नाम की आधी आबादी हैं महिलाएं, 'अनचाही' और 'नकुसा' की भरमार है यहां...
महिला सशक्तीकरण की योजनाएं तभी सफल मानी जाएंगी, जब समाज के स्तर पर लड़कियों को अनचाहा मानने की कुत्सित परंपरा पर लगाम लगेगी...
मनीषा सिंह। किसी के लिए यह एक दुखद अनुभव होगा, जब उसे पता चले कि जिस परिवार और समाज में उसने जन्म लिया है, वही उसे अवांछित मानता है। निश्चय ही दुनिया में बहुत से लोगों को उनके माता-पिता बिना किसी योजना के जन्म देते हैं, अवांछित बच्चों को यूरोपीय-अमेरिकी समाज में ‘एक्सीडेंटल बेबीज’ तक कहा जाता है, लेकिन ऐसा प्राय: नहीं होता कि ऐसे बच्चों को दुनिया में लाने वाले मां-बाप उन्हें सतत हेय दृष्टि से देखते रहें और तद्नुरूप उनका नामकरण भी ऐसा कर दें, जिससे उनके अवांछनीय होने का अहसास होता रहे, पर खास तौर से एशियाई और भारतीय समाज में बेटों की चाहत में पैदा हो गई लड़कियों के साथ ऐसे हादसे अक्सर होते हैं। हाल में ऐसे समाचार प्रकाश में आए हैं, जिनसे पता चला है कि मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में दो परिवारों ने अपनी बेटियों का नाम ‘अनचाही’ रख दिया है। उनका यह नाम स्कूल, राशन कार्ड और आधार तक में दर्ज है।
बेटियों को खरपतवार की तरह अवांछित मानना, उनके साथ सौतेला बर्ताव करना और उनका कोई अपशकुनी नाम रख देने की परंपरा हमारे समाज में नई नहीं है। देश के संपन्न माने जाने वाले राज्य महाराष्ट्र में तो ऐसी अवांछित लड़कियों के साथ यह व्यवहार अर्से से किया जा रहा है। इस राज्य के कुछ हिस्सों में परिवार के लोग लड़के के बजाय लड़की के पैदा होने पर उसे मारते तो नहीं हैं, लेकिन उसका नाम नकुसा रख देते हैं। इसका मतलब है, जिसकी कोई जरूरत नहीं है। यह नाम जिंदगी भर लड़की को एक बुरे अहसास के साथ जीने पर मजबूर करता है। इस बारे में दो साल पहले वर्ष 2016 में मुंबई के इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉलिटिकल साइंस के शोधार्थी टीवी शेखर और आइआइटी हैदराबाद के वीपी शिजीथ ने मिलकर नकुसा नाम के साथ जी रही लड़कियों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक असर पर एक शोध किया था।
यहां अनचाही बन जाती है नकुसा
महाराष्ट्र के सतारा के 77 परिवारों की नकुसा नाम की लड़कियों पर सर्वेक्षण किया। इसमें से 44 लड़कियों का इंटरव्यू लिया गया, जिनकी उम्र 10 साल से ऊपर थी। पता चला था कि इन लड़कियों में से ज्यादातर अपने परिवार में दूसरे या तीसरे नंबर की लड़कियां थीं। यानी वे बेटों की चाहत में पैदा हो गई थीं, पर उनका नाम नकुसा रखने के पीछे एक अंधविश्वास भी है। वहां माना जाता है कि लड़की का नाम नकुसा रखने से अगला बच्चा लड़का पैदा होगा। वहां यह तरीका ईश्वर को यह संदेश देने के लिए अपनाया जाता है कि अब परिवार को और लड़कियां नहीं चाहिए। शोध में यह भी पता चला कि महाराष्ट्र में नकुसा नाम की लड़कियों की उम्र 4 से लेकर 48 तक है, जिसका मतलब है कि यहां दशकों से यह कुप्रथा चल रही है।
यूरोपीय-अमेरिकी देशों में भी होता है भेदभाव
