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सोलहवीं महासमर के बड़े धनुर्धर, इन कारणों से रहे चर्चा में

आरोप प्रत्यारोप, तीखे कटाक्ष, ग्लैमर और सूत्रधार। उत्तर प्रदेश में सोलहवीं लोकसभा के चुनाव की पटकथा में सारे रंग देखने को मिले। दो माह के चुनावी सफर में कई चेहरे दायरे से बाहर जाते नजर आए तो कुछ ने बचाव में आक्रामक रुख अख्तियार किया। वोटों की चाहत में सियासत के तीर करीब-करीब हर दिन चले।

By Edited By: Published: Tue, 13 May 2014 12:27 PM (IST)Updated: Tue, 13 May 2014 01:20 PM (IST)
सोलहवीं महासमर के बड़े धनुर्धर, इन कारणों से रहे चर्चा में

लखनऊ, [राज बहादुर सिंह]। आरोप प्रत्यारोप, तीखे कटाक्ष, ग्लैमर और सूत्रधार। उत्तर प्रदेश में सोलहवीं लोकसभा के चुनाव की पटकथा में सारे रंग देखने को मिले। दो माह के चुनावी सफर में कई चेहरे दायरे से बाहर जाते नजर आए तो कुछ ने बचाव में आक्रामक रुख अख्तियार किया। वोटों की चाहत में सियासत के तीर करीब-करीब हर दिन चले। कभी आक्रमण के लिए तो कभी बचाव के लिए। यहां तक कि मैदान से बाहर रणनीति बनाने वालों को भी वाक्युद्ध के मैदान में खुलकर आना पड़ा। अब चुनावी खुमार उतर चुका है। युद्ध के बाद की खामोशी है जो शायद चुनाव परिणाम के दिन विजयोल्लास के रूप में टूटे। महासमर के ऐसे ही धनुर्धर क्यों चर्चा में रहे, इस पर नजर।

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मुलायम सिंह यादव

प्रधानमंत्री बनने के सपने ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान नेताजी को भावुक बना दिया। उन्होंने कई स्थानों पर कहा कि अखिलेश को तो मुख्यमंत्री बना दिया। हमें भी तो कुछ बनाओ। इतनी धूप में मेहनत कर रहा हूं। उनकी इस जज्बाती अपील का क्या असर पड़ेगा इसका पता तो चुनाव बाद ही चलेगा लेकिन पूरे चुनाव के दौरान मुलायम सिंह यादव ने भी बहस छेड़ने वाली बातें भी कहीं और इन पर विवाद भी हुआ। नेताजी का बलात्कार के आरोप को यह कहना कि बच्चे हैं गलती हो जाती है लेकिन इसके लिए फांसी नहीं दी जा सकती, खासा विवादित हुआ। मन के हैं मुलायम इरादे लोहा हैं की तर्ज पर शिक्षा मित्रों को भी हड़का दिया-वोट नहीं दिया तो परमानेंट नहीं करेंगे। दहेज एक्ट और एससी एक्ट के अत्याचार करने का औजार बन जाने की बात भी नेताजी ने कही और यह भी कहा कि मौका मिलने पर इन्हें समाप्त किया जाएगा। फिर बहनजी को किस नाम से सम्बोधित करूं, वाला बयान दे कर विवाद उत्पन्न किया। अब इतना कुछ तो कर डाला। अब बस नतीजे का इंतजार है।

