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अब वक्त आ गया है जब हमें प्रकृति और सेहत दोनों के लिए मुफीद जैविक खेती को अपनाना होगा

बड़ी तेजी से खेती-बाड़ी को व्यापारिकता में बदलकर देश को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश शुरू हो गई। हम कई स्तर पर खाद्य सुरक्षित हुए भी पर इसी के साथ हिडन हंगर नामक असुरक्षा भी सामने आ गई।

By Vinay TiwariEdited By: Published: Sun, 12 Jul 2020 12:11 PM (IST)Updated: Sun, 12 Jul 2020 12:11 PM (IST)
अब वक्त आ गया है जब हमें प्रकृति और सेहत दोनों के लिए मुफीद जैविक खेती को अपनाना होगा
अब वक्त आ गया है जब हमें प्रकृति और सेहत दोनों के लिए मुफीद जैविक खेती को अपनाना होगा

नई दिल्ली, [डॉ.अनिल प्रकाश जोशी]। रासायनिक खाद के लगातार प्रयोग से मिट्टी में पाए जाने वाले आवश्यक पोषक तत्वों में कमी आ गई है। अब वक्त आ गया है कि हम प्रकृति और सेहत दोनों के लिए मुफीद जैविक खेती को अपनाएं। कई देशों ने इस तरफ कदम उठाए हैं परंतु भारत में इस ओर ध्यान अभी कम ही दिया जा रहा है... 

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1943-44 में बंगाल(वर्तमान बांग्लादेश, भारत का पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़ीसा) में पड़े अकाल ने नीतिकारों को यह महसूस करा दिया था कि पहली प्राथमिकता पेट की ही है। इसके बाद खेती की बढ़त के सारे रास्ते तलाशे गए और हरित क्रांति का जयघोष हुआ। 

खेती के नए तरीकों और फर्टिलाइजर की खुराक को चुस्त करने की शुरुआत हुई। बड़ी तेजी से खेती-बाड़ी को व्यापारिकता में बदलकर देश को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश शुरू हो गई। हम कई स्तर पर खाद्य सुरक्षित हुए भी पर इसी के साथ हिडन हंगर नामक असुरक्षा भी सामने आ गई। हम संतुलित भोजन की परिभाषा पर पूरी तरह खरे नहीं उतर पाए।

एक तरफ जहां शरीर के लिए जरूरी पोषक तत्वों की कमी हुई वहीं दूसरी तरफ खेती में ऐसे तत्वों के इस्तेमाल की भरमार हुई, जो शरीर के लिए घातक थे। यह सब हुआ मिट्टी के मिजाज के कारण, जिसे हमने रसायनों के भारी इस्तेमाल से बीमार कर दिया। असल में खाद्य सुरक्षा की होड़ में हम उत्पादन की तरफ ही चिंतित रहे मगर इसकी गुणवत्ता को बिसराते गए। देश को खाद्य सुरक्षित जरूर कर लिया पर शरीर को खतरनाक तत्वों की चपेट में भी ले आए। 

जल-थल सब खतरे में 

हमें खेती में मुख्य रूप से नाइट्रोजन व फास्फोरस की आवश्यकता होती है। इसके लिए भारी मात्रा में इनका उत्पादन होता है। इनका मुख्य स्रोत चट्टानें होती हैं जिनमें ये खनिज लवण पाए जाते हैं। ज्यादा मात्रा में रासायनिक खादों का प्रयोग पर्यावरणीय विषमताओं का भी कारक है। अत्यधिक फास्फेट सायनो-बैक्टीरिया नामक कवक को जन्म देता है जिसका टॉक्सिन शरीर के लिए हानिकारक होता है।

फास्फोरस खाद जिस तरह की चट्टानों से बनती है, उनमें कैडमियम होता है। शरीर में कैडमियम की अधिकता किडनी के लिए नुकसानदायक है तो वहीं फास्फोरस की चट्टानों में फ्लोराइड की अधिकता होती है। आज पेट से लेकर दांतों की बीमारी का बड़ा कारण फ्लोराइड ही है। कई रासायनिक खादों में रेडियोएक्टिव पदार्थ भी मिले होते हैं और यह इस पर निर्भर करता है कि वे किस तरह के चट्टानी पत्थरों से मिलकर बनी हैं।