सवाल है कि क्या समाज को लड़कियों को ऐसा अपशकुनी नाम रखने के कारण मिलने वाली प्रताड़ना और बुरे अहसास का जरा भी अंदाजा है। ऐसी ज्यादातर लड़कियों को अपने नाम की वजह से अपमानित होना पड़ता है और कई तरह की मानसिक यातनाएं झेलनी पड़ती हैं। कई लड़कियों को बचपन में अपने नाम का मतलब नहीं पता होता है, लेकिन स्कूल में ताने मिलने पर जल्द ही उन्हें नाम के साथ-साथ गढ़ी गई अपनी निकृष्ट पहचान भी समझ में आ जाती है। जाहिर है कि इसके पीछे भारतीय समाज की यह धारणा है कि परिवार और खानदान तो लड़कों के बल पर आगे बढ़ते हैं। कुछ यूरोपीय-अमेरिकी देशों में भी लड़कों को घर का चिराग मानने की परंपरा है, लेकिन वहां लड़कियों के साथ लिंग के आधार पर ऐसा व्यवहार नहीं किया जाता है कि वे आजीवन किसी असहज स्थिति में फंसी रहें, लेकिन एशियाई, खासतौर से भारतीय समाज में यह फर्क बिल्कुल स्पष्ट दिखता है।
दो करोड़ बेटियां अवांछित
यहां एक अदद लड़के की चाह में एक के बाद एक लड़कियों को पैदा किया जाता है और पैदा होने के बाद उन्हें ‘अवांछनीय’ कोटे में डाल दिया जाता है। हाल में वर्ष 2017-18 के इकोनॉमिक सर्वे ने इस अंतर को बाकायदा दर्ज करते हुए बताया है कि देश में 2.1 करोड़ बेटियां ऐसी हैं जिनके पैदा होने की उम्मीद उनके परिवारों ने नहीं की थी। ये लड़कियां अवांछित पैदावार हैं, लिहाजा इनके साथ समाज-परिवार का रवैया ठीक वैसा ही है जैसा एक गैरजरूरी व्यक्ति के साथ होना चाहिए।
बिगड़ रहा सामाजिक ताना-बाना
इस सर्वेक्षण में अवांछित बेटियों के साथ 6.3 करोड़ ‘गायब’ बेटियों का आंकड़ा भी दिया गया है। इसका मतलब यह है कि गर्भ में बेटी की सूचना मिलने पर देश में अब तक 6.3 करोड़ भ्रूण हत्याएं कराई गई हैं। पिछले कुछ दशकों में निकाले गए औसत के मुताबिक हर साल करीब 20 लाख ऐसी बेटियां गायब हो जाती हैं, जिनके मां-बाप उन्हें दुनिया में नहीं लाना चाहते। इन ‘गायब’ या ‘अनचाही’ लड़कियों का असर देश के सामाजिक परिदृश्य पर इस तरह पड़ा है कि उत्पादन क्षेत्र से जुड़े आर्थिक विकास में लैंगिक अनुपात बिगड़ गया है और महिला सशक्तीकरण का मुद्दा हाशिये पर चला गया है।
सरकारी योजनाओं के बावजूद भेदभाव
कार्यशील मानव पूंजी के नजरिये से जो आकलन हुआ है, उसके अनुसार देश की वर्कफोर्स में महिलाओं की जो हिस्सेदारी वर्ष 2005-06 में 36 फीसद थी, वह 2015-16 में घटकर 24 फीसद रह गई। ये हालात तब हैं, जब देश में ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ और सुकन्या समृद्धि जैसी सरकार की प्रमुख योजनाओं के साथ ही सरकारी और निजी क्षेत्र में कार्य करने वाली महिलाओं को मातृत्व के लिए 26 सप्ताह का अवकाश देने और 50 से अधिक कर्मचारियों वाली फर्मों में क्रेच की सुविधा अनिवार्य की गई हैं। स्पष्ट है कि सरकार के स्तर पर महिला सशक्तीकरण की योजनाओं-अभियानों का तभी कुछ हासिल माना जाएगा, जब समाज के स्तर पर लड़कियों को अनचाहा मानने की कुत्सित परंपरा पर लगाम लगेगी।
इसके लिए जो महिला नौकरी करने के बजाय घरेलू कामकाज को कुशलता से निपटाती है उसके योगदान के आर्थिक महत्व को समझने और श्रेय देने की जरूरत है। ऐसी स्थितियों में ही लैंगिक असमानता की हालत में सुधार आ सकता है और अभी जो स्त्री खुद को हर मोर्चे पर उपेक्षित महसूस करती है, उसमें आत्मविश्वास जग सकता है।
लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं