World Water Day 2019: पानी बचाने का उपाय नहीं किया तो धरती से इंसान का सफाया तय
World Water Day 2019 इंसान का अस्तित्व पानी से ही है और अगर स्वच्छ पीने योग्य पानी नहीं होगा तो धरती से इंसान का सफाया तय है। अब भी न जागे तो बूंद-बूंद के लिए युद्ध लड़ना पड़ेगा।
नई दिल्ली, [जागरण स्पेशल]। World Water Day 2019- पानी हम सबकी सबसे बड़ी जरूरत है और इसी पानी को लेकर आज पूरी दुनिया चिंतित है। स्वच्छ पीने योग्य पानी लगातार कम होता जा रहा है। यही नहीं, हमारी लापरवाही के चलते समुद्र का जलस्तर भी लगातार बढ़ रहा है। यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि समुद्र का जलस्तर भले ही बढ़ रहा हो, लेकिन इस पानी को पी तो नहीं सकते। हम इंसानों का अस्तित्व ही पानी से है और अगर स्वच्छ पीने योग्य पानी नहीं होगा तो धरती से इंसान का सफाया भी तय है। इसके बाद भी हम अपने-आप में कोई बड़ा बदलाव लाने को तैयार नहीं दिख रहे।
भारत के हालात चिंताजनक
स्वच्छ पीने योग्य पानी को लेकर भारत में हालात काफी चिंताजनक हैं। पिछले साल जारी हुई एक रिपोर्ट बताती है कि देश के 16 राज्यों के भूजल में खतरनाक रसायन मौजूद हैं। यह भी आप जानते ही हैं कि देश में पीने के लिए भूजल का इस्तेमाल कितने बड़े पैमाने पर होता है, ऐसे में देश की एक बड़ी आबादी के ऊपर खतरा मंडरा रहा है। यह कुछ नहीं बल्कि सीधे-सीधे हमारी लापरवाही का एक नमूनाभर है। देश में हिमाचल प्रदेश के शिमला सहित कई ऐसे जिले हैं जहां लोगों के दिन का एक बड़ा हिस्सा पानी की खोज में खप जाता है। पानी की कमी से हर साल सैकड़ों लोगों की जान चली जाती है, सूखे के कारण किसान फसल की बुवाई नहीं कर पाते और खेतों में खड़ी फसल सूख जाती है। इसके बावजूद हम खुद में कोई परिवर्तन करने को तैयार नहीं होते।
बाढ़ कर देती है बुरा हाल
हमारे देश की समस्या अकेले सूखा नहीं है। जहां एक तरफ देश में लोग सूखे की मार से तिलमिला रहे होते हैं, वहीं दूसरी तरफ लोग बाढ़ का दंश भी झेलने को मजबूर होते हैं। मानसून के महीनों में लगभग हर साल आने वाली बाढ़ से हर साल भारी मात्रा में जानमाल का नुकसान होता है, लेकिन आसमान से गिरती बूंदों को सहेजने की कला को हम भूल चुके हैं। हमने वर्षा जल संचय की अपनी सदियों पुरानी परंपरा को छोड़ दिया है। पानी को लेकर जिस तरह से पिछले दशक में हमारी सोच बिगड़ी है उसे एक बार फिर पटरी पर लाने की जरूरत है। अगर हम अब भी पानी के प्रति सजग नहीं हुए तो हमारी आने वाली नस्लों को हम कुछ नहीं दे पाएंगे। हो सकता है आने वाले वक्त में हमारी नस्लों को पानी की बूंद-बूंद के लिए लड़ाई लड़नी पड़े। कहा तो यह भी जाता है कि तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो वह पानी के लिए ही होगा। आइये जानते हैं पानी और इसके संचयन को लेकर क्या कहते हैं जल विशेषज्ञ।
समाज को आए समझ
राजेंद्र सिंह को तो आप जानते ही होंगे। दुनिया उन्हें जलपुरुष के नाम से भी जानती है। वे कहते हैं - देश में 90 से ज्यादा शहर ऐसे हैं जो बेपानी हो गए हैं। इनकी हालत अफ्रीका के केपटाउन से भी ज्यादा खतरनाक है। ये बेपानी होकर लोगों के जीवन में बीमारी, लाचारी और बेकारी बढ़ा रहे हैं। बारहमासी बन चुका जलसंकट समाज की उस खामी का संकेत देता है, जिसमें किसी भी समस्या के खिलाफ खड़े होने की उसमें स्वप्रेरित स्फूर्त होती थी। आज ऐसा लगता है जैसे समाज की स्वावलंबन की विचारधारा खत्म हो गई है। और वह सरकार सापेक्षी बन गया है। उसकी सरकार से ही अपेक्षाएं रहती हैं। हमारे राजनेता भी समाज में स्वयं कर सकने की सृजनशीलता को नष्ट कर रहे हैं। समाज को परावलंबी बनाने की दिशा में आगे बढ़ा रहे हैं। यही कारण है कि अब समाज स्वयं पानी संरक्षण और उसका अनुशासित उपयोग भूलता जा रहा है। जब समाज की जल उपयोग दक्षता खत्म हो जाती है तो वह समाज केवल सरकार की तरफ देखने में जुट जाता है। इसलिए भारत आज पूर्णत: बेपानी बनने के रास्ते पर चल पड़ा है।
शहरों को पानीदार बनाने की सरकार में प्रतिबद्धता और सद्इच्छा नजर नहीं आ रही है। जल संकट के खिलाफ हमारे राज और समाज दोनों को मिलकर तुरंत प्रभाव से खड़े होने की जरूरत है। यदि अभी हम नहीं जागे तो हम बेपानी तो होंगे ही लेकिन हमारी हालत सीरिया से ज्यादा बदतर होगी। भारत सीरिया न बने इसके लिए बारिश के जल का सभी शहर संरक्षण करें और अनुशासित होकर जल उपयोग दक्षता बढ़ाएं। देश को जल का सम्मान, कम उपयोग, धरती से हम जितना लेते हैं, उससे ज्यादा वापस लौटाने, जल का परिशोधन, पुनर्उपयोग और जल से प्रकृति को पुनर्जीवित करके सभी नदियों को शुद्ध सदानीरा बनाने का संकल्प लेना होगा।
यह संकल्प तभी पूरा होगा जब हम सब मिलकर धरती से जल निकालने का काम कम करें। जल भरने का काम अधिक करें। जब हम धरती के साथ जल के लेनदेन का सदाचारी व्यवहार करेंगे तो इस देश का कोई भी शहर बेपानी नहीं होगा। आज हम जल के सदाचार और सम्मान को भूल गए हैं। इसलिए धरती और भगवान के प्रति हमारा व्यवहार बदल रहा है। हमारा भगवान है, भ से भूमि, ग से गगन, व से वायु, अ से अग्नि और न से नीर। यही हमारे वेदों में भगवान था, और जब तक हम इसे अपना भगवान मानकर नीर को ब्रह्मांड और सृष्टि का निर्माता मानकर उसका रक्षण पोषण करते थे, तभी तक हम दुनिया को सिखाने वाले पानीदार राष्ट्र थे। भारतीय के व्यवहार में नीर, नारी और नदी के सम्मान ने किसी भी भारतीय शहर को बेपानी नहीं होने दिया था।
ताल-तलैया बनेंगे खेवैया
जल विशेषज्ञ अरुण तिवारी कहते हैं - पुराने से पुराने नगर बसाते वक्त स्थानीय जल ढांचों की उपेक्षा नहीं की गई। यहां तक की ठेठ मरुभूमि के नगर जैसलमेर को बसाते वक्त जल स्वावलंबन के लिए स्थानीय तालाब घड़ीसर पर ही भरोसा किया गया। नदियों के किनारे बसे नगरों ने भी नदी से पानी लाने की बजाय, अपने झीलों, तालाबों, कुओं और बावड़ियों पर आधारित जलतंत्र को विकसित किया। यमुना किनारे शाहजहानाबाद बसाने के बहुत बाद तक स्थानीय जल जरूरत की पूर्ति का काम 300 से अधिक तालाबों-बावड़ियों के बूते होता रहा। अंग्रेजों ने जब नई दिल्ली बसाई, तो वे नल ले आए। नलों में पानी पहुंचाने के लिए रेनीवेल और ट्युबवेल ले आए। पाइप से पानी पहुंचाने की इस नई प्रणाली के आने से हैंडपंप, कुएं, बावड़ियां और तालाब उपेक्षित होने शुरू हो गए। इसी उपेक्षा का ही परिणाम है कि दिल्ली जैसे तमाम शहर आज उधार के पानी पर जिंदा हैं।
