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शुरुआत से ही आरसेप को लेकर उत्‍साहित था भारत लेकिन अब हट गया पीछे, जानें- इसकी अहम वजह

आरसेप को लेकर भारत को कई उम्‍मीदें थीं लेकिन इन उम्‍मीदों को पूरी न होते फिलहाल भारत इससे बाहर हो गया है। इसको लेकर अब भारत की अपनी चिंताएं हैं जिनका समाधान होना बेहद जरूरी है। आरसेप में दस एशियाई देश शामिल हैं।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 20 Nov 2020 08:10 AM (IST)Updated: Fri, 20 Nov 2020 08:10 AM (IST)
शुरुआत से ही आरसेप को लेकर उत्‍साहित था भारत लेकिन अब हट गया पीछे, जानें- इसकी अहम वजह
आरसेप को लेकर भारत की अपनी कुछ चिंताएं हैं। (फाइल फोटो)

राहुल लाल। चीन समेत एशिया प्रशांत महासागर के 15 देशों ने हाल ही में दुनिया के सबसे बड़े व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। द रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) यानी आरसेप में 10 दक्षिण एशियाई देश शामिल हैं। इसके अलावा, दक्षिण कोरिया, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड भी इसमें हैं। करीब आठ वर्षो की लंबी वार्ताओं के बाद आरसेप अस्तित्व में आया है। वर्ष 2012 में जब आरसेप को लेकर चर्चा शुरू हुई थी, तब भारत इसमें शामिल था। आरसेप समझौते से जुड़े मुद्दों पर कुल 31 दौर की चर्चा हुई और भारत इसमें से 29 वार्ताओं में शामिल रहा। लिहाजा आरसेप के लिए भारत को मनाने की कोशिशें जारी हैं।

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भारत की चिंता का कारण: भारत के लिए आरसेप में अवसरों को खुला रखा गया है। भारत चाहे तो भविष्य में भी इसमें शामिल हो सकता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि अक्टूबर 2019 तक आरसेप को लेकर भारत काफी उत्साहित था, तब फिर उसके रुख में अचानक इतना बड़ा बदलाव कैसे आ गया? जबकि इससे इसके सभी सदस्य देशों में टैरिफ में कमी आएगी। चूंकि वार्ता वर्ष 2013 में शुरू हुई थी, अत: समझौते में आधार वर्ष 2013 रखा गया है। भारत आयात शुल्क में आधार वर्ष को 2019 करवाना चाहता है। भारत ने वर्ष 2014 से कई उत्पादों के सीमाशुल्क में वृद्धि की है। दरअसल भारत आरसेप में रैचेट ऑब्लिगेशन से मुक्ति चाहता है। आरसेप में भारत के शामिल नहीं होने का यह एक प्रमुख कारण रहा।

रैचिट ऑब्लिगेशन का नाम रैचिट नामक एक उपकरण के कारण पड़ा है जिसमें केवल एकतरफा मूवमेंट होता है। यह उपकरण एक दिशा में जितना घूम जाता है, वहीं अटक जाता है और चाहकर भी इसे पीछे नहीं किया जा सकता। आरसेप में भारत रैचिट ऑब्लिगेशन से खुद को दूर रखना चाहता था। आरसेप में उसकेचलते यह शर्त भी रखी गई कि समझौते पर हस्ताक्षर करने बाद कोई देश एक बार अपने टैरिफ कम कर देगा तो उसे वह फिर नहीं बढ़ा सकता। जबकि भारत चाहता था कि यदि देश में अत्यधिक आयात हो जाए और घरेलू बाजार में कीमतें गिरने लगें, तो भारत सरकार टैरिफ बढ़ाकर कीमतें नियंत्रित कर सके। लेकिन इस शर्त को नहीं हटाए जाने से भारत की चिंता बढ़ी और उसने आरसेप से दूरी बनाना ही बेहतर समझा।

ऑटो टिगर सिस्टम : भारत ने आरसेप वार्ताओं में आयात में तीव्र बढ़ोतरी के विरुद्ध अस्थायी सुरक्षा उपाय के रूप में ऑटो टिगर सिस्टम पर बल दिया था। भारत के अनुसार आरसेप देशों में आयात शुल्क में कमी या उसे पूर्णतया समाप्त करने की दशा में आयात में होने वाली अप्रत्याशित वृद्धि को रोकने के लिए ऑटो टिगर एक व्यवस्था है। इसके तहत सदस्य देशों के बीच होने वाले आयात की मात्र एक निश्चित सीमा से अधिक पहुंचने पर सेफगार्ड शुल्क स्वत: लागू हो जाएगा। परंतु भारत की इस महत्वपूर्ण मांग को भी इसमें स्वीकार नहीं किया गया है।

