वर्ष 2020 रहा डिजिटल प्लेटफार्म पर उफान का साक्षी, आया नया वर्क कल्चर 'WFH'
जाता साल 2020 काफी कुछ सीखा गया। वर्क फ्रॉम होम आयुर्वेद समेत डिजिटल प्लेफार्म पर आया उफान इस साल की उपलब्धियों में गिने जाने लायक है जो लोगों ने कोरोना काल में भी अपने कामों को सुचारू रूप से चलाने के लिए अपनाया।
नई दिल्ली, जेएनएन। वर्ष 2020 के कोरोना काल में लोग एक नई कार्य संस्कृति ‘वर्क फ्रॉम होम’ से रूबरू हो रहे हैं। पढ़ाई-लिखाई और कमाई सभी या तो घर से हो रहे थे या घर पर आ रहे थे। यह साल डिजिटल शॉपिंग के उफान का साक्षी बना तो वहीं डिजिटल मनोरंजन के रूप में ओटीटी के उभार का भी। इस साल ने लोगों को इम्युनिटी का महत्व भी समझाया, नतीजतन योग और आयुर्वेद जीवन में वापस लौट आया। वाकई भारत के लिए यह कई अर्थो में गौरव का वर्ष रहा।
वर्क फ्रॉम होम: दहलीज के भीतर दफ्तर
लॉकडाउन पीरियड में, वर्क फ्रॉम होम (WFH) जैसी कार्य-संस्कृति दुनिया की आवश्यकता बन बैठी। इसके बूते भी दुनिया पूरी तरह बर्बाद होने से बच गई। आइटी, बीपीओ, कम्युनिकेशन जैसे कमाऊ क्षेत्रों के अनेक उद्यम इस उपाय से सुचारू रहे। शिक्षकों ने वर्क फ्रॉम होम किया तो बच्चों ने भी घर से मोर्चा संभाला। इसी तरह स्वास्थ्य उद्योग भी पूरी तरह चरमराने से बच गया। अधिकांश निजी चिकित्सकों ने घर से ओपीडी चलाई। इस नई संस्कृति से कर्मचारियों को सुविधा सुलभ हुई और उद्यमों को भी। अव्वल तो यह कि वे उजड़ने से बच गए। कुछ अप्रत्यक्ष लाभ भी हैं, जिनका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। एक पुराना और दिलचस्प उदाहरण है। लोक सेवकों को जनता की कमाई से कार, आवास, ड्राइवर, खानसामा, चपरासी इत्यादि सुविधाएं क्यों सुलभ कराई जाती रही हैं? जनता पर रौब झाड़ने के लिए? नहीं! लोक प्रशासन विषय में इसे समझाया गया है। दरअसल लोक सेवा में गुणवत्ता लाने के उद्देश्य से यह सुविधाएं दी जाती हैं। कैसे? माना गया है कि अहम जिम्मेदारी निभाने वाले और व्यवस्था का संचालन करने वाले लोक सेवक यदि दैनंदिन की इन उलझनों में उलझेेंगे, तो इससे उनकी कार्यक्षमता व दक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना तय है। जो अंतत: जनता को मिलने वाली सेवाओं की गुणवत्ता
को ही प्रभावित करेगा। वर्क फ्रॉम होम कल्चर के पक्ष में भी ऐसे ही तर्क दिए जाते रहे हैं। अब तो इसे परिवहन विषयक समस्याओं, पर्यावरण विषयक चुनौतियों, शहरों पर पड़ने वाले बेजा बोझ और स्वास्थ्य व संक्रमण विषयक चिंताओं के सापेक्ष भी हितकर आंका जा रहा है।
इंटरनेट मीडिया: नेटवर्किंग से जुड़ी जिंदगी
कोरोनाकाल में लॉकडाउन के कारण आपसी संपर्को और संबंधों की डोर टूटी तो वाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर सरीखे इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्म उन लोगों के लिए भी संप्रेषण का नया हाईवे बनकर उभरे, जो अब तक इससे दूरी बरत रहे थे। महामारी की वजह से उत्पन्न असामान्य हालात में कार्यालय बंद हुए तो इसी माध्यम ने घर से काम करने की राह दिखाई। स्कूल-कॉलेजों के दरवाजे बंद हुए तो इसी के जरिए ही शिक्षा की लौ भी जली। घर में कैद लोगों का इसके सहारे उन दोस्तों और रिश्तेदारों से भी जुड़ाव हुआ, जिनसे लंबे वक्त से बात भी नहीं हुई थी। परिवारों ने अपने वाट्सएप ग्रुप बनाए और जमकर वीडियो चैटिंग भी की। इसी माध्यम के दम पर किसी ने जरूरतमंदों तक मदद पहुंचाई तो किसी ने अपने शौक को एक सफल व्यवसाय का रूप दे दिया। कुल मिलाकर लॉकडाउन में भले ही सेहत के प्रति अतिरिक्त सतर्कता बरतनी पड़ी या फिर कॅरियर को लेकर कुछ तनाव के पल भी आए, लेकिन इंटरनेट मीडिया के जरिए हमने सामूहिक रूप से इसका सामना किया। इसके बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संकट के समय यह माध्यम चाहे जितना उपयोगी रहा हो, इसकी खामियों को कतई अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसके स्याह कोनों में जिंदगियों के गर्क होने की ढेरों मिसालें भी इस साल सामने आ चुकी हैं। दिल्ली दंगों से लेकर कोरोना संकट और अब किसान आंदोलन में इंटरनेट मीडिया पर घृणा फैलाने वाली खबरें और भ्रामक जानकारियों की बाढ़ सी रही।
