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Rising India सरिता, विनीता के आत्मनिर्भरता की कहानी, कहा- इसमें क्या बुराई है?

भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए पहले खुद को आत्मनिर्भर बनाना होगा। इसके लिए केवल इच्छाशक्ति और सूझबूझ की जरूरत है। जैसा उत्तर प्रदेश की दो किशोरवय बहनों ने कर दिखाया।

By Sanjeev TiwariEdited By: Published: Wed, 24 Jun 2020 08:00 AM (IST)Updated: Wed, 24 Jun 2020 08:00 AM (IST)
Rising India सरिता, विनीता के आत्मनिर्भरता की कहानी, कहा- इसमें क्या बुराई है?
Rising India सरिता, विनीता के आत्मनिर्भरता की कहानी, कहा- इसमें क्या बुराई है?

शाहजहांपुर। पिता के बीमार होने पर परिवार पर संकट आते देखा तो दो किशोरवय बेटियों ने खुद मोर्चा संभाला। परिवार की आत्मनिर्भरता और सम्मान को अक्षुण्ण बनाए रखा। पढ़ें और शेयर करें शाहजहांपुर से प्रभाकर मिश्र की रिपोर्ट।

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शाहजहांपुर के पुवायां कस्बे की सड़क पर दो किशोरवय बहनें हाथ ठेले पर आम बेचतीं नजर आईं। अकसर पुरुष ही यह काम करते हैं, इसलिए अचरज हुआ। पूछा, नाम क्या है...? बताया, सरिता...। दूसरी ने, विनीता...। ठेला क्यों खींच रही हो...? बोलीं- क्यों इसमें क्या बुराई है...?

दरअसल, यहां कभी लड़कियों को ठेला खींचते नहीं देखा, इसीलिए पूछा था। बताया दैनिक जागरण से हैं। बोलीं, हां हम स्कूल में पढ़ते हैं...।  दैनिक जागरण सुनकर दोनों अपने बारे में बताने को राजी हुईं। बताया कि पुवायां के गांव जनकापुर की रहने वाली हैं। सरिता कक्षा सात और विनीता पांचवीं की छात्रा है। दोनों गांव से आठ किमी दूर पुवायां के फल बाजार तक ठेला खींचकर जाती हैं। दिनभर आम बेचती हैं। शाम को ठेला खाली होता है तो लौटती हैैं।

पुवांया के बाजार की बात करें तो यहां विक्रेता तो बहुत हैं, मगर पूरे बाजार में महिला विक्रेता महज यही दो हैैं। इससे पहले शायद ही किसी ने कभी यहां लड़कियों को इस तरह ठेला खींचते, फल बेचते देखा होगा। बहरहाल, इनसे बात करने के दौरान खास अनुभव हुआ। चेहरा कम उम्र, मगर शब्द परिपक्व, एकदम नपे-तुले। बातों में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का तेज। दुनिया कैसे चलती है, जानती हैं।

संकोच तोड़कर बातचीत की शुरुआत अपने पिता प्रेमपाल से करती हैं। बताया, बीमार रहते हैं, सुबह सात बजे ठेले पर फल या सब्जी लगाकर बेचने के लिए निकल पड़ते थे। आठ किमी दूर कस्बे तक जाते। बीमारी के बावजूद रोटी की जुगत में परेशानी उठा रहे थे। शाम को लौटकर आने पर उनकी हालत देख बहुत दुख होता, कि काश उनके लिए कुछ कर पातीं।

सरिता ने कहा, इसी सोच में कई दिन बीत गए। जून का पहला सप्ताह था, मैंने उनसे कहा कि मुझे भी साथ ले चला करें। उन्होंने हंसकर टाल दिया। अगले दिन वह गुजारिश जिद में बदल दी तो साथ ले गए। तीन-चार दिन तक उनके साथ रहकर फलों पर पानी का छिड़काव करती थी। दस जून को विनीता को भी साथ ले लिया। तीनों लगातार साथ रहते। हम दोनों ने बाजार का तरीका सीख लिया था, इसलिए बाद में पिता को आराम के बहाने साथ चलने से मना कर दिया।

टीचर बनना चाहती हैं...

विनीता बोली, इन दिनों स्कूल बंद हैं। इसलिए पढ़ाई में बाधा नहीं आ रही है और पिता जी के स्वस्थ होने तक उनकी मदद कर पा रही हैं...। दोनों कहती हैं कि कठिन वक्त को टाल रहीं हैं। स्कूल खुलेंगे तो पढऩे जाएंगी। हम शिक्षिका बनना चाहती हैं। इसके लिए खूब पढ़ेंगी।

मैं हैरान हूं और पूरा गांव नतमस्तक ..

हमने यह जानने के लिए कि गांव-समाज में इन बेटियों के इस काम को किस तरह आंका जा रहा है, इनके गांव का भी रुख किया। पिता प्रेमपाल बहुत बीमार हैं। चलते हैं तो सांस फूलने लगती है। जमीन का एक टुकड़ा भी नहीं है, जिसमें फसल उगा कर अनाज का इंतजाम हो जाए। लॉकडाउन में जैसे-तैसे गुजारा किया। बताते हैं कि ठेला लगाकर ही पूरे परिवार की गुजर-बसर होती है। घर में पत्नी, दो बेटियां और छोटा बेटा है। बोले, बीमारी घर से बाहर कदम नहीं बढ़ाने दे रही है, ऐसे में बेटियां मददगार बन जाएंगी, सोचा न था। आज उनकी वजह से परिवार का सम्मान कायम है। मैं हैरान हूं और खुश भी। गांव वाले भी तारीफ करते नहीं थकते। तबीयत ठीक हो जाए, इन्हें पढाऊंगा, आगे बढ़ाऊंगा...।

(अस्वीकरणः फेसबुक के साथ इस संयुक्त अभियान में सामग्री का चयन, संपादन व प्रकाशन जागरण समूह के अधीन है।)


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