Jamaat-e-Mujahideen Bangladesh: कोडिंग सीख अपना एप बनाकर संवाद कर रहे आतंकी, एजेंसियां सतर्क
आतंकियों ने सुरक्षा एजेंसियों से बच कर एक दूसरे से बात करने के लिए अब स्वयं के एप भी तैयार करने लगे हैं। भोपाल के ईटखेड़ी से गिरफ्तार जमात-ए-मुजाहिदीन बांग्लादेश (जेएमबी) के दो आतंकियों से पूछताछ में यह खुलासा हुआ है।
राज्य ब्यूरो, भोपाल। सुरक्षा एजेंसियां देश में आतंकियों का छुपा नेटवर्क तोड़ने के लिए जहां सख्ती बढ़ा रही हैं, वहीं आतंकी भी पहचान छुपाने के नए-नए तरीके खोजते जा रहे हैं। स्लीपर सेल तैयार करने के साथ ही खुफिया तरीके से संवाद करने के लिए आतंकी अब स्वयं के एप भी तैयार करने लगे हैं।
पूछताछ में हुआ खुलासा
भोपाल के ईटखेड़ी से गिरफ्तार जमात-ए-मुजाहिदीन बांग्लादेश (जेएमबी) के दो आतंकियों से पूछताछ में राजफाश हुआ है कि जिस विशेष एप का उपयोग देश में मौजूद स्लीपर सेल से लेकर नेपाल तक संपर्क के लिए किया जा रहा था, वह इन आतंकियों ने खुद कोडिंग सीखकर तैयार किया था। इसका एक ही उद्देश्य था कि सुरक्षा एजेंसियां इन्हें आसानी से ट्रैक नहीं कर पाएं। इसके बाद एजेंसियां भी सतर्क हो गई हैं। वे निगरानी के तरीकों में सुधार कर रही हैं।
संवाद के लिए विशेष एप का करते थे उपयोग
एनआइए ने सात अगस्त को हमीदुल्ला उर्फ राजू गाजी और मोहम्मद शहादत हुसैन को गिरफ्तार किया था। ये आतंकी अपने साथियों को रुपये और संसाधन उपलब्ध कराने में लगे थे। आतंकियों के मोबाइल, लैपटाप सहित अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरणों की जांच में पता चला कि वे आपस में संपर्क के लिए विशेष एप का उपयोग कर रहे थे। उन्होंने पूछताछ में बताया कि वे कभी कालेज भी नहीं गए, लेकिन इंटरनेट मीडिया से कोडिंग सीखकर उन्होंने अपना एप बनाया था। यह एप इन्हीं के साथियों ने डाउनलोड किया था और इससे वे गोपनीय ढंग से आपस में संवाद करने लगे थे।
फर्जी सिम कार्ड का कर रहे हैं उपयोग
छद्म आवरण की कई परतों से एजेंसियों को चकमा साइबर क्राइम के मामले में पुलिस की मदद करने वाले विशेषज्ञ शोभित चतुर्वेदी बताते हैं कि आतंकी छद्म आवरण की कई परतें चढ़ाकर सुरक्षा एजेंसियों को चकमा देते हैं। वे जानते हैं एजेंसियों के लिए एंड्राइड मोबाइल को ट्रैक करना सबसे सरल होता है। ऐसे में वे सामान्य बातचीत के लिए की-पैड मोबाइल का उपयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ सिम आम आदमियों के पहचान पत्र जुगाड़कर फर्जी तरीके से खरीदी जाती हैं। साथ ही, वे ब्लू स्टैग जैसी वेबसाइट से वर्चुअल नंबर भी ले लेते हैं। शोभित के अनुसार पहले आतंकी वर्चुअल नंबर पर ओटीपी मंगाकर कम प्रचलित जिली, कफीन जैसे इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म या कम्युनिकेशन एप चलाकर खुद को छुपाते आए हैं। इसी क्रम में उन्होंने खुद का एप भी बना लिया। जब कोई एप ऐसा दिखाई देता है, जिसे बेहद कम लोग उपयोग कर रहे होते हैं उस पर आतंकी उसे कहीं और से ली गई सिम या वर्चुअल नंबर से फर्जी पहचान वाला एकाउंट बनाकर संपर्क कर लेते हैं। इससे एजेंसियों के रडार पर आने से बच जाने की संभावना बढ़ जाती है। खुद एप बनाना मुश्किल भी नहीं है, इसलिए आतंकियों ने संभवत: कम प्रचलित एप के बजाय यह कदम उठाना शुरू कर दिया है।