डिजिटल शॉपिंग: सामान मंगवाने का सुचारु तंत्र
डिजिटल शॉपिंग को युवाओं से जोड़कर देखने के आदी इस देश में इस साल सभी उम्र के लोगों ने इससे साथ जोड़ा। तो वहीं ऑनलाइन शॉपिंग कंपनियों को घर-घर तक पहुंचाने में इनके डिलिवरी बॉय की भी महती भूमिका रही। कोरोना महामारी से मुकाबला करने में स्वास्थ्य, पुलिस एवं प्रशासन कर्मियों और अधिकारियों के साथ डिलिवरी बॉय भी अग्रणी योद्धा के रूप में मोर्चे पर नजर आए। मेडिकल पेशेवरों ने जिंदगियां बचाने का काम किया और पुलिस व प्रशासन ने सामान्य हालात बनाए रखने में मदद की, जबकि डिलिवरी बॉय ने गृहस्थी चलाए रखने में अपना रोल अदा किया। डिजिटल शापिंग कंपनियों के ये डिलिवरी बॉय कोरोना संक्रमण से पहले भी मौजूद थे, लेकिन अब वे हमारी दिनचर्या और जीवनशैली का अभिन्न अंग बन चुके हैं। लॉकडाउन और उसके बाद डिजिटल शॉपिंग में अभूतपूर्व बढ़ोतरी के चलते कम से कम शहरों में तो ऐसे बहुत कम ही घर होंगे जिनके दरवाजे पर किसी डिलिवरी बॉय ने दस्तक न दी हो। कपड़े, भोजन और किराना से लेकर दवाइयों तक को सही समय पर सही जगह पहुंचाने में इनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। जब सारा देश लॉकडाउन में बंद था तब यही डिलिवरी बॉय गली-गली में एक नए किरदार के रूप में उभरकर सामने आए। हालांकि उन्हें अपने काम को अंजाम देने में कई दिक्कतों का भी सामना करना पड़ा। कई बार उन्हें पुलिस की मार सहनी पड़ी तो कई कोरोना संक्रमण की चपेट में आ गए। उनकी सेवा शर्ते भी अनुकूल नहीं हैं। ऐसे में तेजी से बढ़ते इस क्षेत्र के नियमन की सख्त जरूरत है।
जम्मू कश्मीर: सही अर्थ में स्वर्ग
भारत का हिस्सा होते हुए भी सत्तर वर्ष तक मुख्यधारा से कटा रहा जम्मू-कश्मीर अब नई करवटें ले रहा है। पहली बार हर स्तर तक लोकतंत्र का संचार हो रहा है। पंचायत के बाद जिला परिषद के भी चुनाव हो चुके हैं जिसमे स्थानीय जनता ने अब तक के इतिहास में सबसे ज्यादा वोट दिए। सवाल है कि इसका संदेश क्या है? क्या यह माना जाए कि स्थानीय स्तर पर अब अनुच्छेद 370 विवाद का विषय नहीं रहा? क्या जम्मू-कश्मीर भी देश के विकसित राज्यों की दौड़ में शामिल हो पाएगा? क्या पाकिस्तान अब कभी भी कश्मीर राग नहीं अलाप पाएगा? ऐसे सवालों के उत्तर खुद-ब-खुद मिलने लगे हैं। पिछले दिनों में प्रदेश के राजनेताओं में छटपटाहट दिखी। उनकी ओर से अनुच्छेद 370 की वापसी को मुद्दा बनाने की कोशिशें भी हुईं और इसी खातिर नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और यहां तक कि कांग्रेस ने भी पंचायत चुनाव का बहिष्कार किया, लेकिन जनता ने उन्हें ही नजरअंदाज कर दिया। ऐसे राजनीतिक दलों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है जो जनता को स्वच्छंदता दिलाने की बजाय डर और आतंक के साये में बांधकर रखना चाहते थे। जाहिर है कि राष्ट्रीय स्तर पर भी सोच बदली है। राज्य में निवेश को बढ़ावा देने की कोशिशें हो रही हैं जिसका असर दिखने में कुछ वक्त लगेगा। भले ही पाकिस्तान राज्य में अस्थिरता पैदा करने की कोशिशें करे, लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में अब कश्मीर राग की आवाज नहीं उठेगी। राह सही रही तो प्राकृतिक छटाओं के कारण भारत का स्वर्ग कहलाने वाला कश्मीर अब सही मायनों में इसे चरितार्थ करेगा।
