'शारीरिक दूरी’ के इर्द-गिर्द सिमटी जिंदगी ले रही सब्र का इम्तहान हम बनाएंगे आसान
अगर इस दुनिया में सिर्फ खुशी होती तो हम कभी बहादुर होना और धैयपूर्वक रहना नहीं सीख पाते- हेलेन केलर लेखिका अमेरिका
सीमा झा। वर्तमान वक्त भारी है सब पर। घर के हर सदस्य के हिस्से में तनाव है। बड़ों को तमाम संशय व दबाव के बीच दफ्तर जाना है। पर जिन्हें नहीं जाना है, घर की जिम्मेदारियों के बीच वर्क फ्रॉम होम की अलग उलझनें हैं, जिसकी अवधि लगातार बढ़ रही है। बच्चों की दिक्कतें उनके स्तर पर जाकर सोचें तो असमंजस और संशय से भरी हैं। छोटे बच्चे को आप बहला लें पर बड़े होते बच्चों को वाजिब तर्क देकर ही आप शांत कर सकते हैं। पर हमेशा ऐसा संभव नहीं। ऐसे में घर पर एक-दूसरे के ऊपर चीखना, गुस्सा करना, छोटी-सी बात का बड़ा रूप लेना आम बात होने लगी है।
'अनलॉक’ हुई जिंदगी नए रंगों में ढल रही है। 'बहुत जरूरी हो तभी बाहर निकलें.. घर पर रहें’ यह एक सरल संदेश है पर इसे आसानी से नहीं ग्रहण कर पाते लोग। जानी-मानी सेहत पत्रिका लांसेट के अनुसार, 'क्वारंटाइन’ और शारीरिक दूरी के इस दौर ने मानसिक सेहत पर बुरा प्रभाव डाला है। 'शारीरिक दूरी’ के इर्द-गिर्द सिमटी जिंदगी ले रही है कड़ा इम्तहान। ऐसे में संयम को ढाल बना लें तो हम बना सकते हैं इसे आसान। कैसे संभव है यह?
अभिनव इस साल 12वीं की परीक्षा देने के बाद कॉलेज में दाखिले की तैयारी में हैं। पर 'कॉलेज लाइफ’ का उत्साह नहीं है। सौम्या कोचिंग सेंटर चलाती हैं। इसमें डेकेयर होम भी है। तीन माह हो गए इस पांच कमरे के कोचिंग सेंटर में बच्चों की मस्ती, शैतानी-रोना-खिलखिलाना नहीं, सन्नाटे का बसेरा है। रतन गुप्ता पिछले साल रिटायर हुए, हम उम्र दोस्तों के साथ नई पारी की योजना में जुटे थे पर अचानक जिंदगी रुक गई है। घर पर रहने के सिवा कोई विकल्प नहीं। वहीं, वर्क फ्रॉम होम करने वाले लोग जिंदगी के इस नए मोड में ढल तो गए हैं लेकिन अब दफ्तर की याद सताने लगी है।
सॉफ्टवेयर इंजीनियर शिरीष कहते हैं, 'सबसे ज्यादा मिस करता हूं, चाय ब्रेक के दौरान दोस्तों के साथ बेफिक्र ठहाकों और किसी कॅलीग की बर्थडे पार्टी पर होने वाला धमाल को, पर अभी सब अनिश्चित है, तो मन को मनाना पड़ता है।’ सोशल मीडिया पर कोविड-19 के बाद आप किनसे सबसे पहले मिलना चाहेंगे, आपकी 'विश लिस्ट’ में कहां घूमने का प्लान है, जैसे पोस्ट शेयर हो रहे हैं। यही है 'अनलॉक’ हुए जीवन की तस्वीर। जिधर नजर दौड़ाइए लोग दे रहे हैं सब्र का इम्तेहान।
कम नहीं होती बेसब्री : वीडियो कॉल पर लग रहे हैं ठहाके। जल्दी ही सब ठीक हो और मिलकर गले से लिपट जाएं, ये बातें खूब हो रही हैं। बच्चे माता-पिता की सालगिरह मना रहे हैं, लोग वीडियो कॉल पर ही इस आयोजन में शामिल भी हो रहे हैं। पर अपनों से मिलने की बेसब्री कम नहीं होती। विशेषज्ञों के मुताबिक, ऑनलाइन मीटिंग या बातचीत की अपनी सीमाएं होती हैं, ये आमने-सामने मिलने का विकल्प नहीं हो सकतीं। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ प्रीथा कृष्णन कहती हैं, 'डिजिटल माध्यमों की अपनी सीमाएं हैं पर अपनों से इस तरह दूर होने का अर्थ क्या है, इंटरनेट ने इसका एहसास कराया, इसी पॉजिटिव चीज को देखना है हमें।’ पर यदि आपको अपनों से मिलने की बेसब्री 'गलतियां’ करने को उकसा रही है यानी शारीरिक दूरी को ताक पर रख मिलना-जुलना शुरू कर दिया है तो यहां अध्यापन से जुड़ी सौम्या की बात गौरतलब है, 'मैंने अनलॉक होने के बाद पड़ोसियों से मिलने के बारे में सोचा। फिर खयाल आया कि क्यों न अब सावधानी रखते हुए बच्चों को कोचिंग बुलाना शुरू कर दूं पर बढ़ते संक्रमण के बीच यह मुनासिब नहीं है।’
बचिए 'ऑस्ट्रिच सिंड्रोम’ से : अमेरिका में 'फेसमास्क' पहनने से छूट के फर्जी कार्ड भी बनने लगे हैं। हाल ही में वहां ऐसे किसी मास्क होने का आधिकारिक खंडन किया गया। दरअसल, मास्क पहनने को लेकर लापरवाही और अपनी सुरक्षा को लेकर कुतर्क गढऩे की कहानियां हर जगह देखी जा सकती हैं। जहां एक तरफ संक्रमण के कारण हर तरफ मौत का तांडव नजर आता है वहां लोगों में डर क्यों गायब हो रहा है! इस बारे में दिल्ली यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर आनंद प्रकाश कहते हैं, 'इंसान एक 'जस्टिफाइंग एनिमल’ यानी अपनी बात को हर हाल में सही ठहरा देने वाला प्राणी है जबकि सच तो अटल रहता है वह बदलता नहीं। यही है 'ऑस्ट्रिच सिंड्रोम’ यानी रेत में शुतुरमुर्ग की तरह सिर गाड़कर आप संक्रमण की बढ़ती स्थिति को झुठला नहीं पाएंगे। आपको सुरक्षा के लिए इस कथित 'बहादुरी’ से बचने की जरूरत है।’ इंग्लैंड की हेल्थ साइकोलॉजिस्ट केट हेमिल्टलन कहती हैं, 'हर कोई खतरे को अपने-अपने अनुभव के अनुसार समझता है और व्यवहार करता है।’ उनके मुताबिक, यदि आपने इस संकट को करीब से देखा है और किसी करीबी का निधन भी हो गया है तो आपकी प्रतिक्रिया और व्यवहार औरों से अलग होगा।
स्वस्थ समाज का निर्माण आपके हाथ
वाराणसी के बनारस हिंदू यनिवर्सिटी के वरिष्ठ समाजशास्त्री अजित पांडे ने बताया कि जिन देशों में 'नागरिक बोध’ यानी अपनी सुरक्षा के साथ-साथ दूसरों की सुरक्षा जरूरी है, वहां इस समय यह जंग आसान हो रहा है। पर हम पहले ही एक आत्मआकेंद्रित समाज होते जा रहे हैं। शिक्षा में कमी भी जागरूकता न होने का कारण है। पर जब शिक्षित लोग भी लापरवाही का प्रदर्शन करते हैं तो यह और गंभीर विषय है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने माना कि हम इस समय दुनिया में आदर्श स्थापित कर सकते हैं पर नागरिक बोध के अभाव में यह कैसे संभव है? बहरहाल, चिकित्सकों के अनुसार, यदि नियमों का पालन करते हैं, तो बाहर जाने और अपनों से मिलने से कोई दिक्कत नहीं। 'शारीरिक दूरी’ का अर्थ यह कतई नहीं कि समाज से दूर रहने को कह दिया गया है। हम सामाजिक रूप से तो दूर रही नहीं सकते, क्योंकि यही तो हमारे भारतीय समाज की खासियत रही है। वर्तमान संकट के समय शारीरिक दूरी तो केवल हम सबकी सुरक्षा के लिए है, ताकि एक स्वस्थ समाज का निर्माण हमारे हाथों से संभव हो। क्या आप यह नहीं चाहते?