रूल ऑफ ऑरिजिन यानी मूल देश का नियम: भारत चाहता है कि उन सदस्य देशों, जिन पर शुल्क कम हो या लगता ही न हो, उसके माध्यम से चीन की वस्तुएं देश में आने से रोकने हेतु मूल देश के अपने सख्त नियम हों। चीनी वस्त्र दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार समझौता एवं शुल्क मुक्त मार्ग के माध्यम से बांग्लादेश के जरिये भारत आ रहे हैं। इस तरह भारत को आशंका है कि आरसेप समझौते पर हस्ताक्षर के बाद भारतीय बाजार ऐसे तीसरे देश से आयातित सस्ती वस्तुओं से भर जाएंगे, जो आरसेप के सदस्य नहीं हैं, लेकिन आरसेप सदस्यों के साथ एफटीए पर हस्ताक्षर कर रखे हैं।

भारत के लिए आगे की राह : ज्यादातर वैश्विक व्यापार व्यापक क्षेत्रीय समझौतों के अधीन होते हैं। उतरी अमेरिका मुक्त व्यापार समझौता, यूरोपीय संघ व लैटिन अमेरिका में ऐसी व्यवस्थाएं हैं। वैश्विक व्यापार में डब्लूटीओ यानी विश्व व्यापार संगठन की भूमिका कमजोर हुई है और अबाध व्यापार व निवेश प्रवाह की अवधारणा के लिए क्षेत्रीय समझौते महत्वपूर्ण हो गए। चीन और अमेरिका जैसे बड़े कारोबारी देशों के अलावा अन्य बड़े देशों के लिए यहां सीमित गुंजाइश होगी। साथ ही भारत के पास दूसरे विकल्प भी हैं। उदाहरण के तौर पर भारत कांप्रिहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप नाम की व्यापारिक संधि में शामिल हो सकता है, जिसमें भारत के कई मित्र देश मसलन ऑस्ट्रेलिया, जापान, वियतनाम आदि हैं। भारत इस मामले में अमेरिका में नए चुने गए राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण तक इंतजार कर सकता है। माना जा रहा है कि चीन के असर को कम करने के लिए जो बाइडन सीपीटीपीपी में शामिल हो सकते हैं।

देखा जाए तो आरसेप के 15 सदस्यों में से 12 सदस्यों के साथ भारत के पहले से ही व्यापार और निवेश समझौते हैं। अत: भारत चाहे तो आरसेप से बाहर रहकर भी आरसेप के 12 सदस्य देशों में निर्यात वृद्धि कर सकता है। भारत का विदेश व्यापार वैश्विक व्यापार के दो फीसद से भी कम है। यदि भारत व्यापक क्षेत्रीय समझौतों का हिस्सा नहीं बनेगा, तो वह नियम बनाने वालों में नहीं रह जाएगा। इस पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि हमारी भविष्य की आíथक संभावनाएं इससे जुड़ी हैं। भारतीय कंपनियों को संरक्षणवाद के सीमित लाभ से ऊपर होकर वैश्विक प्रतिस्पर्धा में कूदने की तैयारी करनी चाहिए।

महामारी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था ऋणात्मक 23.9 प्रतिशत विकास दर पर पहुंच गई। अब रिजर्व बैंक ने भी तकनीकी तौर पर भारतीय आíथक मंदी को स्वीकार कर लिया है। ऐसे में आरसेप द्वारा लगातार भारत को उसमें शामिल करने की कोशिशें भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूत छवि पेश करती है। विश्व समुदाय भी यह मानता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में लोगों की क्रय क्षमता में कमी कुछ ही समय के लिए है। विश्व समुदाय मानता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी की दशा अस्थायी है।

भारतीय अर्थव्यवस्था पर वैश्विक भरोसा अब भी कायम है। आरसेप सदस्य देशों को भी लग रहा है कि भारत के बिना आरसेप अधूरा है। ऐसे में उन्हें त्वरित तौर पर भारतीय आपत्तियों को दूर करना चाहिए। अब समय आ गया है कि भारतीय कंपनियां मजबूती से एफटीए का सामना करें। इसके साथ भारत को निर्यात विविधता को स्वीकार करना चाहिए। उदाहरण के लिए अफ्रीका एक तेजी से विकसित होने वाला महाद्वीप है, जिसकी निर्यात में हिस्सेदारी करीब नौ प्रतिशत तथा लैटिन अमेरिका का भी वर्तमान निर्यात तीन प्रतिशत है। यहां निर्यात बढ़ाकर भारत लाभान्वित हो सकता है। भारत के पास आरसेप के अतिरिक्त सीपीटीपीपी, उत्तर अमेरिका मुक्त व्यापार समझौता, ईयू मुक्त व्यापार समझौता इत्यादि के मजबूत विकल्प हैं। हालांकि इस बात का ध्यान रखना होगा कि भारत के पास विकल्प तो है, लेकिन समय काफी कम है।

