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World Water Day: ये हमारा दुर्भाग्‍य है कि हम इतनें वर्षों में भी पानी का सही प्रबंधन नहीं कर सके

भारत में वर्षों तक पानी के प्रबंधन पर कोई ध्‍यान नहीं दिया गया। ये हमारे लिए दुर्भाग्‍य की बात है। आबादी बढ़ने के साथ अब इसमें मुश्किल भी आ रही है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sun, 22 Mar 2020 10:41 AM (IST)Updated: Sun, 22 Mar 2020 10:41 AM (IST)
World Water Day: ये हमारा दुर्भाग्‍य है कि हम इतनें वर्षों में भी पानी का सही प्रबंधन नहीं कर सके
World Water Day: ये हमारा दुर्भाग्‍य है कि हम इतनें वर्षों में भी पानी का सही प्रबंधन नहीं कर सके

प्रोफेसर असित के. बिस्वास। हर साल 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर पानी की महत्ता और इसके अनवरत प्रबंधन की हिमायत करना है। दुर्भाग्य से भारत में, जल प्रबंधन की करीब एक सदी से टिकाऊ राह नहीं रही है। 1970 तक की यहां की जनसंख्या 55 करोड़ थी, तब तक इसका प्रबंध किया जा सकता था। शहरीकरण कम था, इसी तरह से औद्योगिकीकरण और लोगों की अपेक्षाएं भी कम थीं। 2019 तक भारत की आबादी एक अरब 37 करोड़ पहुंच गई। यद्यपि इन 50 सालों में भारत की आबादी में 150 फीसद की बढ़ोतरी हुई।

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पानी वह संसाधन है, जो हर मानवीय गतिविधि के लिए आवश्यक है। यह हमारे जीवित रहने से शुरू होकर के खाना बनाने, ऊर्जा उत्पन्न करने, पर्यावरण और पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने के साथ ही सभी औद्योगिक और आर्थिक गतिविधि के लिए जरूरी है। भारत के आर्थिक और सामाजिक विकास को गति देने के लिए बेहतर, भरोसेमंद और टिकाऊ जल प्रबंधन प्रणाली की दरकार है।

लगभग सभी भारतीय शहरों में पानी की स्थिति में गिरावट के कई कारण हैं। ये पानी की कमी या विशेषज्ञता की अनुपस्थिति या उपलब्ध तकनीक की कमी या धन की कमी के कारण नहीं हैं, इसे लेकर बार-बार भारतीय राजनेताओं और नौकरशाहों को मुख्य कारण माना जाता है। विशेषज्ञता के मामले में भारत की पहुंच सिंगापुर के साथ समान स्तर पर है। सिंगापुर में उपयोग की जाने वाली सभी प्रकार की तकनीक वैश्विक बाजार में उपलब्ध हैं और पूंजी की कमी कभी भी वास्तविक बाधा नहीं रही है।

इसके विपरीत भारत की शहरी जल आपूर्ति में गड़बड़ी के दो मुख्य कारण हैं। पहला कारण है राज्य के मुख्यमंत्रियों का लंबे समय तक जल को लेकर निरंतर रुचि का अभाव। वे जल में उसी समय रुचि लेते हैं जब वहां पर भीषण सूखा पड़ता है या फिर बाढ़ आती है। एक बार जब ये घटनाएं खत्म हो जाती हैं तो अगले सूखे या बाढ़ तक जल में राजनीतिक रुचि भी खत्म हो जाती है। भारत में जल प्रबंधन तब तक नहीं सुधर सकता है, जब तक कि मुख्यमंत्री जल को प्राथमिकता नहीं देते हैं। यह दीर्घकालीन आधार पर निर्भर करता है। इसकी तुलना सिंगापुर से करें, जहां पर मध्य पूर्व के रेगिस्तानी देशों के समान दुनिया का सबसे कम प्रति व्यक्ति अक्षय मीठा पानी उपलब्ध है, लेकिन यह भारत से काफी कम है।

1965-1992 तक सिंगापुर के प्रधानमंत्री रहे ली कुआन यू से मैंने कई बार चर्चाएं कीं। मैंने उनसे पूछा कि क्यों वे दुनिया के किसी भी देश के इकलौते प्रधानमंत्री हैं जो निरंतर रूप से पानी को लेकर रुचि रखते हैं। उनका जवाब बहुत ही सरल था। उन्होंने महसूस किया कि 1965 में सिंगापुर का सामाजिक और आर्थिक विकास विश्वसनीय जल आपूर्ति पर टिका है। 1965-1992 के दौरान उनके निजी ऑफिस में तीन अधिकारी थे, जिनका काम सभी नीतियों का जल के चश्मे से जांच करना था।