झीलों के लिए मशहूर बेंगलुरु, आज जीरो डे की त्रासदी के कगार पर आ पहुंचा है। तालों वाले शहर भोपाल की जलापूर्ति अपर्याप्त हो चली है। झालों और तालों की समृद्धि पर टिका नैनीताल के पानी की गुणवत्ता संकट में है। बेवकूफियां कई हुईं। ढाई लाख की आबादी को पानी पिलाने की क्षमता वाले गुड़गांव एक्युफर के सीने पर 20 लाख की आबादी का बोझ डाल दिया। भूजल संकट की वजह से जिस नोएडा एक्सटेंशन के बिल्डर्स को निर्माण हेतु भूजल निकालने से हरित अदालत ने मना कर दिया, उसी नोएडा एक्सटेंशन में 15 मंजिला इमारतें बना दी गईं। हाईवे डिजायन के वक्त ध्यान ही नहीं दिया गया कि यह शिमला को पानी पिलाने वाले 19 पहाड़ी नालों के जलग्रहण क्षेत्र घटाकर एक दिन उन्हें सुखा देगा। नगरीय जल प्रबंधन की बर्बादी का कारनामा ऊंची शिक्षा, अधिक आय और अधिक सुविधा की चाहत ने लिख दिया।
1980 से पहले भी लोग कमाने के लिए गांवों से नगरों में जाते थे। लेकिन नगरों में बस जाने की इच्छा पिछली सदी के आठवें दशक के बाद ज्यादा बलवती हुई। 21वीं सदी में नगर आया बहुमत गांव वापस नहीं जाना चाहता। गांवों में भी जिनके पास अतिरिक्त पैसा है, वे नजदीकी तहसील-जिले के नगर में जाकर बसने लगे हैं। पलायित आबादी के बोझ ने नगरों की जमीनों के दामों को आसमान पर पहुंचा दिया। बढ़ी कीमतों ने पानी-हरियाली के हिस्से की जमीनों को भी लील लिया। ऐसे में यदि नगरों के अपने पानी और उनके भविष्य को बचाना है, तो प्रत्येक नगरवासी को गांवों के वर्तमान और स्थनीय जल ढांचों को बचाने में योगदान देना ही होगा।
प्रकृति ही इलाज
इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली में एमिरटस वैज्ञानिक, भरत शर्मा कहते हैं - छोटे-बड़े सब शहर तेजी से पानी की कमी की तरफ बढ़ रहे हैं। पानी का लगातार गिरता स्तर लोगों की चिंता, चिड़चिड़ाहट, आपसी बैर व लड़ाई-झगड़ों और पानी के दाम को बढ़ा रहा है। यह स्थिति बेंगलुरु, पुणे, चेन्नई, शिमला, दिल्ली समेत कई शहरों, कस्बों और गांवों की है। इसके पीछे कई कारण हैं। तेजी से होता शहरीकरण जिसमें बिना किसी योजनाबद्ध तरीके के तहत गांवों से लोग शहरों की ओर पलायन करते हैं, तेजी से बढ़ती जनसंख्या और पानी के इस्तेमाल की बदलती पद्धतियां। इसके अलावा अधिकतर शहरों में जल प्रबंधन की टिकाऊ प्रणाली मौजूद नहीं है।
सालाना 250 अरब घन मीटर भूजल निकालने के साथ भारत दुनिया में सर्वाधिक भूजल इस्तेमाल करने वाला देश बन गया है। देश में भूजल के तकरीबन 16 ब्लॉक ऐसे हैं जो गंभीर स्थिति में हैं और जहां पानी का दोहन क्षमता से अधिक हो चुका है। बेंगलुरु में अतिक्रमण के चलते जल स्रोत 79 फीसद से अधिक खाली हो चुके हैं। बिल्ट-अप एरिया 77 फीसद तक बढ़ गया है। दो दशकों में जल निकालने के कुएं 5,000 से 4.50 लाख हो जाने के कारण भूजल स्तर 12 मीटर से गिरकर 91 मीटर पहुंच गया है।
