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विधवा प्रथा की आड़ में महिलाओं की स्वतंत्रता का हनन होना चाहिए बंद

किसी भी समाज में महिलाओं की बेहतर स्थिति ही उसके विकास को प्रदर्शित करती है। विधवा प्रथा की आड़ में महिलाओं की स्वतंत्रता का हनन बंद होना चाहिए। महिलाओं के साथ जुल्म करने वाले समाज को सभ्य नहीं कहा जा सकता।

By TilakrajEdited By: Published: Tue, 24 May 2022 08:31 AM (IST)Updated: Tue, 24 May 2022 08:31 AM (IST)
विधवा प्रथा की आड़ में महिलाओं की स्वतंत्रता का हनन होना चाहिए बंद
सरकारें विधवा प्रथा के उन्मूलन के लिए कानून बनाएं

देवेंद्रराज सुथार। महाराष्ट्र सरकार ने कोल्हापुर जिले की हेरवाड़ पंचायत को नजीर मानते हुए विधवा प्रथा को राज्य में समाप्त करने का आदेश दिया है। दरअसल, पिछले दिनों हेरवाड़ पंचायत में विधवा प्रथा को खत्म करने का प्रस्ताव रखा गया था, जो सर्वसम्मति से पारित हो गया। जिसके बाद पंचायत के ग्रामीणों ने तय किया कि अब गांव में किसी पुरुष की मृत्यु हो जाती है तो उसकी पत्नी को चूड़ियां तोड़ने और माथे से सिंदूर मिटाने, मंगलसूत्र निकालने जैसे काम के लिए विवश नहीं किया जाएगा। उसे पहले जैसा जीवन जीने को प्रेरित किया जाएगा।

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यह सच है कि आधुनिक होते समाज में आज भी विधवाएं अलग-अलग कुप्रथाओं और सामाजिक प्रतिबंधों के कारण कष्टमय जीवन जीने को विवश हैं। पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा को बेरंग जीवन जीना पड़ता है। समाज उसे पहनने-ओढ़ने, साज-श्रृंगार से लेकर खानपान और किसी प्रसंग-पर्व में शामिल होने से रोकता है। विधवाओं की इस स्थिति के पीछे समाज का वह रूढ़िवादी सोच दोषी है, जो उनके जीवन को जटिल बनाकर उन्हें समाज से कटा हुआ महसूस कराता है। विधवाओं पर लगाई जाने वाली ये पाबंदियां उनके स्वतंत्र जीवन एवं उनके अवसरों की समानता के अधिकार में बाधा खड़ी करती हैं।

दरअसल समाज में पुरुष प्रधानता होने के कारण महिलाओं और विधवाओं की इच्छा-अनिच्छा पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। उन्हें सदैव पुरुषों के बनाए रास्ते पर चलने के लिए बाध्य होना पड़ा। कुछ दशक पहले सती प्रथा के नाम पर विधवाओं के साथ बर्बरता से पेश आया जाता था। ऐसा मान लिया जाता था कि पति की मृत्यु के बाद विधवा स्त्री को जीने का कोई अधिकार नहीं है, लेकिन कानूनन इस कुप्रथा पर रोक लगी और फिर समाज ने भी इससे अपना पीछा छुड़ा लिया। जब किसी स्त्री की मृत्यु होने पर विधुर पति पर कोई नियम या पाबंदी लागू नहीं होती तब विधवा स्त्रियों पर इस तरह के प्रतिबंध लगाना समाज के नितांत ही दकियानूसी और भेदभावपूर्ण सोच का नमूना है।

किसी भी समाज में महिलाओं की बेहतर स्थिति ही उसके विकास को प्रदर्शित करती है। महिलाओं के साथ जुल्म और अत्याचार करने वाला समाज विकसित और सभ्य नहीं कहा जाता। अत: विधवा प्रथा की आड़ में महिलाओं की स्वतंत्रता का हनन बंद होना चाहिए। उन्हें आम महिलाओं की तरह जीने का अधिकार मिलना चाहिए। यह सही समय है कि महाराष्ट्र के एक गांव से शुरू हुई इस सही पहल का स्वागत कर देशभर के सभी समाज विधवा प्रथा के उन्मूलन पर ध्यान आकर्षित करें। इतना ही नहीं सरकारें विधवा प्रथा के उन्मूलन के लिए कानून बनाएं और जो समाज विधवाओं को अभिशप्त जीवन जीने के लिए बाध्य करे उसे सख्त सजा मिले।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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