इसी तरह स्टील उद्योगों का अपशिष्ट जिंक रासायनिक खाद में उपयोग होता है पर इसके साथ लेड, आर्सेनिक, कैडमियम, क्रोमियम व निकिल जैसे तत्व भी मिट्टी में चले जाते हैं। अत्यधिक मात्रा में नाइट्रोजन के उपयोग से पानी में ऑक्सीजन की कमी आ जाती है जिससे जलजीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 

इन तत्वों की अधिकता अब सरलता से पानी-मिट्टी से हटने वाली नहीं। रासायनिक खादों के लगातार उपयोग से मिट्टी में अन्य अतिसूक्ष्म आवश्यक पोषक तत्वों की कमी हो गई है। मिट्टी को उपजाऊ बनाने में योगदान देने वाले सूक्ष्म जीव रासायनिक खादों  के कारण मिट गए हैं। अमोनिया खाद के उत्पादन से निकली नाइट्रस ऑक्साइड, कार्बन डाईऑक्साइड के बाद वायु प्रदूषण का दूसरा बड़ा कारण है। 

सुरक्षा को दें प्राथमिकता

यूरोप, ब्रिटेन व ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों ने इस ओर गंभीर कदम उठाने शुरू कर दिए हैं पर अपने देश में तो हालात और भी गंभीर हैं। यहां किसी भी तरह के नियंत्रण के अभाव में हालात ज्यादा घातक हो चुके हैं। हमारे यहां किसान को यह सिखा दिया जाता है कि अच्छी फसल के लिए ज्यादा पानी और खाद ही मुख्यत: जरूरी हैं और यही कारण है कि दोनों का सीमा से अधिक दुरुपयोग हो चुका है।

आज भारत दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा रासायनिक खाद उत्पादक है। इस पर कोई गर्व नहीं किया जा सकता क्योंकि इसके अत्यधिक प्रयोग से हम मिट्टी के पोषक तत्वों को मार रहे हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो जल्द ही बड़े दुष्परिणाम सामने होंगे। पानी और मिट्टी दोनों के ही विषाक्त होने से हमारा जीवन भी खतरे में पड़ जाएगा। 

मिट्टी के पोषक तत्वों को बचाने के लिए सरकार को चाहिए कि वे जैविक खाद के उद्योगों को प्रमुखता में लाएं। जैविक खाद उद्योग पर्यावरण और भोजन दोनों की ही सुरक्षा में बड़ा योगदान देगा। यही नहीं इससे हम बड़े स्तर पर ज्यादा रोजगार सृजित कर पाएंगे क्योंकि इसमें घर-गांवों का बड़ा योगदान होगा।

जैविक मिशन ने किया कमाल

वर्ष 2016 में सिक्किम देश का पहला जैविक राज्य घोषित हुआ। जैविक उत्पाद के लिए सर्वश्रेष्ठ नीतियों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए इस राज्य को वर्ष 2018 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा ऑस्कर अवॉर्ड भी दिया गया। आज देश-दुनिया में पर्यटन के क्षेत्र में बहुत आगे सिक्किम में 50 फीसद पर्यटन इसीलिए बढ़ा क्योंकि यह एक जैविक राज्य है।

असल में वर्ष 2003 में सिक्किम के तत्कालीन मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग ने विधानसभा में घोषणा की थी कि रासायनिक कीटनाशकों के बहुत ज्यादा उपयोग से राज्य के खेतों की उर्वरा शक्ति लगभग खत्म होने की कगार पर थी। ऐसे में वहां किसी भी तरह अब रासायनिक खादों का उपयोग नहीं होगा और अगर कोई इसका उपयोग करते हुए पाया गया तो उसे एक लाख रुपए जुर्माना या तीन महीने की सजा होगी।

इस सरकार ने इस कानून को पूरी ईमानदारी के साथ लागू किया और उसका अनुसरण किया। आज सिक्किम का जैविक मिशन दुनियाभर के लिए बहुत बड़ा उदाहरण है, जिसमें तीन बातें स्पष्ट नजर आती हैं। पहली, सरकार की मंशा, दूसरी, लोगों की सीधी भागीदारी और तीसरी, पर्यावरण के प्रति संकल्प। इन तीनों बातों ने आज सिक्किम का एक नया चेहरा दुनिया के सामने पेश किया। दुर्भाग्य यह है कि सिक्किम के इस प्रयोग की चर्चा व प्रशंसा देशभर में होती है लेकिन इतनी बड़ी पकड़ किसी और राज्य ने नहीं बनाई या उसका अनुसरण नहीं किया। (लेखक पद्म भूषण से सम्मानित प्रख्यात पर्यावरण कार्यकर्ता हैं) 


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