जानिए प्यार या परवाह के मायने
दिल्ली की वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक अरुणा ब्रूटा ने बताया कि यदि आप नाक, मुंह और चेहरे को बार-बार छूने के आदी हैं। साफ-सफाई को लेकर सजग नहीं तो सेहत भी आपकी ही खराब हो रही है। इस समय आप बाहर जाने को उतावले हैं और अपनी सारी बुरी आदतें साथ लेकर जा रहे हैं तो संक्रमण लेकर घर ही आएंगे। मैं ऐसे लोगों से पूछती हूं कि क्या आप सचमुच जानते हैं प्यार और परवाह के मायने? मैं तो कहूंगी बिलकुल नहीं जानते। हां, आप बिना काम के बाहर नहीं जाते हैं, अपनी आदतों को लेकर शारीरिक दूरी का पालन सुनिश्चित करते हैं तो आप न केवल खुद से प्यार करते हैं बल्कि अपनों को लेकर भी आपके मन में प्यार और परवाह है। बस इतनी सी बात समझनी है।
ये जुड़ाव कम न हो
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के मानवशास्त्री रॉबिन डंबर के मुताबिक, इंसान समाज से दूर रहने का आदी नहीं है। उसका 'हार्डवेयर’ सहयोग और साथ चलने की व्यवस्था से जुड़ा है। अब जबकि कोरोना वायरस ने इस पर चोट किया है तो उसका आहत होना लाजिमी है। अमेरिकन सेंटर ऑफ डिजीज सेंट्रल ऐंड प्रिवेंशन के अनुसार, अपनों से अलग होने की मजबूरी के कारण लोग भावनात्मक रूप से कमजोर महसूस कर रहे हैं। जैसे, मौन हो जाना, किसी बात पर यकीन होना, एंजायटी, भूख के पैटर्न में बदलाव, ऊर्जा में कमी, एकाग्र न हो पाना, नींद में कमी, परेशान करने वाले विचारों में घिरे रहना, छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा आना आम लक्षण हैं जो हर कोई महसूस कर रहा है। 'लांसेट’ पत्रिका के अनुसार अभी इस तरह का व्यवहार बना रह सकता है इसलिए भावनात्मक जुड़ाव कम नहीं होना चाहिए।
क्या करें-
- शारीरिक दूरी का पालन करते हुए आउटडोर यानी घर से बाहर अपनों से मिल सकते हैं।
- करीबी परिवारों का समूह बनाकर बाहर मिल-बैठ सकते हैं, ध्यान रहे इस समूह में फेरबदल न हो और समुचित शारीरिक दूरी का पूरा-पूरा ध्यान रहे।
- जो नियम पालन नहीं करते उन मित्रों या अपनों के मनोविज्ञान को समझें। उनसे पूरी सहानुभूति रखते हुए उन्हें समझाएं कि यह उनके हित में नहीं है। आपका ऐसा व्यवहार अपनों के और करीब लाएगा। अपने रिश्ते को यूं संभालना-सहेजना एक बड़ी जिम्मेदारी है, जिसका महत्व अभी और बढ़ गया है।
बेसब्री देगी केवल बेचैनी
राष्ट्रीय बैडमिंटन कोच पुलेला गोपीचंद ने बताया कि पहले यात्राओं, मीटिंग, प्रशिक्षण के बीच फुर्सत नहीं मिलती थी। इस समय यात्राएं बंद हैं पर तमाम गतिविधियों सहित बैडमिंटन का प्रशिक्षण भी ऑनलाइन ही चल रहा है। हालांकि ऑनलाइन प्रशिक्षण का विकल्प व्यावहारिक नहीं लगता। केवल वही इससे लाभ ले पाते हैं जो मेरे पुराने शिष्य हैं। पर जब हम सबकी स्थिति ऐसी ही है और अभी घर में रहना ही एक सुरक्षित विकल्प है तो इस विषय पर चिंता करने और बेसब्र होने से कोई लाभ नहीं। इससे असुरक्षा, चिंता और बेचैनी ही हाथ लगेगी।