वाजपेयी मंत्र के साथ हो सकता है कश्मीर का समाधान
मोदी सरकार को भी लोकतंत्र, इंसानियत और कश्मीरियत के रास्ते पर बढ़कर स्थिति को संभालना चाहिए। दुनिया को ऐसा नहीं लगना चाहिए कि घाटी में हालात बेकाबू हो रहे हैं।
कृष्ण प्रताप सिंह
किसी भी लोकतांत्रिक देश में सेना का सबसे बड़ा दायित्व नागरिकों के इस भरोसे की रक्षा करना होता है कि उसके बूते देश की सीमाएं इतनी सुरक्षित हैं कि कोई दुश्मन उनकी ओर आंख नहीं उठा सकता और देश बेफिक्र रहकर चैन की नींद सो सकता है। मगर अब हमारे सेना अध्यक्ष जनरल विपिन रावत जानें कहां से लोकतंत्र की ईजाद से पहले का यह वाक्य ढूंढ़ लाए हैं कि जिस देश में लोगों में सेना का भय खत्म हो जाता है, उसका विनाश हो जाता है। वह कह रहे हैं कि देश के विरोधियों को तो सेना से डरना ही चाहिए, देश के लोगों में भी उसका भय होना चाहिए।
सीमापार के आतंकवाद से पीड़ित जम्मू कश्मीर में एक मतदान केंद्र की संरक्षा में तैनात सेना के मेजर द्वारा पत्थरबाजों के बीच से निकलने के लिए वोट देने वहां आए एक कश्मीरी युवक को मानव ढाल की तरह अपनी जीप के बोनट पर बांधने के ‘साहसिक’ कारनामे और सम्मान की आलोचनाओं का बचाव करते हुए कुछ इमोशनल अत्याचारों के साथ उन्होंने यह भी जोड़ा कि जब जम्मू-कश्मीर जैसे डर्टी वार से सामना हो तो उसे ‘नए तरीके’ से लड़ना होता है। यह भी पूछा, अगर सामने से पथराव हो रहा हो और पेट्रोल बम फेंके जा रहे हों तो क्या मैं अपने जवानों से यह कह सकता हूं कि वे चुपचाप शहीद हो जाएं और शहादत के बाद मैं उनके लिए राष्ट्रीय ध्वज के साथ अच्छा-सा ताबूत लेकर आऊंगा?
अभी यह साफ नहीं है और चूंकि सेना की रणनीति गुप्त होती है, इसलिए शायद आगे भी साफ न हो कि जम्मू कश्मीर में ‘डर्टी वार’ में आगे मानव ढाल जैसे और कौन-कौन से तरीके अपनाए जाएंगे, लेकिन अगर उनमें सबसे बड़ा लोगों को सेना से पहले से कहीं ज्यादा डरने का सबक सिखाने का हथियार है तो वे उसे कितना भी इस्तेमाल कर लें, उनके दुर्भाग्य से, कोई भी उसे नया नहीं कहेगा और न ही उससे कुछ नया हासिल होगा। वैसे ही जैसे दशकों से चले आ रहे आतंकवादियों की लाशें गिराने और सैनिकों की शहादतों के सिलसिले से नहीं हासिल हुआ है।
सच पूछिए तो डर के विस्तार से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होगा। हां, यह सरकार चाहे तो खुश हो सकती है और उसके कई कर्णधार सेना को ‘खुली छूट’ की वकालत करते हुए इसकी खुशी छिपा भी नहीं रहे कि उसने अपने चौथे साल में प्रविष्ट होते-होते विस्तार की अपनी परियोजनाओं में सेना को भी शामिल कर लिया है, जिसे अब तक ऐसे सारे राजनीतिक स्वार्थों व छल-छद्मों से ऊपर माना जाता था। मगर यह तो कोई बताने की बात भी नहीं कि सरकार की इस खुशी के विपरीत राजनीतिक उद्देश्यों के लिए सेना के इस्तेमाल के ढेर सारे खतरे हैं। इधर कई हलकों में सेना के जो जयजयकारे बेहद शातिर ढंग से और अनवरत लगाए जा रहे हैं, वे भी कोई खुशी की बात नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण के ही प्रतीक हैं।
गौरतलब है कि इसी क्षरण के कारण पिछले दशकों में हमने अपने लोकतंत्र को आम लोगों के लिए असुरक्षाओं का पर्याय बनते और पूंजीवादी रूप धारण करते देखा है। अभी जब हम उसे ङोलने को अभिशप्त हैं, उसकी विफलताओं से पीड़ित लोगों को नेताओं के बजाय सेना के पराक्रम में विश्वास व्यक्त करते देखते हैं तो स्वाभाविक ही कोढ़ में खाज का अंदेशा लगता है। तिस पर सरकार भी सेना की जय बोलने लग जाती है तो सवाल मौजूं हो जाता है कि कहीं उसकी इस पूंजीवादी लोकतंत्र को सैनिक लोकतंत्र में तब्दील करने की तो कोई परियोजना नहीं है? अगर नहीं तो सेना को ‘खुली छूट’ को नीतिगत फैसलों व घोषणाओं की छूट तक ले जाने का माहौल क्यों बनाया जा रहा है? दूसरे पहलू पर जाएं तो सेनाध्यक्ष ने अपने अधिकार सीमा से परे जो कुछ कहा है, उससे नीति संबंधी कई बेहद गंभीर प्रश्न खड़े हो गए हैं और उन्हें तत्काल उत्तर की तलाश है।
