Jagran Exclusive : ‘सरकारी सुरक्षा कवच’ में तैयार हो रहा ‘मौत का पाउच’
शराब के रूप में मौत परोस रहे धंधेबाजों को किस ‘कीमत’ पर परोक्ष रूप से ‘सरकारी सुरक्षा कवच’ मिला हुआ है, यह राज भी फाश हुआ।
[जागरण इन्वेस्टीगेशन ब्यूरो]। जहरीली शराब से मौतों का सिलसिला शुरू होने के बाद से अब तक की सरकारी रवायत, प्रभावित गांवों के हालात, मृतक आश्रितों के सामने खड़ी पहाड़ सी चुनौतियों के साथ ही समूचे हरिद्वार जिले में संगठित रूप से चल रहे इस अवैध कारोबार की तह में जाने का प्रयास किया तो आंखें खोलने वाली सच्चाई सामने आई। शराब के रूप में मौत परोस रहे धंधेबाजों को किस ‘कीमत’ पर परोक्ष रूप से ‘सरकारी सुरक्षा कवच’ मिला हुआ है, यह राज भी फाश हुआ। दैनिक जागरण की इन्वेस्टीगेशन टीम की पड़ताल में जो तस्वीर नजर आई, यह रिपोर्ट उसकी बानगी है-
उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की सीमा से सटे 22 गांवों में मातम पसरा है। जहरीली शराब से पांच दिनों में 124 मौतें हो चुकी हैं। 100 से ज्यादा बीमार हैं। 40 की हालत गंभीर है। मौत का कहर अब भी जारी है। घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया है। सोचने पर बाध्य कर दिया कि आखिर ऐसा हुआ क्यों लेकिन, यह पहली बार नहीं हुआ है। अकसर होता आया है। इसी तरह लोग मरते हैं। मातम होता है। सिस्टम को दुरुस्त करने का दिखावा हो जाता है। और उसके बाद सब कुछ फिर से जस का तस। इस सबके बीच एक अहम सवाल अपनी जगह खड़ा रह जाता है। सवाल कि इन मौतों का असल गुनहगार कौन? अवैध शराब बनाने वाले? बेचने वाले? अवैध धंधे को संरक्षण देने वाले? धृतराष्ट्र बन मौन स्वीकृति देने वाला समाज? पूरा सरकारी सिस्टम? या पीने वाले?
लो हो गया केस सॉल्व?
हालिया मामला दो राज्यों के बीच का है। दोनों ओर जितना मातम है, उतना ही गुस्सा भी। फिलवक्त, सरकारी अमला अपनी खाल बचाने की जुगत में नींद से जागने का स्वांग कर रहा है। छोटे प्यादों को पकड़ा जा रहा है, लेकिन मौत के बड़े सौदागर पकड़ से दूर बने हुए हैं। सरकारी तंत्र लकीर पीटने तक सिमटा हुआ है। हालांकि, इस बीच पुलिस ने उत्तराखंड के बाल्लूपुर गांव से दो लोगों (पिता-पुत्र) की गिरफ्तारी की है। बताया गया है कि ये लोग ही जहरीली शराब सहारनपुर, उप्र के पुंडेन गांव से खरीद कर बाल्लूपुर लाए थे, जहां इसे परोसा गया था। पुलिस ने इस गिरफ्तारी को इस तरह पेश किया, मानो असल गुनहगार केवल यही दो लोग हैं और केस सॉल्व हो गया है। 124 मौतों के लिए इन दो लोगों को जिम्मेदार ठहरा कर क्या केस वाकई सॉल्व हो गया?
