दुनिया को शून्य देने वाले देश में स्कूल हो रहे गणित की पढ़ाई में फिसड्डी साबित
जहां एक ओर भारतीय मूल के लोग दळ्निया में अपनी गणितीय क्षमता का लोहा मनवा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भारतीय छात्रों में इस ओर रुचि कम हो रही है, जिसमें बदलाव लाना होगा
अभिषेक कुमार सिंह। शून्य के आविष्कारक देश के रूप में प्रतिष्ठित भारत में गणित को लेकर प्राय: कोई सनसनी तभी दिखाई देती है जब किसी भारतीय मेधा को इस क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए बड़े पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। यह भारत का सौभाग्य है कि बीते आठ वषों में चार साल के अंतराल पर दिया जाने वाला प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय सम्मान- फील्ड्स मेडल दो भारतवंशियों को मिला है। गणित के नोबेल पुरस्कार कहे जाने वाले इस सम्मान को भारतीय मूल के गणितज्ञ अक्षय वेंकटेश ने हासिल किया है। रियो डी जेनेरियो में हाल में हुई अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस में यह सम्मान वेंकटेश को गणित में उनके विशिष्ट योगदान के लिए दिया गया। वेंकटेश इस समय अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। उनसे पहले 2014 में भी यह करिश्मा अमेरिका की प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एक भारतवंशी मंजुल भार्गव ने किया था।
गणित की उपयोगिताओं का दायरा
जब भारतीय प्रतिभाएं गणित के नोबेल से सम्मानित हो रही हों, तो जेहन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या ये उपलब्धियां हमारे देश के बच्चों और युवाओं में इस विषय को लेकर कोई उल्लेखनीय लगाव पैदा कर पाएंगी। यह सवाल आज इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि दुनिया में फिर से गणित की उपयोगिताओं का दायरा खुल रहा है। जहां तक गणित के क्षेत्र में भारतीय मेधा का सवाल है, युवाओं में गणित से दूर भागने का चलन दिखाई देता है। मामूली जोड़-घटाव और गुणा करने तक के लिए बच्चे आज कैलकुलेटर, मोबाइल फोन या कंप्यूटर पर आश्रित हैं। हमारे लिए गणित का संकट बुनियादी स्तर पर भी है। पिछले कुछ अरसे में ऐसे संकेत मिले हैं कि इस क्षेत्र में भारतीय मेधा के पिछड़ने के पूरे आसार बन चुके हैं। इससे संबंधित एक तथ्य जाने-माने अंतरराष्ट्रीय टेस्ट पीसा यानी प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट में भारतीय किशोरों की रैंकिंग से स्पष्ट हो चुका है।
71वें स्थान पर भारतीय बच्चे
करीब छह साल पहले टेस्ट के नतीजों के आधार पर 73 देशों की जो सूची बनाई गई थी, भारतीय बच्चे उसमें 71वें स्थान पर आए थे। भारतीय किशोर सूची में शीर्ष पर रहे चीनी बच्चों के मुकाबले 200 अंक पीछे थे। यह संकेत गणित को लेकर देश में बरती जा रही आम उपेक्षाओं के हैं, जिसमें सेकेंडरी तक की पढ़ाई के बाद गणित में कैरियर बनाने को लेकर कोई गंभीर नहीं होता है। गणित को भले ही एक शुष्क विषय माना जाता हो, लेकिन आज के बदले हालात में दुनिया गणित के कायदों पर घूम रही है। इस क्षेत्र में बड़ी-बड़ी नौकरियां हैं और कई अहम काम गणित के नियमों में बंधे हुए हैं। इस कारण अमेरिका में गणितज्ञों की मांग बढ़ी है। गणित के विशेषज्ञ वहां ऊंचे वेतनमानों पर नियुक्त किए जा रहे हैं। 2014 में कैलिफोर्निया स्थित प्रकाशन संस्था कैरियरकास्ट द्वारा जारी जॉब्स रेटेड रिपोर्ट के मुताबिक 2013 में अमेरिका में गणितज्ञों का न्यूनतम वेतनमान एक लाख डॉलर सालाना से अधिक रहा और इसमें 2022 तक 23 फीसद का इजाफा हो सकता है।
आंकड़ों पर आधारित कामकाज