मोहम्मद आजम खां

पहले चरण के चुनाव प्रचार के दौरान खां साहब की जुबान कुछ ऐसी फिसली कि आयोग ने उनकी पब्लिक मीटिंग पर रोक लगा दी। परदे पर दिलीप कुमार जैसे अंदाज में शोले बरसाती तकरीर तो सुनने को नहीं मिली लेकिन अपना यह दर्द वह बयां करते रहे कि आयोग ने उनके साथ नाइंसाफी की और भाजपा के अमित शाह को बख्श दिया लेकिन उन पर लगी पाबंदी नहीं हटायी। अब चूंकि नेता अपने हक में जाने वाली बात ही करता है तो खां साहब यह बताने की जरूरत नहीं समझते कि शाह से पाबंदी तभी हटी जब उन्होंने आयोग को लिखित अंडरटेकिंग दी कि वह आइंदा ऐसा कुछ नहीं करेंगे या कहेंगे कि जिससे यह नौबत दोबारा सामने आए। अब शाह तो केवल शाह हैं लेकिन खां साहब ठहरे अपनी तरह के शहंशाह। उन्हें किसी तरह की माजरत करना कैसे गवारा होता। लिहाजा सियासी मुखालिफों को छोड़ वह आयोग से जूझने लगे। हो सकता है इसमें कोई रणनीति हो। उकसाने वाले एक के बाद एक बयान दिए लेकिन आयोग ने धैर्य बनाए रखा और बिल्कुल सही राह अपनाते हुए उन्हें नजरअंदाज किया। अब जब आजम लड़ने लगे तो भला नेताजी कहां पीछे रहने वाले थे। वह भी आयोग पर हमलावार हो गए। नोटिस मिली तो कह दिया कि हमारा क्या बिगाड़ लेगा आयोग। वैसे खां साहब पब्लिक फोरम से भले ही दूर रहे हों लेकिन बंद कमरों में उनकी नश्तर लगाती आवाज बुलंद होती रही।

मायावती

बसपा सुप्रीमो ने प्रधानमंत्री बनने को लेकर इस बार कोई लम्बे चौड़े दावे नहीं किए जबकि पिछली बार बसपाई चीख-चीख कर नारे लगाते थे कि यूपी हुई हमारी है, अब दिल्ली की बारी है। बहरहाल जुबां से निकले या न निकले लेकिन ख्वाब किसे अच्छे नहीं लगते। और प्रधानमंत्री के ख्वाब के तो कहने ही क्या। लो प्रोफाइल में रहकर ठोस काम करने वाले बसपाई बहनजी को क्या तोहफा देंगे, इसका पता तो आगे चलेगा लेकिन चुनाव के दौरान उनकी बेचैनी बीच-बीच में उठती रही और लोगों को हैरत तब हुई जब कई मौकों पर वह कांग्रेस का बचाव करने उतर पड़ीं। पहले जब योग गुरु बाबा रामदेव का दलितों से जुड़ा राहुल गांधी पर दिया गया बयान सामने आया और फिर जब नरेन्द्र मोदी ने प्रियंका के बयान के जवाब में 'नीच' राजनीति को उछाला। हो सकता है कांग्रेस का बचाव करना बहनजी की आइंदा किसी रणनीति का हिस्सा हो लेकिन फिलहाल तो जुबान पर बैलेंस ऑफ पावर बनने की बात है और नतीजे इसे तय करेंगे।

अखिलेश यादव

मुख्यमंत्री को कुछ और मिला हो या न मिला हो लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान 'बुआ' जरूर मिल गई हैं। वैसे यह ट्रैफिक वन वे वाला ही है क्योंकि मुख्यमंत्री बुआ कहते हैं लेकिन उधर से तसदीक नहीं होती। अखिलेश के लिए यह चुनाव उतना ही महत्वपूर्ण है जितना खुद मुलायम के लिए। राजनीति के जानकार लोकसभा चुनाव परिणामों को अखिलेश की भावी राजनीति के लिहाज से न केवल महत्वपूर्ण बल्कि निर्णायक भी मानते हैं। विधान सभा चुनाव की तरह ही अखिलेश ने जमकर मेहनत की है और नेताजी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अपनी सरकार की उपलब्धियां भी खूब बताईं। गुजरात के मोदी माडल को भी जमकर भला बुरा कहा और मोदी द्वारा भेजे गए शेरों के बारे में जवाब देते रहे कि हमने बदले में लकड़बग्घे दिए हैं। अब देखना है कि नेताजी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए टीपू की मेहनत क्या रंग लाती है।

