सौ साल पहले फैली महामारी से सबक लेकर कोरोना से मुकाबले के लिए आदिवासियों ने की तैयारी
बस्तर के हर गांव में बाहरी या बाहर से आ रहे लोगों का प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया है। बाहर से आने वाले ग्रामीणों को गांव के बाहर ही रहने और खाने की व्यवस्था कर रहे हैं।
जगदलपुर, दीपक पाण्डेय। कोरोना वायरस के चलते देशव्यापी लॉकडाउन के बीच छत्तीसगढ़ में बस्तर के आदिवासी करीब 100 साल पहले भीषण तबाही मचा चुके मलमली बुखार (स्पेनिश फ्लू) से सबक ले मजबूती से मुकाबले की तैयारी में जुटे हैं। 1918 में फैले स्पेनिश फ्लू को यहां के लोगों ने मलमली नाम दिया था। इसने बस्तर संभाग के कई गांव के लोगों की जान ले ली थी। यही कारण है कि कोरोना आया तो शहरी क्षेत्र के लोगों से ज्यादा जागरूक आदिवासी हैं। उन्होंने कमोवेश हर गांव में बाहरी या बाहर से आ रहे लोगों का प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया है। बाहर से आने वाले ग्रामीणों को गांव के बाहर ही रहने और खाने की व्यवस्था कर रहे हैं।
कठिन परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार हैं आदिवासी
छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग से चार राज्यों ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र की सीमा लगी हुई है। इसलिए यहां महामारियां भी चारों ओर से आती हैं। बरसात के मौसम में उल्टी-दस्त से अब भी यहां हर साल सैकड़ों लोगों की मौत हो जाती है। मलेरिया भी यहां किसी महामारी से कम साबित नहीं होता है। यह भी कई लोगों की जान ले लेता है। पूर्व की कठिन परिस्थितियों का सामना करने के कारण ही यहां के आदिवासी ज्यादा सजग हैं।
बस्तर में 1918 में स्पेनिश फ्लू ने ले ली थी कई लोगों की जान
बकावंड गांव के धर्म मौर्य ने दैनिक जागरण के सहयोगी प्रकाशन नईदुनिया को बताया कि उनके दादा समधू ने उन्हें बताया था कि मलमली से बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे। उस समय कई गांव खाली हो गए थे। लोग श्मशान जाकर शव को दफनाते भी नहीं थे। गांव के आसपास जंगल में शव फेंक कर आ जाते थे। लोगों ने एकपारा से दूसरे पारा (गांव के दो छोर) तक जाना भी छोड़ दिया था। कई बार ऐसे मौके भी आए कि किसी के यहां मौत होने पर शव को चार कंधों का सहारा भी नसीब नहीं हुआ। घर का ही कोई आदमी बदबू से बचने के लिए महुए की शराब पीकर तथा उसे अपने कपड़ों पर छिड़ककर शव को अकेले उठा कर जंगल तक छोड़ आया। इसके बाद रास्ते में पड़ने वाले पोखर (तालाब) में डुबकी मारने के बाद घर लौटा।
ज्यादा मौतें होने पर गांव से पलायन कर गए लोग
जब मौत का आंकड़ा बढ़ा तो लोग गांव छोड़ कर बारदा पलायन कर गए थे। जब गांव में संक्रमण कम हुआ तो वापस लौटे। अब भी ग्रामीण इलाकों में मलमली के किस्से इसी तरह लोग सुनाते हैं। इन किस्सों से बस्तर के लोग सबक लेते हैं। इसके साथ ही ऐसी स्थिति से निपटने के लिए मजबूती से तैयारी करते हैं। कोरोना के प्रकोप के दौरान ऐसा किया भी जा रहा है। लोगों को गांव के बाहर ही रहने-खाने की व्यवस्था की जा रही है, जिससे बीमारी गांव तक न पहुंचे।
36 मजदूरों को गांव में घुसने नहीं दिया
बस्तर के अबूझमाड़ के 36 मजदूर एक ठेकेदार के पास मजदूरी करने विशाखापटनम गए थे। कोरोना संकट के चलते जब लॉकडाउन की नौबत आई तो ठेकेदार ने इन्हें एक-एक हजार रुपये देकर इनके हाल पर छोड़ दिया। बेबस मजदूर विशाखापटनम से जगदलपुर तक लौह अयस्क का परिवहन करने वाली मालगाड़ी में छिपकर जगदलपुर पहुंचे।
जगदलपुर से 72 किमी पैदल चलकर कोंडगांव आए और वहां से एक जीप में सवार होकर अबूझमाड़ जा रहे थे कि पुलिस को इसकी भनक लग गई। रास्ते में बेनूर थाने में इन्हें रोका गया। प्रशासन की पहल पर इनका हैल्थ चेकअप कराया गया। कोरोना के लक्षण किसी में नहीं मिले तो प्रशासन ही उन्हें गांव पहुंचाने गया लेकिन गांव वाले उन्हें गांव में प्रवेश देने को राजी नहीं हुए। गांव के बाहर क्वारंटाइन होम में इन्हें रखा गया है।