आदतें बदलने पर दिया जाए जोर, सुनिश्चित हो शौचालय का इस्तेमाल
बात करते हैं शौचालयों की। लोगों को शौचालय बनवाने और उसका इस्तेमाल करने के लिए तैयार करना बड़ी चुनौती बन गई है।
[सुनीता नारायण] वह क्या चीज है जिससे लोगों का व्यवहार बदलता है? क्या वह विकल्पों की मौजूदगी है? क्या वह सामाजिक दबाव है? या फिर जुर्माने का डर? या फिर यह सब कुछ और इससे भी ज्यादा? यह नीति निर्माताओं के लिए लाख टके का सवाल है जो जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने और खुले में शौच को रोकने की कोशिशों में लगे हैं।
बात करते हैं शौचालयों की। लोगों को शौचालय बनवाने और उसका इस्तेमाल करने के लिए तैयार करना बड़ी चुनौती बन गई है। महात्मा गांधी ने कहा था कि स्वच्छता स्वतंत्रता से ज्यादा जरूरी है। स्वच्छता की कमी के चलते नवजात शिशु अपनी जान गवां रहे हैं। बच्चे अपनी उम्र के अनुपात में ठिगने कद और कम वजनी रह जाते हैं। यह स्वीकार्य नहीं है। अच्छी बात यह है कि भारत सरकार ने 2 अक्टूबर, 2019 यानी गांधी जी के 150वें जन्मदिन तक देश को खुले में शौच से मुक्त करने का लक्ष्य रखा है। कई वर्षों तक शौचालय निर्माण की निष्फल योजनाओं के बाद सरकार ने शौचालयों के निर्माण को नहीं बल्कि उनके अधिक इस्तेमाल को लक्ष्य बनाया है। अलग शब्दों में कहें तो लोगों को अपने व्यवहार में बदलाव लाकर शौचालयों का प्रयोग शुरू करना होगा। असल में सरकार भी अब शौचालयों की संख्या नहीं बल्कि उनका इस्तेमाल करने वाले लोगों का आंकड़ा जुटा रही है। और यह कोई छोटा बदलाव नहीं है।
एक के बाद एक रिपोर्ट बताती हैं कि शौचालयों का निर्माण तो होता है पर इस्तेमाल नहीं होता। 2015 में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में सामने आया कि सरकारी कार्यक्रमों के तहत बने 20 फीसद शौचालयों पर ताला लगा रहा या वे स्टोर रूम की तरह इस्तेमाल होते रहे। 2015 में नेशनल सैंपल सर्वे ने देश के 75 जिलों में 75 हजार घरों में शौचालयों का इस्तेमाल पाया। परिणाम एकदम अगल थे। केरल, हिमाचल और सिक्किम समेत कई राज्यों में 90-100 फीसद शौचालयों का इस्तेमाल हो रहा था। लेकिन कई राज्यों में इनका इस्तेमाल कम था। आर्थिक रूप से गरीब राज्य झारखंड में शौचालयों का इस्तेमाल सिर्फ 20 फीसद था। यहां तक कि प्रगतिशील माने जाने वाले तमिलनाडु राज्य में भी शौचालय का इस्तेमाल मात्र 39 फीसद था। फिर शौचालयों का इस्तेमाल कैसे बढ़ेगा? लोगों के व्यवहार में बदलाव कैसे आएगा? यह कोई सामाज शास्त्र का सवाल नहीं है। यह विकास की राजनीति पर आधारित सवाल है।
इस बारे में मेरे जिन साथियों ने पड़ताल की, उन्होंने पाया कि राज्य सरकारें देश को खुले में शौच से मुक्त बनाने के केंद्र के लक्ष्यों को पाने के लिए लोगों को शर्मिंदा कर बदलाव लाने की कोशिशें कर रही हैं। राज्य अपनी तरफ से पूरा जोर लगा रहे हैं कि खुले में शौच को समाज में अस्वीकार कर दिया जाए। शौचालयों के इस्तेमाल के मामले में एक सफल राज्य हरियाणा, पूरी तरह निष्फल रहा। उत्तर प्रदेश और औसत रहे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व कई अन्य राज्यों ने बिल पास किया है जिसके तहत सिर्फ वही व्यक्ति पंचायत चुनाव लड़ सकता है जिसके घर में शौचालय हो और उसका इस्तेमाल होता हो। कई जिले इस सोच को आगे ले जा रहे हैं और उन खुले में शौच करने वालों को शर्मिंदा कर रहे हैं, उनकी तस्वीरें गांव की सूचना पट्टियों पर लगा रहे हैं, उनके राशन कार्ड निरस्त कर रहे हैं और उनसे सरकारी सुविधाएं छीन रहे हैं।
ऐसी तमाम बातें भी पूरी तरह से खुले में शौच करने की प्रवृति को स्पष्ट नहीं करतीं। आखिरकार लोग शौचालयों में पैसा लगाने से पहले मोबाइल फोन और साइकिल खरीदते हैं। मेरे हिसाब से इस मुद्दे पर खुलकर चर्चा की जानी जरूरी है। लोगों का व्यवहार बदलने के उपक्रमों पर निवेश किया जाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि साफ-सफाई की कमी से होने वाली बीमारियों के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए बहुत कुछ किया जाना होगा।
आज सरकार का स्वच्छ भारत अभियान भी इस बात को स्वीकार करता है और लोगों को जानकारी व शिक्षा देने और जागरूक करने के मद में राशि भी आवंटित करता है। लेकिन सरकार का 2016-17 का आंकड़ा बताता है कि इस मद में आवंटित हुई 8 फीसद राशि में से सिर्फ 0.8 फीसद खर्च हुई। यह भी साफ है कि शौचालयों के निर्माण में लगने वाली राशि में छूट देना काफी नहीं है। लोगों का व्यवहार बदले इसके लिए उन्हें कई प्रकार के फायदे देने होंगे। अवैध कालोनियों जैसे अन्य क्षेत्रों में सरकार को वहन करने योग्य सामुदायिक शौचालयों का निर्माण करना होगा जिनकी साफ-सफाई भी होती रहे। यानी सरकार को शौचालयों और पानी की आपूर्ति के बीच गहरे संबंध को भी समझना होगा।
[लेखक, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट रिसर्च की निदेशक हैं]