कसौटी: देश के बीमार स्वास्थ्य तंत्र को दुरुस्त करने की सरकार की कोशिश तेज
देश की उन्नति और तरक्की की बुनियाद उसके स्वास्थ्य तंत्र की मजबूती से आंकी जा सकती है। लेकिन उस देश का क्या होगा जिसका स्वास्थ्य तंत्र खुद बीमार हो?
नई दिल्ली [नीलू रंजन]। किसी देश का स्वस्थ समाज ही उसे समृद्ध बनाता है। लिहाजा देश की उन्नति और तरक्की की बुनियाद उसके स्वास्थ्य तंत्र की मजबूती से आंकी जा सकती है। लेकिन उस देश का क्या होगा जिसका स्वास्थ्य तंत्र खुद बीमार हो? विश्व में मेडिकल टूरिज्म के क्षेत्र में अच्छे और सस्ते इलाज के लिए तेजी से उभरे भारत की आधी से ज्यादा आबादी के लिए साधारण बीमारी भी कहर मानिंद होती है। इलाज न हो तो मौत, इलाज हो तो खर्च के बोझ से मौत।
अस्पतालों व डाक्टरों की कमी, महंगी दवाई, व्यवस्था की मनमानी, डॉक्टरी शिक्षा में अनियमितता, दूरदर्शी सोच की कमी जैसी कई बीमारियों से ग्रस्त स्वास्थ्य तंत्र एक सीमित वर्ग तक सिमट कर रह गया। पिछले चार पांच सालों में इसे दुरुस्त करने की कवायद जरूर दिखाई दी पर नतीजे आने बाकी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के न्यू इंडिया की सफलता-विफलता इसी पर निर्भर करेगी कि भारत की जनता को इलाज की गारंटी सुनिश्चित हो पाती है या नहीं।
चरमराया स्वास्थ्य ढांचा
हाल में जारी नेशनल हेल्थ प्रोफाइल के अनुसार 11 हजार से अधिक लोगों के इलाज के लिए एक डाक्टर उपलब्ध है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का मापदंड एक हजार लोगों पर एक डॉक्टर का है। 55 हजार से अधिक की आबादी पर एक सरकारी अस्पताल है। 1800 से अधिक आबादी पर सरकारी अस्तपाल का एक बेड उपलब्ध है। इसमें भी सरकारी अस्पतालों में कितने डॉक्टर मरीजों के इलाज के लिए उपलब्ध होते हैं और कितने निजी प्रैक्टिस कर रहे होते हैं, यह अलग से जांच का विषय है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि हर व्यक्ति तक सहज इलाज पहुंचाने के लिए देश में कम-से-कम पांच लाख डॉक्टरों की तत्काल जरूरत है।
देश में मेडिकल शिक्षा के लिए उत्तरदायी संस्था मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया खुद भ्रष्टाचार का अड्डा बनकर रह गया। मेडिकल सीटों की उपलब्धता का आलम यह है कि देश में हर साल महज 67 हजार एमबीबीएस डॉक्टर और 31 हजार पोस्ट ग्रेजुएट डाक्टर निकल पा रहे हैं। महंगे इलाज के चक्कर में हर साल लाखों परिवार गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। स्वास्थ्य बीमा की सोच गांव तो क्या शहरों में भी नहीं पनपती है।
कठिन चुनौती
ऐसी स्थिति में सरकार के चार साल इस मायने में सार्थक कहे जा सकते हैं कि इन सभी क्षेत्रों की कमियों को कुछ कम करने की कोशिश हुई। पिछले चार साल में एमबीबीएस की 15354 और पोस्ट ग्रेजुएट में 12646 सीटें बढ़ाई गई है। लेकिन जरूरत के हिसाब से यह ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है। वर्तमान और आने वाली सरकारों को बहुत कुछ करना होगा। मेडिकल सीटें बढ़ाने और गुणवत्ता में सुधार के रास्ते में एमसीआइ के अड़ंगे को देखते हुए सरकार को इसे ही खत्म करना पड़ा। सरकार राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग का विधेयक लोकसभा में पारित कराने में भी सफल रही। लेकिन मौजूदा तंत्र से करोड़ों की कमाई करने वाले निजी मेडिकल कॉलेजों के बहुत से मालिक संसद में भी है। ये अभी तक राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग को रोकने में सफल रहे हैं।
आसान हुआ इलाज
किडनी की बीमारी से ग्रसित आम आदमी के पास मरने के अलावा कोई चारा नहीं था। सरकार ने सभी जिला अस्पतालों में डायलिसिस की सुविधा उपलब्ध कराकर जीने का हक दे दिया है। इसी तरह घुटने के प्रत्यारोपण और दिल के रोगियों को लगने वाले स्टेंट्स के दामों को तय कर एक साहसिक कदम उठाया गया। आम जनता के सिर से महंगी दवाइयों का बोझ कम करने के लिए अमृत स्टोर खोले जा रहे हैं। जहां जेनेरिक दवाइया 60 से 90 फीसद कम दामों में उपलब्ध होती हैं, लेकिन ऐसे स्टोर की संख्या और उसमें मिलने वाली दवाइयां अभी सीमित हैं।
मिशन पर सरकार
शिशु और मातृ मत्यु दर का आंकड़ा ऐसा है जो भारत को शर्मशार करता रहा है। इसे रोकने का सबसे सस्ता और सटीक तरीका टीकाकरण है। देश में सालों से टीकाकरण अभियान चल रहा है। लेकिन पहली बार मोदी सरकार ने मिशन मोड में हर बच्चे तक इसे पहुंचाने का गंभीर प्रयास किया है। सरकार की कोशिश 2020 तक सभी बच्चों का टीकाकरण करने की है। यही नहीं, मिशन इंद्रधनुष के तहत सात टीकों के बजाय अब बच्चों को 11 टीके लगाए जा रहे हैं। इसी तरह जच्चे-बच्चे की सेहत की दिशा में सरकार बेहतर काम करने में सफल रही है।
गर्भवती माताओं को पौष्टिक आहार से लेकर इलाज तक बंदोबस्त करने का नतीजा है कि पिछले चार सालों में मातृ मृत्युदर में अच्छी खासी कमी आई है। इस सबके बीच ‘आयुष्मान भारत’ अगर सटीक तरीके से जमीन पर उतरा तो यह स्वास्थ्य तंत्र की शक्ल बदल देगा। इसके तहत 50 करोड़ गरीबों के लिए पांच लाख रुपये तक मुफ्त और कैशलेस इलाज की योजना जल्द ही शुरू होने वाली है।