आरसेप यानी रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप में शामिल होने से देश की अर्थव्यवस्था पर अच्छा खासा नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका के मद्देनजर ही भारत ने इससे किनारा कर लिया। देखा जाए तो इसमें भारत की कई प्रमुख चिंताओं का समाधान भी नहीं किया गया है, जिनमें प्रमुख हैं- आयात में अत्यधिक वृद्धि के खिलाफ अपर्याप्त संरक्षण, बाजार पहुंच के मामले में भारत को विश्वसनीय आश्वासन का अभाव, गैर-शुल्क बाधाएं और कुछ देशों द्वारा नियमों में संभावित धोखाधड़ी आदि।

एफटीए के मंच पर भारतीय कंपनियां

चीन के आकड़ों के अनुसार इस साल अक्टूबर में भारत ने पिछले अक्टूबर की तुलना में अधिक सामान का आयात किया है। यानी मई में घोषित भारत सरकार की आत्मनिर्भरता की नीति का अब तक जमीन पर बहुत अच्छा असर देखने में नहीं आया है। आरसेप से बाहर रहने के निर्णय में भी मुख्य तत्व चीनी सस्ते सामानों से भारतीय बाजारों को बचाना ही है। हालिया आर्थिक समीक्षा में भी यह अनुशंसा की गई है कि भारत को चीन जैसा श्रम आधारित निर्यात दायरा तैयार करना चाहिए और देश में युवाओं के लिए रोजगार के जबरदस्त अवसर तैयार करने चाहिए।

यहां आवश्यकता यह है कि नेटवर्क उत्पादों पर ध्यान केंद्रित किया जाए। ये वे उत्पाद होते हैं, जो तमाम मूल्य सीरीज में तैयार होते हैं, जहां असेंबली सीरीज बड़े पैमाने पर इनका उत्पादन करती है। ऐसा करने से देश में असेंबलिंग का काम मेक इन इंडिया के साथ एकीकृत होगा। वर्ष 2014 में काफी जोर शोर से मेक इन इंडिया प्रारंभ किया गया, परंतु यह घोषणाओं के अनुरूप परिणाम नहीं दे पाया। ऐसे में मेक इन इंडिया की कमियों की समीक्षा करके ही देश आत्मनिर्भर भारत की ओर अग्रसर हो सकता है।

देखा गया है कि भारत एफटीए के मंच पर पिछड़ जाता है। उदाहरण के लिए संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े के अनुसार जापान को होने वाले भारतीय निर्यात में एफटीए के बाद 19 फीसद की गिरावट आई। इसी तरह वर्ष 2010 से 2018 के दौरान दक्षिण कोरिया के साथ भारत का व्यापार घाटा 4.2 अरब डॉलर से बढ़कर 10.5 अरब डॉलर हो गया। श्रीलंका एकमात्र उदाहरण है, जिसके साथ एफटीए के बाद भारतीय निर्यात में वृद्धि हुई है। एफटीए के मंच पर भारतीय कंपनियां दूसरे देशों से पिछड़ जाती हैं। सरकार के संरक्षणवाद से उन्हें सीमित समय का ही लाभ मिलेगा, भविष्य में उन्हें प्रतिस्पर्धा में उतरना ही होगा।

भारत ने 15 देशों के आरसेप की तुलना में अमेरिका व यूरोपीय यूनियन के साथ एफटीए यानी मुक्त व्यापार समझौता करने का लक्ष्य रखा है। आरसेप में शामिल आसियान के 10 सदस्य देशों के साथ भारत का पहले से ही एफटीए है। इसके अलावा, दक्षिण कोरिया और जापान के साथ भी भारत का एफटीए है। इन तीनों एफटीए में भारतीय कंपनियां पिछड़ गई हैं। वर्ष 2007 में जारी भारत सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि किस तरह से एफटीए का फायदा उठाने में भारतीय कंपनियां विफल रही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि भारतीय कंपनियां अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के साथ फ्री एग्रीमेंट का सामना कैसे कर पाएंगी?

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)


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