अमेरिका में गणितज्ञों की मांग बढ़ने के पीछे दुनिया में आंकड़ों पर आधारित कामकाज में व्यापक वृद्धि हुई है और आधुनिक कामकाज में गणितीय सिद्धांतों की जरूरत बढ़ गई है। फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल मीडिया नेटवर्किंग वेबसाइटों के संचालन तक में गणित के गूढ़ नियम काम कर रहे हैं। ध्यान रहे कि आज डाटा सिक्योरिटी के कामकाज से लेकर कंप्यूटर साइंस, फाइनेंशियल मैनेजमेंट और शेयर मार्केट के अध्ययन के सारे फामरूलों की बुनियाद में गणित ही है। वह एमबीए से लेकर इंजीनियरिंग तक सभी की जड़ में है। इसके बावजूद हमारे युवा और बच्चे गणित से उस रूप में नहीं जुड़े हैं जिसका अभिप्राय जॉय ऑफ मैथ्स यानी गणित की गुत्थियों में डूबने-उतराने और उनका मजा लेने से लिया जाता है। स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ने वाले बच्चों के गणित से लगातार दूर भागने की प्रवृत्ति शिक्षा शास्त्रियों की निगाह में है।
गणित के बिना सब कुछ अधूरा
यह जानते हुए कि साइंस ही नहीं, कंप्यूटर या फाइनेंस किसी भी क्षेत्र की गाड़ी गणित के बिना नहीं चलने वाली, जरूरी है कि कक्षाओं में इस विषय के प्रति दिलचस्पी जगाई जाए। लेकिन चुनौती यह है कि छात्रों को रोचक ढंग से गणित कैसे पढ़ाया जाए। कमी सिर्फ बच्चों की नहीं है बल्कि उस ट्रेनिंग की है जो उन्हें नर्सरी से ही मिलनी चाहिए। छोटी उम्र में ही गणित में बच्चों की दिलचस्पी बढ़ाने की कोशिश हमारे एजुकेशन सिस्टम को करनी होगी। असल में कक्षाओं में जब बच्चे गणित के सवालों में उलझे रहते हैं, तब टीचर उनकी कोई मदद नहीं कर पाते। शायद इसका एक कारण यह है कि देश के स्कूलों में एक तरफ तो छात्र-शिक्षक अनुपात बहुत बिगड़ा हुआ है और दूसरी तरफ ऐसे शिक्षक बहुत कम हैं जो छात्रों में गणित की बुनियाद मजबूत कर सकते हैं। एक वजह यह भी है कि माध्यमिक स्तर की पढ़ाई के बाद किशोरों-युवाओं की दिलचस्पी खालिस तौर पर गणित में नहीं रह जाती है।
गणित से दूर भाग रहे छात्र
एमबीए और इंजीनियरिंग आदि को लेकर हमारे मध्यवर्ग में जो ऑब्शेसन पैदा हो गया है उस कारण छात्र गणित से दूर भाग रहे हैं। असली चुनौती अध्यापन के तौर-तरीकों में ऐसा बदलाव लाने की है जिससे छात्रों में गणित के प्रति रुचि पैदा हो और वे उसकी खूबसूरती व आनंद का स्वाद लेना जान सकें। मैथमैटिक लैब बनाने जैसे नए प्रयोग हों तो बात बन सकती है। लेकिन सवाल यही है कि क्या सरकार, समाज और एजुकेशन सिस्टम ऐसे बदलाव के लिए तैयार है। उल्लेखनीय यह है कि भारत में बच्चे भले ही गणित से दूर भाग रहे हों, पर ब्रिटेन-अमेरिका में भारतीय मूल के बच्चे ही साइंस-मैथ्स में आगे रहते हैं। वैसे भारत में गणित अध्ययन-अध्यापन की परंपरा बहुत पुरानी है। आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त को कौन नहीं जानता। दुनिया को शून्य का ज्ञान सबसे पहले भारत ने ही कराया था। 14वीं सदी में गणितज्ञ माधव ने न्यूटन और लाइबनिज से पहले ही कैलकुलेशन के सिद्धांत खोज लिए थे।
गणित में फिसड्डी
20वीं सदी के प्रारंभ में श्रीनिवास रामानुजन ने अपने गणितीय अनुसंधानों से गणित की दुनिया को रोमांचित कर दिया। इसलिए आज यदि भारत के स्कूल गणित की पढ़ाई में फिसड्डी साबित हो रहे हैं तो इसकी चिंता सभी को करनी होगी। दो भारतवंशी प्रतिभाओं को फील्ड्स मेडल मिलना भारतीय गणित की महत्ता का संकेत है, अच्छा होगा कि इस संकेत को पकड़कर गणित की गाड़ी को देश में सरपट दौड़ाया जाए।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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