राहुल गांधी

नरेन्द्र मोदी के जवाब के तौर पर कांग्रेस की ओर से अघोषित रूप से प्रोजेक्ट किए गए राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार में पसीना बहाया लेकिन राजनीतिक पंडितों को तब चौंकना पड़ा, जब वोटिंग वाले दिन उन्हें अपने किले अमेठी में पसीना बहाते देखा गया। मतदान के दिन अपने क्षेत्र में घूम रहे राहुल कई बार 'इरीटेट' हुए और आखिर में ईवीएम के निरीक्षण को लेकर विवाद खड़ा हो गया। आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायत आयोग में हुई और यह मामला मीडिया में भी खूब उछला। अनमने मन से की गयी जांच के बाद क्लीन चिट दी गयी। आयोग पर भी पक्षपात का आरोप लगा। राहुल गांधी के लिए जीतना जितना अहम है उतना ही अहम यह है कि मार्जिन ऐसा हो कि वह विजेता लगें भी। कुल मिलाकर राहुल के लिए यूपी में कांग्रेस का प्रदर्शन खासा मायने रखेगा।

प्रियंका गांधी

इस बार भी वह अपनी मां की रायबरेली और भाई की अमेठी तक ही सीमित रहीं लेकिन उनके मुंह से निकली बात को असीमित विस्तार मिल गया। कांग्रेसियों को राहत मिली कि चलो मोदी को माकूल जवाब तो मिला। लगा जैसे मोदी को जवाब देने के लिए कांग्रेस ने प्रियंका को मैदान में उतार दिया है। सब कुछ फिट फाट था कि तभी राजनीति को 'नीच' की नजर लग गई। मोदी कहां चूकने वाले थे। फौरन लपका और चुनावी तपिश में सियासी पारा बिल्कुल ऊपर पहुंच गया। मोदी पर भी तीर चले। खैर इस विवाद के बाद प्रियंका ने खामोशी अख्तियार कर ली। बहरहाल, अब यह देखना दिलचस्प होगा कि उनकी मेहनत क्या उनके भाई और मां के मार्जिन को बनाए रखती है अथवा इसमें गिरावट दर्ज की जाएगी।

नरेन्द्र मोदी

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ने की चर्चा वाराणसी की सरजमीं पर हकीकत में बदल गयी। नामांकन के दौरान उमड़ा सैलाब और फिर न होते हुए भी बन गए रोड शो ने बता दिया कि काशी के दिल में क्या है। उनके विरोधी उनके रास्ते में हैं लेकिन नतीजे का अंदाजा सभी को है। मोदी ने यूपी में ताबड़तोड़ सभाएं कर लोगों को अहसास कराया कि उनमें कितना स्टैमिना है। अगर भाजपा के पक्ष में कोई बयार बही है तो इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि यह मोदी की ही देन है। यह भी तय माना जा रहा है कि वडोदरा से जीतने के बावजूद मोदी काशी के ही बनकर रहेंगे। अब सभी निगाहें इस बात पर होंगी कि क्या वाराणसी भी प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र बनने का दर्जा हासिल करेगा।

अमित शाह

सूबे में भाजपा का प्रभारी बनाए जाने के बाद से ही गुजरात के पूर्व गृह राच्य मंत्री की क्षमताओं और रणनीति को लेकर उत्सुकता बनी हुई थी और चुनाव प्रचार ने यह साबित कर दिया कि उन्हें वे जुमले उछालना अच्छी तरह आता है, जिन पर हल्ला मचे। वेस्ट में उनकी ऐसी ही कोशिश के बाद उन पर पाबंदी लगी लेकिन शाह को अपनी आजादी का महत्व मालूम था। वाराणसी को भी तो संभालना था। लिहाजा, बिना किसी इगो में उलझे उन्होंने आयोग को माफीनामा दिया और ले ली आजादी। अब अगर यूपी में भाजपा का प्रदर्शन जबरदस्त रहता है तो प्रभारी के हिस्से कुछ न कुछ क्रेडिट तो जाएगा ही।