अगर जम्मू कश्मीर में ‘युद्ध’ है और उतना ही विकट है, जितना सेनाध्यक्ष बता रहे हैं, तो राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने, लोकतंत्र में जिन्हें उसकी घोषणा का पहला अधिकार है, अब तक उसकी बाबत देशवासियों को विश्वास में क्यों नहीं लिया? क्यों नहीं बताया कि वहां हमारी सेना किसकी ओर से, किसके खिलाफ और किसके लिए लड़ रही है? क्या जम्मू कश्मीर के सारे युवक आतंकवादी या पत्थरबाज हो गए हैं, इसलिए उसे पाक प्रेरित आतंकवाद से लड़ाई का मुंह कश्मीरियों की ओर घुमा देना पड़ा है? इस युद्ध में इतनी ही दिक्कत है कि सेना के लिए नियमों का पालन करना संभव नहीं हो रहा तो किसी को तो बताना चाहिए कि नियमों के अनुशासन के बगैर सेना,सेना भी रह जाती है क्या? तब सरकार बार-बार पत्थरबाजों को मुट्ठी भर क्यों बताती रहती है और इन विकट हालात में भी चैन की नींद क्यों सो रही है? हां, सेनाध्यक्ष ने वहां की स्थिति की विकटता स्वीकार कर जाने अनजाने न सिर्फ मोदी सरकार के इस संबंधी झूठों को बेपर्दा कर दिया है बल्कि उसकी कमजोरियों की चुगली भी कर दी है।
सच यह है कि जम्मू कश्मीर में सेना द्वारा गत जुलाई में बुरहान वानी को मारे जाने के बाद से ही हालात बेकाबू हैं लेकिन सरकार या तो इसे स्वीकार नहीं कर रही या सेना को ही उपाय समङो बैठी है। समझती ही नहीं कि वह वहां जिन लोगों से पैलेट गनों से निपट रही है, वे दुश्मन नहीं हैं और शत्रुओं जैसा व्यवहार उन्हें हमसे और दूर कर देगा। वहां आतंकवाद तीन दशक पुरानी समस्या है, लेकिन ऐसी सरकारी किंकर्तव्यविमूढ़ता इससे पहले कभी नहीं देखी गई। अटल सरकार में कश्मीरियत, जम्हूरियत व इंसानियत की बात हुई और मनमोहन सरकार ने उसे बरकरार रखा और लेकिन आज मोदी सरकार जम्हूरियत, इंसानियत व कश्मीरियत किसी को भी संभाल नहीं पा रही है। संभालने के लिए जो अटूट धैर्य चाहिए, वह भी उसमें नहीं दिख रहा। यकीनन, इस मामले में एक पहलू पाकिस्तान भी है। अतीत में भारत ने उससे तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी संवाद बनाए रखा और अंतरराष्ट्रीय मंचों से उस पर दबाव बनवाता रहा, लेकिन अब वह भी नहीं कर पा रहा है।
सत्ता प्रतिष्ठान और नीति-निर्धारकों में व्याप्त इस किंकर्तव्यविमूढ़ता की देश को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी, कहा नहीं जा सकता। इसलिए आतंकियों और अलगाववादियों के प्रति कथित सख्ती का भी कोई परिणाम नहीं निकल रहा और स्थानीय लोगों का भरोसा जीतकर उनका समर्थन हासिल करने की फिक्र नहीं की जा रही। न ही इसकी कि वहां आम लोगों को शिक्षा, रोजगार व जीवनयापन की मुश्किलों के साथ जान के कैसे जोखिम से गुजरना पड़ रहा है?1अफसोस है कि नागरिक प्रशासन भी इन मुद्दों पर चिंतित नहीं है। चूंकि उसका खुद का इकबाल बुलंद नहीं है, सो वह भी कानून व्यवस्था में सेना के दखल से असहज महसूस नहीं करता। सिविल सोसायटी दरकिनार है। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती राज्य के हितों को अपने राजनीतिक स्वार्थो पर कुर्बान करती जा रही हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)