महज एक जिले का हाल
आबादी के लिहाज से उत्तराखंड के सबसे बड़े जनपद हरिद्वार में 150 से अधिक गांवों में कच्ची शराब का धंधा पैर पसारे हुए है। उत्तर प्रदेश की सीमा वाले गांवों को भी जोड़ दिया जाए तो संख्या 250 के पार पहुंच रही है। हरिद्वार और रुड़की शहर को छोड़कर जिले का 60 फीसद भाग देहात है। देहात की सीमा तीन तरफ से उत्तर प्रदेश से मिलती है। कच्ची शराब का धंधा भी इन्हीं इलाकों में सबसे ज्यादा है। जिले के छह विकासखंडों में कोई भी कच्ची शराब के धंधे से अछूता नहीं है। पथरी, लक्सर, खानपुर व बुग्गावाला क्षेत्र में घना जंगल शराब माफिया के लिए खाद पानी का काम कर रहा है। झबरेड़ा, भगवानपुर, नारसन इलाकों में कच्ची शराब गन्ने के खेतों में तैयार की जाती है।
1500 से अधिक लोग जुड़े हैं
जिले के सीमावर्ती गांवों में कच्ची शराब बनाने और बेचने का काम संगठित रूप से चल रहा है। करीब डेढ़ हजार लोग प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से इस धंधे से जुड़े हैं। जंगलों से सटे देहात से लेकर उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों तक कच्ची शराब का धंधा हरिद्वार के इन्हीं गांवों से संचालित हो रहा है। एक बड़ा समूह शराब बनाने और दूसरा शराब की तस्करी में जुटता है।
शराब बनाने के 300 से ज्यादा अड्डे
हरिद्वार जिले में कच्ची शराब बनाने के 300 से ज्यादा अड्डों का पता चला है। आबादी व सड़क मार्ग से कई-कई किलोमीटर दूर कच्ची शराब की भट्ठियों की लोकेशन शराब माफिया व उनसे जुड़े लोगों को ही पता रहती है। गौर करने वाली बात यह है कि सभी भट्ठियां एक साथ नहीं जलती हैं। भट्ठी तक नदी, नाले व तालाब आदि से पानी का इंतजाम किया जाता है। इसके बाद पानी में गुड़, चावल डालकर सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। शराब माफिया को यह पता रहता है कि किस भट्ठी में कितने दिन बाद सड़कर कच्चा माल लाहन के रूप में तैयार हो जाएगा। उस दिन, वही भट्ठी जलाई जाती है। चूंकि भट्ठी बदलती रहती है, इसलिए तस्करों तक शराब पहुंचाने के लिए एक ठिकाना अलग से तैयार रहता है। यहां से कच्ची शराब टायर की ट्यूब और दूध की केन में भरकर तस्कर अपने ठिकानों पर ले जाते हैं। इसके बाद शराब पॉलीथिन में भर कर गांव-गांव में बेची जाती है। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, बिजनौर व मुजफ्फरनगर जिलों के तस्कर भी हरिद्वार से कच्ची शराब लेकर जाते हैं। शादी समारोह जैसा बड़ा आयोजन होने पर लोग सीधे भट्ठी चलाने वाले माफिया से भी संपर्क कर अपनी जरूरत का स्टॉक मंगवा लेते हैं।
उधार में पिला ब्याज समेत वूसलते
बाल्लूपुर, बिंड, खड़क गांव में माफिया उधार में भी शराब बांटता है। एक माह में उधार नहीं चुकाया तो दस फीसद मासिक ब्याज के साथ वसूली की जाती है। गांव में आलम यह कि शराब के आदी हो चुके लोगों में कुछ घर में रखा अनाज बेचकर कर्ज चुकाते हैं तो कुछ बर्तन बेचकर। उधारी न चुका पाने पर माफिया ने कुछ लोगों की जमीन तक खरीद ली है। यहां ज्यादातर लोग खेतों या ईंट भट्ठों में मजदूरी करते हैं।
खौफ के आगे सब खामोश
दोनों गांवों में पसरे मौत के सन्नाटे के बीच कोई भी अवैध शराब बेचने वालों के खिलाफ सीधे तौर पर कुछ नहीं कह रहा, लेकिन नाम न छापने का भरोसा दिलाने पर दबी जुबान में कुछ ने बताया कि यहां करीब दो दर्जन लोग अवैध शराब के धंधे से जुड़े हैं। बाल्लुपुर में इन लोगों के पास आसपास के गांवों के लोगों का भी काफी आना-जाना रहता है। बेटे को गंवा चुके एक वृद्ध बताते हैं कि यदि किसी के पास शराब खरीदने के लिए रुपये नहीं होते तो उधार में भी शराब मिल जाती है। उधारी एक महीने में चुकानी होती है। अगर कोई ऐसा नहीं कर पाता है तो महीने में दस फीसद ब्याज चुकाना पड़ता है। बाल्लूपुर और बिंड गांव में दबंगई ऐसी कि कोई भी माफिया के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।
दी जाती है जान के मारने की धमकी
यही नहीं, अगर किसी ने अगर पुलिस या आबकारी विभाग से शिकायत की बात भी कर दी तो उसकी जान पर बन आती है। जहरीली शराब के कहर से प्रभावित इन गांवों में रहने वालों में सबसे ज्यादा गुस्सा इसी बात पर है। कहते हैं, मौत होने पर पूरा सरकारी अमला गांव-गांव पहुंच गया, लेकिन जब उन्होंने आवाज उठाई, तब कोई कार्रवाई नहीं की।
