AIDS Day: इलाज के साथ सहानुभूति भी मिले तो पूरा जीवन जी सकता है बीमार
एड्स एक ऐसी बीमारी है जो धीरे-धीरे इंसान को अंदर से खोखला कर देती है, इसलिए ऐसे मरीजों को दुत्कारें नहीं बल्कि प्यार दें।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। अगर आप भी किसी एचआइवी एड्स पीड़ित के साथ ऐसा भेदभावपूर्ण व्यवहार होते देखें तो एक पल को ठहरें और सोचें अगर आपका कोई बेहद करीब ऐसी बीमारी से ग्रसित होता तो आप क्या करते। एचआइवी-एड्स ऐसी बीमारी नहीं है जो छूने, साथ खाने जैसे सहज मानवीय भावनाओं से फैल जाए। छूने और साथ खाने से प्यार फैलता है एड्स नहीं। एड्स एक ऐसी बीमारी है जो धीरे-धीरे इंसान को अंदर से खोखला कर देती है, इसलिए ऐसे मरीजों को दुत्कारें नहीं बल्कि प्यार दें। इस बीमारी से ग्रसित व्यक्ति का उपहास उड़ाने की कोशिश भी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि यह असुरक्षित यौन संबंधों के अलावा यह संक्रमित सुई, खून और अजन्मे बच्चे को उसके मां से भी हो सकता है।
सरकारी अस्पतालों में इलाज तो मुफ्त है, लेकिन देखरेख न के बराबर। ऐसे में मरीज के परिजन प्राइवेट अस्पतालों में लाखों खर्च कर देते हैं। जबकि उन्हें भी पता है कि इस बीमारी के होने का मतलब है निश्चित मौत। इलाज के लिए दर-दर भटकने के अलावा मरीज और उसके परिजनों के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं रह जाता। या फिर चुपचाप मौत का इंतजार करें।
एड्स की चपेट में युवा, कम उम्र में ही बन रहे शिकार
एड्स दुनिया में आज भी किसी महामारी से कम नहीं है। भारत के साथ वैश्विक देशों के लिए भी यह सामजिक त्रासदी और अभिशाप है। लोगों को इस महामारी से बचाने और जागरूक करने के लिए 1 दिसंबर को मनाया जाता है। इस दिवस की पहली बार 1987 में थॉमस नेट्टर और जेम्स डब्ल्यू बन्न ने कल्पना की थी। बहरहाल बताते चलें कि एड्स स्वयं में कोई बीमारी नहीं है, लेकिन इससे पीड़ित व्यक्ति बीमारियों से लड़ने की प्राकृतिक ताकत खो बैठता है। उस दशा में उसके शरीर में सर्दी-जुकाम जैसा संक्रमण भी आसानी से हो जाता है। एचआइवी यानि ह्यूमन इम्यूनो डिफिसिएंसी वायरस से संक्रमण के बाद की स्थिति एड्स है। एचआइवी संक्रमण को एड्स की स्थिति तक पहुंचने में आठ से दस साल या कभी-कभी इससे भी अधिक वक्त लग सकता है।
बीमारी से ज्यादा भेदभाव मार रहा
एड्स से बचाव संभव है, लेकिन एक बार किसी व्यक्ति को यह रोग लग गया तो देर-सबेर उसकी मौत निश्चित है। एड्स की बीमारी धीरे-धीरे इंसान को मौत के आगोश में ले जाती है, लेकिन सामाजिक भेदभाव पीड़ित को तिल-तिल मरने पर मजबूर कर देता है। इसकी सजा पीड़ित के परिवार को भी भुगतनी पड़ती है। इससे बुरी बात क्या होगी कि यह जानते हुए भी कि एड्स संक्रामक बीमारी नहीं है आज भी अस्पतालों, दफ्तरों और स्कूलों से इस बीमारी से ग्रसित मरीज को निकाल बाहर कर दिया जाता है।
एड्स और टीबी
क्योंकि एड्स मरीज की रोग प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देता है। इसलिए मरीज को तरह-तरह की बीमारिया घेर लेती हैं। साधारण सर्दी-जुकाम भी मरीज के लिए घातक साबित हो सकता है। दुनियाभर में एड्स की वजह से होने वाली मौतों में टीबी का बड़ा हाथ है। जिन लोगों में एचआइवी संक्रमण हो, उनमें टीबी की आशंका 30 गुना अधिक होती है।
एड्स के सामान्य लक्षण
