे बढ़ेगा, यह कानून इसका रोडमैप पेश करते हैं। ऐसा नहीं कि पहले कोशिशें नहीं हुईं, लेकिन यह श्रेय प्रधानमंत्री मोदी के खाते में गया या यूं कहें कि यह साहस भी प्रधानमंत्री मोदी ने ही दिखाया। यूं तो अधिकांश किसान इनको लेकर स्वीकार्यता जाहिर कर चुके हैं मगर अफसोस कि चंद किसान मुद्दों से भटके बाहरी लोगों की बातों और अफवाहों में आकर बेवजह दिल्ली का दिल दुखा रहे हैं। वास्तव में इन कानूनों की सकारात्मकता को समझने की जरूरत है। सच्चाई यही है कि इस प्रयास से कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश के साथ निजी निवेश का रास्ता खुल जाने की संभावना बढ़ गई है। कृषि सुधार के इन कानूनों में कृषि उपज मंडी कानून में बदलाव कर खरीद-बिक्री का दायरा भी बढ़ाया गया है। अब कांट्रैक्ट खेती के प्रावधान से बड़ी उपभोक्ता कंपनियां, प्रोसेसर और निर्यातक बेहिचक सीधे किसानों से अपनी मर्जी की उपज की खेती पूर्व निर्धारित शर्तो और मूल्यों पर करा सकती हैं। इससे दोनों पक्षों को फायदा होना तय है। तो वहीं आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन में बड़े उपभोक्ताओं, प्रोसेसर्स और निर्यातकों को स्टॉक सीमा से मुक्त कर दिया गया है। सरकार तो बात करने को राजी ही है, अब आंदोलनकारियों को भी इन कानूनों के निरस्तीकरण का अड़ियल रवैया छोड़ इन्हेंस्वीकारने अथवा संशोधन की बात करनी चाहिए।

नागरिकता संशोधन कानून: बहस में उलझी एक बेहतरीन पहल

धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे के बाद भारत ने तो सबको एक साथ लेकर चलने का संकल्प दिखाया, लेकिन धर्म आधारित पाकिस्तान समेत दूसरे देशों में एक विद्रूप चेहरा भी था जिसे नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) ने फिर से उजागर कर दिया। कानून पर बहस में इन देशों में बंटवारे के बाद पीछे छूट गए अल्पसंख्यकों पर पिछले सात दशक में हुए अत्याचार और उसके बाद पलायन कर भारत पहुंचने के बावजूद उनकी दयनीय स्थिति ने जन-मानस को झकझोरा। यह और बात है कि यह बड़ा मुद्दा भी राजनीति का शिकार हुआ। शाहीन बाग विरोध प्रदर्शन के नए मॉडल के रूप में सामने आया और सुप्रीम कोर्ट को नए सिरे से स्पष्ट करना पड़ा कि विरोध प्रदर्शन के साथ-साथ बिना किसी रुकावट के आने-जाने की आजादी भी संवैधानिक अधिकार है और दोनों की हिफाजत जरूरी है। सीएए पर संसद के भीतर और बाहर चली बहस में इस बात पर सभी एकमत थे कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों और पलायन कर भारत आने के बाद भी बिना नागरिकता के उनकी स्थिति दयनीय है। जाहिर है सीएए के खिलाफ विरोध को वैचारिक आधार देने और लोगों को इसके खिलाफ आंदोलित करने के लिए इसे एनपीआर और एनआरसी से जोड़ दिया गया। हालांकि कोरोना महामारी ने न सिर्फ प्रदर्शनकारियों को शाहीन बाग खाली करने बल्कि सरकार को भी सीएए और एनपीआर पर सुस्त चाल चलने के लिए मजबूर कर दिया। इतना तय है कि कोरोना के थमने के बाद सीएए, एनपीआर और एनआरसी पर फिर से देशव्यापी बहस शुरू होगी। 

 दिल्‍ली की घेराबंदी: जनजीवन को बंधक बनाने का पैंतरा

आंदोलन व प्रदर्शन यूं तो जीवंत लोकतंत्र का उदाहरण हैं, लेकिन तब लोकतंत्र का गला घुटने लगता है जब यह अराजक हो जाता है। इस वर्ष ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति बार-बार हुई। समाज के पीछे छिपकर राजनीतिक मंशा साधने की परंपरा तेज हुई। 2020 की शुरुआत ही थी कि नागरिकता कानून के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग को लगभग तीन महीने तक बंधक बनाकर रख लिया गया। रोजाना आने-जाने वाले लाखों लोगों के मौलिक अधिकार को धता बताते हुए कुछ लोगों ने सड़क जाम कर दी। राजनीतिक रोटी सेंकने वालों के लिए शाहीन बाग राजनीतिक अखाड़ा बन गया। जो सरकार और संसद से पारित कानून को जितनी खुली चुनौती दे सके, वह उतना बड़ा नेता माना जाने लगा। सुप्रीम कोर्ट की अपील और निर्देश को भी अनसुना कर दिया गया। आठ-नौ महीने बीतते -बीतते कृषि कानून के खिलाफ कुछ किसान संगठन फिर से दिल्ली की कुछ सीमा को बाधित कर बैठ गए। नजारा वैसा ही है। राजनीतिक दलों की रुचि भी वैसी ही है जैसी शाहीन बाग के दौरान दिखी थी। जो ज्यादा अहम बात है वह यह कि इस बार संगठनों ने वार्ता से भी इंकार कर दिया है। उनकी ओर से फरमान जारी कर दिया गया है कि कानून वापस लो। क्या यह उचित बात है! किसकी मांग सही है और किसकी गलत? इस पर चर्चा करने की जरूरत ही नहीं। सड़क बंद राजनीति करने वाले संगठनों और दलों को इसकी परवाह नहीं कि आवागमन बाधित होने से करोड़ों लोगों को परेशानी होती है या फिर देश की अर्थव्यवस्था को झटका लगता है। किसान संगठनों के आंदोलन के कारण पिछले कुछ दिनों में हजारों करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है, लेकिन परवाह नहीं। देश को नुकसान पहुंचाने वाली ऐसी प्रवृत्ति को किसी सीमा पर तो रोकने की जरूरत है। 