बाल्लूपुर है अवैध शराब की मंडी
भगवानपुर ब्लॉक का उप्र सीमा से लगा बाल्लूपुर गांव अवैध शराब की एक तरह से मंडी है। यहां दो दर्जन से ज्यादा परिवार दस-बारह सालों से यह धंधा कर रहे हैं। इनमें कुछ खुद शराब बनाते हैं और कुछ बाहर से लाकर बेचते हैं। उन्होंने बाकायदा एजेंट बनाए हुए हैं, जिन्हें वे 250 मिलीलीटर का पाउच 18 रुपये में देते हैं। एजेंट इसे ग्राहकों को 30 रुपये में बेचता है। सात फरवरी को गांव में जिस परिवार में तेरहवीं की रस्म थी, वहां शामिल होने आए 80 लोगों में से कुछ ने इन्हीं परिवारों के रच्जा, बिट्टू और धारा नाम के शख्स से कच्ची शराब खरीदी थी।
गांव वाले बताते हैं कि उनके यहां तेहरवीं पर शराब परोसने की परंपरा तो नहीं है, लेकिन तेरहवीं में आने वाले ज्यादातर लोग अपने लिए शराब का प्रबंध कर लेते हैं। उस दिन भी ऐसा ही हुआ था। जहरीली शराब कांड के बाद से ये सभी परिवार गांव से फरार बताए जा रहे हैं। हालांकि, पुलिस का दावा है कि जिस शराब को पीने से लोग मरे, वह सहारनपुर, उप्र के पुंडेन गांव से लाकर बाल्लूपुर में बेची गई थी।
रखे हैं डिलीवरी मैन
उत्तर प्रदेश से सटे सीमावर्ती इलाकों में कुछ बड़े तस्करों ने कच्ची शराब की गांव-गांव डिलीवरी करने के लिए भी दिहाड़ी पर मजदूर रखे हुए हैं। उन्हें तस्कर एक दिन का पांच सौ से आठ सौ रुपये तक देते हैं। नए ग्राहक बनाने की जिम्मेदारी भी तस्करों ने इन्हें दी हुई है।
अवैध शराब से कितनी मौतें?
शराब से हुई मौतों के राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर जारी होने वाले आंकड़े 2014 से बंद कर इन्हें ‘अचानक होने वाली मौतों’ में शामिल किया गया। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2013 के आंकड़ों के अनुसार भारत में शराब से प्रति 96वें मिनट पर एक मौत होती है। 2104 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2014 में अवैध शराब के सेवन से करीब 1,699 लोगों की मौत हुई। वहीं, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने 2013 में अवैध शराब से 387 मौतों का आंकड़ा दिया था।
सफेदपोशों का भी सरंक्षण
स्थानीय स्तर पर लोगों ने स्पष्ट संकेत दिए कि धंधेबाजों को सफेदपोशों का सरंक्षण भी हासिल है। क्षेत्र के ग्राम प्रधान से लेकर ज्यादातर जनप्रतिनिधि भी शराब के धंधे से वाकिफ ही नहीं हैं बल्कि चुनाव जैसे मौकों पर नेता माफिया का हर तरीके से सहयोग भी लेते हैं। इसीलिए जनप्रतिनिधि इनके खिलाफ खुलकर आवाज नहीं उठाते हैं। बातचीत में यहां के ग्रामीण अपनी यह पीड़ा बयां करते हैं।
कठघरे में खुफिया तंत्र
इस जानलेवा धंधे को रोकने की जिम्मेदारी आबकारी और पुलिस महकमे की है। सुपरविजन का जिम्मा जिला प्रशासन का है, लेकिन तीनों का निगरानी तंत्र दायित्वों से मुंह फेरता नजर आया। शराब माफिया ने इसका खूब फायदा उठाया। इसी का नतीजा है कि वर्तमान में यह अवैध कारोबार दिन दोगुना रात चौगुना फल-फूल रहा है। पुलिस का खुफिया तंत्र डीएम और एसएसपी को हर रोज रिपोर्ट भेजता है। बावजूद इसके यदि हरिद्वार जिले में इतने बड़े पैमाने पर अवैध शराब का धंधा धड़ल्ले से चला आ रहा था, तो फिर ऐसी रिपोर्ट किस काम की। खुफिया तंत्र क्यों बेखबर बना रहा, यह चौंकाने वाला पहलू है। अगर, अफसरों तक उसकी रिपोर्ट पहुंचती रही तो फिर धंधा कैसे चलता रहा?
हत्या क्यों नहीं माना जाना चाहिए?
उन लोगों को पुलिस कब पकड़ेगी, जिनके मौन संरक्षण में मौत का यह धंधा चल रहा था? जिन्होंने सरकारी खजाने से मोटी तनख्वाह लेने के बाद अपने दायित्वों के प्रति जरा भी ईमानदारी नहीं दिखाई? जहां ये अवैध शराब बनी और जहां परोसी गई, क्या दोनों जिलों के जिला प्रशासन और पुलिस विभाग को इसके लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जाना चाहिए? अवैध शराब के बनने और बिकने पर पाबंदी लगाने के लिए जो-जो सरकारी विभाग-अधिकारी कर्मचारी जिम्मेदार हैं, उन्हें दोषी क्यों नहीं ठहराया जाना चाहिए? अवैध शराब के सेवन से हुई इन 124 मौतों को हत्या क्यों नहीं माना जाना चाहिए?
(हरिद्वार से मेहताब आलम और रुड़की से रमन त्यागी की रिपोर्ट)