उनका मत था कि सिंगापुर के लिए पानी रणनीतिक संसाधन है और सभी नीतियों को पानी के लिए घुटनों में झुकना होगा। उनकी दृष्टि और उनके द्वारा स्थापित प्रणाली यह सुनिश्चित करेगी कि 2061 तक सिंगापुर पानी में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो जाएगा, जब मलेशिया से पानी आयात करने की अंतिम संधि समाप्त हो जाएगी और तब तक इसकी मांग दोगुनी होने का अनुमान है।

दूसरा महत्वपूर्ण कारण, जो पहले की तरह ही भारतीय नीति निर्माताओं और जल पेशेवरों द्वारा लगातार अनदेखा किया गया है, यह है कि भारत के प्रमुख शहरों जैसे दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और बेंगलुरु में पानी का प्रबंधन कैसे किया जाता है। इन शहरों के मुख्य कार्यकारी आइएएस अधिकारी होते हैं, जिन्हें यह ज्ञात नहीं होता है कि कैसे दक्षतापूर्वक जल प्रबंधन किया जाए। साथ ही वे सीखने की कठिन अवस्था का सामना करते हैं। इसके अतिरिक्त दिल्ली जल बोर्ड के प्रमुख औसतन 18 महीने तक पद पर रहते हैं। बेंगलुरु में यह 12 से 14 महीने है। जब वे आते हैं तो महूसस करते हैं कि समस्याएं प्राथमिक रूप से राजनीतिक हैं और उनके पास सेवा करने के लिए बहुत कम वक्त है। जब तक वे इसे लेकर के जानकारी हासिल करते हैं और योजना बनाना शुरू करते हैं वे चले जाते हैं।

यदि भारतीय शहरों में पानी की अच्छी व्यवस्था चाहिए, जहां लोगों को सीधे नल से पानी पीने का आत्मविश्वास हो, तो इससे निपटने का एक ही समाधान है कि पेशेवर और कुशलता से उपयोगिताओं को उपलब्ध कराने के लिए सबसे अच्छे व्यक्ति को लगाया जाए। उन्हें प्रमुख प्रदर्शन हासिल करना होगा। यदि वे सफल होते हैं तो उन्हें 6-8 साल के लिए प्रमुख बने रहने दें। इसके बाद स्वतंत्र और सक्षम नियामक जो कि जल प्रबंधन की रूपरेखा स्थापित करे और इस प्रकार राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रहें।

दिल्ली या बेंगलुरु जैसे शहरों के लिए, ये कदम उनकी 60 फीसद पानी की समस्याओं को हल कर देंगे। यदि नहीं, तो भी 2050 तक भारत में कुशल शहरी जल और अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली होने की संभावना नहीं है। मौजूदा व्यापक धारणा के विपरीत, भारत के शहरों में पानी संकट की मुख्य वजह पानी की कमी नहीं है तो क्या भारत जल प्रबंधन को लेकर बहुत ही बड़े संकट का सामना कर रहा है। ये दोनों बिल्कुल अलग बातें हैं। भारत की जल समस्याएं एक दशक में सुधरने योग्य हैं। इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व और व्यावसायिक असामान्य समाधानों की आवश्यकता होगी।  दुर्भाग्य से दोनों अपनी अनुपस्थिति से विशिष्ट हैं। ऐसे में विश्व जल दिवस भारत के नीतिनियंताओं के लिए सुधार का मौका है।

दो शहर अलग शऊर

दो शहरों दिल्ली और सिंगापुर की तुलना करें। 1970 में वे जल प्रबंधन के समान स्तर पर थे। इसके बाद, सिंगापुर के जल प्रबंधन में तेजी से सुधार हुआ है। 2000 तक, यह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ माना गया। इसके विपरीत, दिल्ली का जल प्रबंधन लगातार बिगड़ता गया है और अब तो यह कि विकासशील विश्व का सबसे खराब उदाहरण होने की प्रतिपर्धा कर सकता है, जो कि साओ पाउलो या शंघाई जैसे बड़े शहरों से भी काफी पीछे है 

(लेखक थर्ड वर्ड सेंटर फॉर वाटर मैनेजमेंट, मेक्सिकोमें चीफ एक्जीक्यूटिव हैं) 

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