 भारतीय सेना: हिमालय पर बुलंद हौसला

सेना के पराक्रम और जोश में कभी कमी नहीं होती है। इतिहास गवाह है कि नेतृत्व की क्षमता और दृढ़ता सेना के मनोबल को कभी तोड़ती है तो कभी खुलकर प्रदर्शन करने का मौका देती है। पूर्वी लद्दाख स्थित वास्तविक नियंत्रण रेखा का अतिक्रमण चीन ने इस बार भी विस्तार के पुराने इरादे से ही किया था, लेकिन चीनी रणनीतिकारों को भारतीय सेना के इरादों का पता नहीं था। जून की खूनी झड़प से ही चीन को यह एहसास हो गया था कि इस बार उसके हर दांव का पूरा जवाब मिलने वाला है। 1975 के बाद यह दोनों देशों की सेनाओं के बीच सबसे खूनी झड़प थी, जिसमें 20 भारतीय जवानों की शहादत हुई, लेकिन उन सभी ने चीनी सैनिकों को मारते-मारते दम तोड़ा। तानाशाही चीनी व्यवस्था ने अपने मृत सैनिकों की कोई संख्या नहीं बताई, लेकिन इसके बाद भारतीय सेना के बांकुरों ने सितंबर, 2020 में एलएसी के करीब आधा दर्जन ऐसी चोटियों पर पैठ कर ली जहां से चीनी सेना के बड़े हिस्से की गतिविधियों पर नजर रखी जा रही है। जानकार इसे मौजूदा तनावपूर्ण स्थिति का सबसे बड़ा टर्निग प्वॉइंट मानते हैं। समूचे एलएसी पर अभी तापमान शून्य से 20 डिग्री नीचे रहता है। इसके बावजूद वहां भारतीय सैनिक बुलंद हौसले से चीनी सैनिकों की आंखों में आंखें डाले तैनात हैं। ग्राउंड पर हालात बदले हैं। चीन को इस बात का करारा झटका लगा है कि भयंकर सर्दी के बावजूद भारतीय सैनिक न सिर्फ इस इलाके में डटे हैं बल्कि वार्ता की मेज पर भी उनकी नहीं चल रही है। चीन के इस अतिक्रमण के परिप्रेक्ष्य में भारतीय सेना के हौसलों का सबसे बड़ा असर यह हुआ कि भारतीय जनमानस से वर्ष 1962 के युद्ध परिणाम का भय काफी हद तक उतर गया है। साथ ही इसने भारतीय कूटनीतिकारों को चीन की आक्रामक नीति के खिलाफ वैश्विक मत बनाने के लिए समय दिया है।

स्वदेशी स्वावलंबन: देश ने समझी आत्मनिर्भरता की शक्ति

चीन अपनी कुटिल चालों से हमें पूरे साल तंग करता रहा, इसके बावजूद हम सकारात्मक भाव से उसे धन्यवाद दे सकते हैं कि उसने भारतवासियों को उनके पुरुषार्थ, आत्मसम्मान, मेधा और उन क्षमताओं की याद दिला दी जो ब्रिटिश शासकों ने सुनियोजित ढंग से छीन ली थी। देश के विभिन्न हिस्सों में पुरातात्विक खनन और हमारे वैदिक-पौराणिक साहित्य में उल्लिखित प्रसंगों से कोई शक नहीं कि हमारे पूर्वज किस हद तक शिक्षित, प्रशिक्षित, पारंगत, प्रगतिशील और उन्नतशील थे। आत्मसम्मान और आत्मनिभर्रता हमारे सहज जीवनमूल्य थे। वर्ष 2020 देश के अपने पुरातन मार्ग पर लौटने के लिए याद किया जाएगा। इस दृष्टि से गुजरी दीवाली मील का पत्थर मानी जाएगी, जब देशवासियों ने असाधारण आत्मसम्मान का भाव प्रबल करके विदेशी, खासकर चाइनीज सामग्री के बाजार को ठेंगा दिखा दिया। चीन अपेक्षाकृत सस्ती सामग्री का प्रलोभन देकर स्वदेशी बाजार पर आघात करता था, पर इस साल लोगों ने कीमत वाला पहलू नजरअंदाज कर दिया। चीन की भारत विरोधी हरकतों के प्रति आक्रोश की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत के आह्वान ने जादू जैसा असर किया। त्योहारों में इस्तेमाल होने वाली सामग्री से लेकर जीवन की रोजमर्रा की जरूरतों के लिए आवश्यक छोटी-बड़ी तमाम वस्तुओं का उत्पादन देश में शुरू हो गया। इस कड़ी में ऐसे-ऐसे प्रयोग हुए कि दुनिया चौंक गई। कोरोनाकाल में रोजगार के संकट ने भी आत्मनिर्भरता को प्रोत्साहित किया। प्रधानमंत्री का आग्रह देखते हुए सरकार भी आत्मनिर्भरता की प्रवृत्ति को हर संभव सहायता दे रही है। छोटे-छोटे गांवों तक लोग जिस उत्साह के साथ स्वरोजगार की ओर उन्मुख हैं, वह अपनी रीढ़ सीधी करके खड़े हो रहे आत्मनिर्भर भारत की मोहक झलक है।


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