डा.मुरली मनोहर जोशी

वाराणसी से नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी को स्वीकार करने के बाद भी डाक्टर साहब कुछ उखड़े-उखड़े से रहे। जैसे हालात से गुजरना पड़ा, उनमें ऐसा होना अप्रत्याशित भी नहीं था। अलबत्ता नरेन्द्र मोदी ने उन्हें अपनी ओर से पूरा सम्मान दिया और कानुपर देहात की रैली में तो मंच पर उनके चरण स्पर्श किए। वैसे मोदी की धूम के आगे चुनाव प्रचार में इस बार पुरानी पीढ़ी के नेताओं पर फोकस कम ही रहा। जोशी ने काशी के गंगा किनारे से उठकर कानपुर में गंगा किनारे धूनी रमाने का बीड़ा उठाया है। अब नतीजे बताएंगे कि डाक्टर साहब और कानपुर के बीच कैसा रिश्ता बनता है।

हेमा मालिनी

चौधरी अजित सिंह को राजनीतिक आघात पहुंचाने के लिए उनके बेटे को हराने का मंसूबा पूरा करने भाजपा ने मथुरा में फिल्मी दुनिया की बसंती को उतार दिया। जोरदार चुनाव हुआ और धड़कते दिल से सभी को नतीजों का इंतजार है। वैसे 'बसंती' के लडऩे के कारण स्थानीय लोगों को उम्मीद थी कि उन्हें बीरू (धमर्ेंद्र) के भी दर्शन मिलेंगे लेकिन उनके हाथ मायूसी लगी। अलबत्ता हेमा की अभिनेत्री बेटियों ने प्रचार में मां की मदद की। अब देखना है कि रामगढ़ की बसंती मथुरा की बनती हैं कि नहीं।

स्मृति ईरानी

छोटे परदे की बहू ने मतदान से ठीक एक महीने पहले सात अप्रैल को जब अमेठी की धरती पर कदम रखे तो किसी को अंदाजा नहीं था कि उन्हें उम्मीद से ज्यादा और तेजी से समर्थन मिलेगा। दरअसल, आम आदमी पार्टी के कुमार विश्वास ने पिछले तीन चार महीने में कांग्रेस विरोधी जो माहौल बनाया था उसे स्मृति ने हाईजैक कर लिया। रही सही कसर पूरी कर दी नरेन्द्र भाई मोदी ने जिन्होंने अमेठी में सभा कर उन्हें अपनी छोटी और काबिल बहन बता दिया। इससे बहू का रुतबा बढ़ गया। अब स्मृति ईरानी का चुनावी भविष्य कुछ भी हो लेकिन उन्होंने कम समय में अमेठी में अपनी छाप छोड़ी और भाजपा के लोग कहते हैं कि अगर वह और पहले प्रत्याशी बन जातीं तो कहने ही क्या थे।

नगमा

मेरठ की कांग्रेस उम्मीदवार नगमा ने वहां वोट पड़ने के बाद प्रचार की जिम्मेदारी संभाल ली जो वह दो-तीन चुनावों से करती आ रही हैं। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कोई ऐसी बात नहीं कही जिस पर लोगों का ध्यान जाता लेकिन तो भी वह सुर्खियों में रहीं। दरअसल उनकी मुसीबत उनके फैन और कांग्रेसी बन गए। करीब जाने की ललक बदतमीजी में बदलती दिखी। आखिरकार मेरठ में उन्हें अपने ही लोगों को झिंझोड़ते हुए डीसेंट बिहेवियर की अपील करनी पड़ी। ऐसे भी मौके आए जब उन्हें गुस्से में आकर किसी को थप्पड़ जड़ना पड़ा। देखना है कि नगमा का चुनावी नगमा कांग्रेस को कितना भाता है।

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