बेलंदूर झील में जहरीले पदार्थों के चलते झाग बन गया है। जमीन पर कंक्रीट बिछा देने और दूषित जल को शोधित न किए जाने के कारण पुणे में बारिश के पानी का जमीन के अंदर रिसना 35 फीसद से घटकर सिर्फ 5 फीसद रह गया है। शिमला में स्थानीय संसाधनों को नजरंदाज करके किया बेतरतीब विकास और पर्यटकों व होटलों की पानी की जरूरतों को पूरा करने की अपर्याप्त योजनाओं के चलते ऐसी विकट स्थिति खड़ी हुई है। यह प्रबंधन और सरकार की विडंबना ही है कि गर्मियों में पानी के अकूत भंडार वाले हिमालय में आने वाले कश्मीर से कोहिमा तक कई शहरों और गांवों में पानी की सर्वाधिक किल्लत होती है। पानी की यह समस्या भले ही भारत में गंभीर हो, लेकिन इससे पूरा विश्व जूझ रहा है।
विश्व बैंक ने अपनी हालिया रिपोर्ट में इस स्थिति से बचने के लिए पंचमुखी उपाय सुझाया।’ सोच-समझकर पानी का इस्तेमाल करने की मानसिकता विकसित हो ’ पानी को विभिन्न स्रोतों में जमा करना, जैसे पुनर्भरण किए गए एक्वीफर्स ’ ऐसे उपायों पर निर्भर करना जो जलवायु परिर्वतन के खतरे से दूर हों, जैसे डीसैलिनेशन और दूषित जल शोधन करना। बाहरी प्रतिद्वंद्विता से जलीय स्रोतों को बचाना ’ किसी संकट से निपटने के लिए जल प्रबंधन के डिजायन और प्रणाली तैयार रखना। भारतीय परिस्थितियों में इस समस्या से बचने के लिए कई अहम कदम उठाने होंगे। जैसे नगरपालिकाओं की जबावदेही बढ़ाना। इनकी तकनीकी और प्रबंधन क्षमता को बढ़ाया जाना चाहिए।
सप्लाई किए जाने वाले पानी को विभिन्न स्रोतों से लिया जाना चाहिए, जैसे भूजल, सतह पर मौजूद जल, संरक्षित किया हुआ वर्षाजल और शोधित किया हुआ दूषित जल। शहर या कस्बों के निर्माण की योजना बनाते समय चाहे अमीरों के लिए गगनचुंबी इमारतें बनाई जाएं या गरीबों के लिए बस्तियां बसाई जाएं, उसमें साफ और सस्ते पानी की उपलब्धता अनिवार्य होनी चाहिए। शोध बताते हैं कि शहरों में सप्लाई होने वाले पानी का मात्र 10 फीसद ही इस्तेमाल होता है, बाकी 90 फीसद दूषित जल की तरह बहा दिया जाता है। भारतीय शहरों में तो सप्लाई का 40 फीसद पानी लीकेज में बह जाता है। पानी की अतिरिक्त सप्लाई देने के बजाय टूटे-फूटे पाइपों की मरम्मत करना और उनका प्रबंधन करना सस्ता पड़ता है।
केंद्रीय भूजल बोर्ड नेशनल एक्वीफर्स मैपिंग नाम से प्रोग्राम शुरू करने जा रहा है जिसमें देश के अधिकतर राज्यों में उपलब्ध जल की सटीक जगह और मात्रा पता लगाई जा सकेगी। आगे आने वाले कई वर्षों में उन स्थानों पर जल संसाधनों का विकास किया जा सकेगा। पहाड़ी इलाकों में मल्टिपल वॉटर यूज सिस्टम प्रणाली का प्रयोग काफी सफल रहा है। इसके तहत घरेलू काम और खेतों में सिंचाई के पानी की जरूरत एक साथ पूरी हो जाती है। लेकिन आखिर में लोगों और पानी का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों को यह समझना होगा कि जल सबसे कीमती प्राकृतिक संसाधन है लेकिन वह सीमित मात्रा में है और उसका उपयोग समझदारी और उत्पादक तरीके से करने से ही जीवन खुशहाल हो सकेगा।