जीवनशैली: आपदा से जूझने में आयुर्वेद बना अस्त्र
यह साल हमारी परंपराओं को पुनर्जीवन देने के रूप में भी पहचाना जाएगा, जब कोरोना संक्रमण के खिलाफ मजबूत इम्युनिटी की मांग को पूरा करते हुए हमारी जीवनशैली में आयुर्वेद की दखल बढ़ी। मजबूत रक्षक साबित होते हुए इसका डंका विदेश तक बजा। चीन, अमेरिका, इटली, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन समेत तमाम विकसित देशों में तबाही मचाने के बाद कोरोना की लहर अपने देश में दस्तक दे रही थी। जब तक समाज-सरकार चैतन्य हो पाते, महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य प्रदेश में यह वायरस लोगों को अपना ग्रास बनाने लगा। चिकित्सा विज्ञान के महारथी देशों का हश्र देखकर दुनिया मान रही थी कि जागरूकता और चिकित्सा सुविधाओं की दृष्टि से कमजोर भारत में यह वायरस भारी तबाही मचाएगा। तब आयुर्वेद हमारा कवच बनकर कोरोना के सामने खड़ा हो गया। सभी ने पाया कि फिलहाल इम्युनिटी मजबूत करना ही एकमात्र उपाय है और तब याद आईं हमारी परंपरागत चीजें और दादी मां के नुस्खे। आयुर्वेद परिवार की संतानें गिलोय, तुलसी, अदरक, काली मिर्च, दालचीनी, मुलेठी, अश्वगंधा और हल्दी से तैयार होने वाला काढ़ा घर-घर में पहुंचा और कोरोना को चुनौती देने लगा। नई पीढ़ी ने भी आयुर्वेद की परंपरागत शैलियों की महत्ता और उपयोगिता को समझा क्योंकि संकट के इस दौर में जब विकसित देशों की मेडिकल साइंस के होश फाख्ता थे, तब आयुर्वेद रोग प्रतिरोधक क्षमता की ढाल बनकर हमारी सुरक्षा में खड़ा था। योग और प्राणायाम इसके साथ सोने पर सुहागा जैसा प्रभाव पैदा कर रहे थे। शारीरिक स्वास्थ्य रक्षा में आयुर्वेद तो वहीं मानसिक स्वास्थ्य के लिए योग ने बखूबी साथ दिया। यह हमारी परंपरागत शैलियों का प्रमाण था कि भारतवर्ष में कोरोना संक्रमण और इससे होने वाली मौतों की दर विकसित देशों के मुकाबले बहुत कम रही!
कोरोना वैक्सीन: मानवता को बचाने का मिशन
पोलियो के वायरस का पता 1908 में लगा और दुनिया को अपंग करने पर आमादा इस वायरस की काट 1955 में खोजी गई। इसमें करीब आधी सदी लग गई थी। ऐसे में ज्ञात मानव इतिहास की सबसे बड़ी स्वास्थ्य आपदा कोविड-19 का टीका सालभर के भीतर तैयार होना दुनिया के सम्मिलित, समेकित और समावेशी प्रयास का ही प्रतिफल है। जनवरी, 2020 में जब पूरी दुनिया के सामने कोरोना संक्रमण की बात आई तो चीन ने वायरस के जेनेटिक कोड की जानकारी वैश्विक स्तर पर उपलब्ध कराई। दुनिया के वैज्ञानिक एकत्र हुए और टीके के विकास पर काम शुरू हो गया। फाइजर व मॉडर्ना द्वारा मैसेंजर आरएनए तकनीक पर आधारित कोरोना का सबसे पहला टीका तैयार हुआ। वैज्ञानिक इस तकनीक पर पहले से काम कर रहे थे। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, भारत बायोटेक सहित भारतीय कंपनियों और कई अन्य देशों ने पुरानी तकनीक से कम समय में टीका बनाने में कामयाबी हासिल की। टीके के विकास के साथ-साथ उसके ट्रायल की भी खास रणनीति तैयार की गई, जिससे ट्रायल में बहुत लंबा वक्त न लगे। थोड़े जोखिम और अधिक खर्च के साथ पहले, दूसरे और तीसरे चरण का ट्रायल एक साथ हुआ। अच्छी बात यह है कि टीके ट्रायल में कामयाब रहे। दुनियाभर में जितने लोग इस वायरस से संक्रमित हुए, अगर उनमें मौजूद सभी वायरस को एक साथ रख दिया जाए तो उसकी मात्र पांच मिलीलीटर ही होगी, लेकिन इस अदने से वायरस ने इंसानी अस्तित्व को ही झकझोर दिया था। खैर, अंत भला तो सब भला की तर्ज पर अब वैक्सीन की ताकत हमारे हाथों में है।