एचआइवी संक्रमण के लक्षणों पर नजर डालें तो यह बेहद सामान्य से हैं, जिन्हें लोग आसानी से लोग नजरअंदाज कर देते हैं। इसमें लगातार तेज बुखार, हमेशा थकान व नींद आना, भूख में कमी, रात में सोते समय पसीना आना, दस्त लगना व वजन में कमी एचआइवी संक्रमण के लक्षण हो सकते हैं। इस संक्रमण की स्थिति में त्वचा पर चकते भी पड़ सकते हैं तथा ग्रंथियों में सूजन आ सकती है। किसी व्यक्ति को अगर खुद के एचआइवी संक्रमित होने का शक हो और ऐसे लक्षण भी दिखें तो उसे एचआइवी संक्रमण की जांच जरूर करा लेनी चाहिए।
ताकि मां से बच्चे में न पहुंचे संक्रमण
एचआइवी पॉजिटिव गर्भवती महिला से शिशु में संक्रमण न फैले, इसके लिए गर्भवती महिला की एआरटी शुरू की जाती है। प्रसव के तुरंत बाद शिशु को नेविरेपिन सीरप .2 एमएल प्रति किलोग्राम वजन के हिसाब से दिया जाता है। एआरटी ले रही गर्भवती महिलाओं के शिशु को 45 दिन तक सीरप दिया जाता है।
इलाज और प्यार, पूरा जीवन जी सकता है बीमार
डॉ. तेजस्वी बताते हैं कि अगर एचआइवी संक्रमण का समय रहते पता चल जाए, सामाजिक सहयोग मिले तथा उचित इलाज हो तो 20 साल का युवा और 50 साल आराम से जी सकता है। अर्थात् एचआइवी संक्रमण में जीवन प्रत्याशा सामान्य रह सकती है। इस दौरान उसकी कार्यक्षमता भी सामान्य रह सकती है। यहां तक कि अगर सही इलाज हो तो संक्रमित मां भी स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकती है।
एड्स से पीड़ित देश
एड्स से पीड़ित दस लाख से अधिक किशोर सिर्फ छह देशों में रह रहे हैं और भारत उनमें एक है। शेष पांच देश दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया, केन्या, मोजांबिक और तंजानिया हैं। सबसे दुखद स्थिति महिलाओं के लिए होती है। उन्हें इसकी जद में आने के बाद सामाजिक त्रसदी और घर से निष्कासन का दंश झेलना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक, 1981 से 2007 में बीच करीब 25 लाख लोगों की मौत एचआइवी संक्रमण की वजह से हुई। 2016 में एड्स से करीब 10 लाख लोगों की मौत हुई। यह आंकड़ा 2005 में हुई मौत के से लगभग आधा है। साल 2016 में एचआइवी ग्रस्त 3.67 करोड़ लोगों में से 1.95 करोड़ इसका उपचार ले रहे हैं।
इस बीमारी की भयावहता का अंदाजा इन मौतों से लगाया जा सकता है। एड्स के बारे में लोग 1980 से पहले जानते तक नहीं थे। भारत में पहला मामला 1996 में दर्ज किया गया था, लेकिन सिर्फ दो दशकों में इसके मरीजों की संख्या 2.1 करोड़ को पार कर चुकी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में केवल 2011 से 2014 के बीच ही डेढ़ लाख लोग इसके कारण मौत को गले लगाया। भारत में एचआइवी संक्रमण के लगभग 80,000 नए मामले हर साल दर्ज किए जाते हैं। वर्ष 2005 में एचआइवी संक्रमण से होने वाली मौतों की संख्या 1,50,000 थी।
जरूरत हैं इस बात कि सरकारें अपना नजरिया बदलें ताकि एक महामारी से मुकम्मल तरीके से मोर्चा लिया जा सके। ज्यादातर मामलों मे एचआईवी संक्रमण होने पर उन्हें घर छोड़ने को कह दिया जाता है। पत्नियों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने एचआईवी पॉजिटिव पति का साथ निभाएं लेकिन पति कम ही मामलों में वफादार साबित होते हैं। इस तरह की समस्याओं के प्रति नज़रिया बदलने की ज़रूरत है। क्योंकि यह सुखद संदेश है कि लोगों में जागरूकता और नाको के प्रयास से संक्रमित मामलों में कमी आ रही है। जरूरत है लोगों को अधिक सजग करने के राजनीतिक प्रयास की, जिससे इस महामारी को जड़ से खत्म किया जाए।