महिलाओं के हाथ में है तरक्की की चाबी, लेकिन पाक-बांग्लादेश से भी पीछे है भारत
महिलाओं को परंपरागत शिक्षा के खांचे से बाहर निकालकर आधुनिक और तकनीकी शिक्षा के साथ जोड़ने की जरूरत है।
सुशील कुमार सिंह। सशक्तीकरण में आर्थिक स्वतंत्रता बहुत मायने रखती है। इसमें महिलाएं भी अपवाद नहीं हैं। तमाम उदाहरण इसकी पुष्टि भी करते हैं। जाहिर सी बात है कि आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिलाओं के उत्थान की बात में इस पहलू को भला कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है। असल में इसके दोहरे फायदे हैं। एक तो आर्थिक रूप से सशक्त होने से महिलाओं में आत्मविश्वास बढ़ेगा, जो उनकी सामाजिक हैसियत में भी वृद्धि करेगा, तो दूसरा आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी से सकल घरेलू उत्पादन भी बढ़ेगा, जिससे समग्र अर्थव्यवस्था को लाभ मिलेगा।
विश्व बैंक ने भी कहा है कि यदि भारत को दो अंकों में आर्थिक वृद्धि दर हासिल करनी है तो उसे महिलाओं के लिए आर्थिक अवसर बढ़ाने होंगे। हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में केवल 27 प्रतिशत महिलाएं ही सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश कर रही हैं। दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए यह सही संकेत नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि दुनिया भर में कामकाज की जगहों पर बेहतर लैंगिक संतुलन बनाने पर उतना जोर नहीं था, जितना बीते कुछ वर्षों से देखने को मिल रहा है। भारतीय श्रम बाजार में महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत कम है। डिग्री लेने के बाद 65 फीसद से अधिक महिलाएं श्रम शक्ति का हिस्सा नहीं बन रही हैं, जबकि बांग्लादेश में यह आंकड़ा 41 प्रतिशत और इंडोनेशिया एवं ब्राजील में 25 प्रतिशत है। वर्ष 2007 के बाद भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या घटने के संकेत मिले हैं।
ऐसे होगी जीडीपी में साढ़े चार फीसद वृद्धि
इसमें कोई दो राय नहीं कि तकनीकी विकास ने परंपरागत शिक्षा को पछाड़ दिया है। अब चुनौती इसी बात की है कि आधुनिक एवं तकनीकी शिक्षा से महिलाओं को कैसे जोड़ा जाए। बदलते हालात आगाह कर रहे हैं कि पुराने ढर्रे अर्थहीन और अप्रासंगिक हो रहे हैं और इसकी सबसे ज्यादा चोट स्त्री शिक्षा पर हुई है। जाहिर है कि यदि महिलाएं तकनीकी और रोजगारपरक शिक्षा से दूर रहेंगी तो न केवल उनमें बेरोजगारी व्याप्त होगी, बल्कि एक बड़े मानव श्रम का लाभ लेने से भी भारत वंचित रह जाएगा। यदि देश की 70 फीसदी महिला श्रम का इस्तेमाल किया जाए तो देश की जीडीपी में साढ़े चार प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है।
जीडीपी में महिलाओं का योगदान सिर्फ 17 फीसद
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बेटी एवं व्हाइट हाउस में सलाहकार इवांका ट्रंप ने हाल में भारतीय महिलाओं की उपलब्धियों की प्रशंसा करते हुए उनकी भागीदारी बढ़ाने की जरूरत बताई थी। यदि सब कुछ सामान्य रहे तो वर्ष 2025 तक भारत की अनुमानित जीडीपी दोगुनी हो सकती है। यह महिलाओं के सक्रिय योगदान से ही संभव हो सकेगी। भारत के जीडीपी में महिलाओं का योगदान मात्र 17 फीसदी है, जबकि चीन में 41 फीसदी, दक्षिण अमेरिका में 33 फीसदी है। इतना ही नहीं भारत इस मामले में 37 प्रतिशत के वैश्विक औसत से भी भारत काफी पीछे है। भारत में महिला श्रम का भरपूर उपयोग नहीं हो पा रहा है। यही वजह भी है कि तमाम कोशिशों के बावजूद देश में अपेक्षित आर्थिक विकास नहीं हो पा रहा है।
हर क्षेत्र में टॉप कर रही हैं महिलाएं
इस स्थिति को पलटने के लिए कई मोर्चों पर कदम उठाने होंगे। यह तथ्य निर्विवाद रूप से सत्य है कि समाज में महिलाओं की उपेक्षा की जाती है। साक्षरता, शिक्षा, उद्यमिता से लेकर कौशल विकास एवं नियोजन आदि में महिलाओं की भूमिका कई गुना बढ़ाई जा सकती है। महिला सशक्तीकरण को लेकर दशकों से कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। हालांकि इनसे कई परिवर्तन हुए भी हैं, लेकिन उनकी रफ्तार नाकाफी है। साथ ही सशक्तीकरण कार्यक्रमों में कई कमियां भी हैं। बीते कुछ वर्षों से दिख रहा है कि लड़कियों ने शिक्षा और रोजगार के मामले में स्वयं को स्थापित करने की होड़ में तो दिख रही हैं। 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा में टॉपर ही नहीं इंजीनियरिंग, मेडिकल और सिविल सेवा परीक्षा में लड़कियां अव्वल आ रही हैं। थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि परिवर्तन सार्थक है पर इसकी समझ सब जगह पर व्याप्त नहीं है। मर्यादा और छवि की चिंता हर क्षण उनमें बनी रहती है।
संस्कार ढोने की जिम्मेदारी भी महिलाओं पर
भारतीय संस्कृति और संस्कार को ढोने की जिम्मेदारी भी महिलाओं की है। परिवार के लिए त्याग में भी उन्हीं को आगे रखा जाता है। महिलाएं भले ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर लें, सरकारी, गैरसरकारी नौकरी कर लें, लेकिन वे गृहणी की भूमिका से मुक्त नहीं हो पा रही हैं। साथ ही घरेलू हिंसा से प्रभावित होने पर भी अभिशप्त हैं। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि हर दूसरी महिला इस हिंसा की कभी न कभी शिकार हुई है। साक्षरता से लेकर सक्षमता तक, शोध से लेकर बोध तक और खेल के मैदान से लेकर एवरेस्ट की ऊंचाई ही नहीं, बल्कि अंतरिक्ष तक पहुंचने वाली महिलाओं की भरमार है। इस लिहाज से विश्व बैंक का यह कथन कि भारत की तरक्की की चाबी महिलाओं के हाथ में है, कहीं से गैर मुनासिब बात प्रतीत नहीं होती।
पाकिस्तान और अफगानिस्तान में भी महिलाओं को आरक्षण
देश में महिलाएं राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष जैसे उच्च पदों पर पहुंच चुकी हैं। दुनिया के कई देशों में महिलाओं को संविधान द्वारा आरक्षण की व्यवस्था दी गई है, लेकिन हमारे यहां ऐसा कुछ विशेष नहीं है। वहीं 33 फीसदी महिला आरक्षण को लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई, जिसका नतीजा यही हुआ कि यह आज भी अधर में लटका हुआ है। अर्जेटीना में 30 फीसदी, अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे देशों में महिलाओं को क्रमश: 27 और 30 फीसदी आरक्षण मिला है। पड़ोसी बांग्लादेश भी इस मामले में पीछे नहीं है। पश्चिमी देश डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन समेत कई यूरोपीय देश इस सूची में शामिल हैं। संदर्भ निहित व्याख्या यह भी है कि कौन सा काम महिलाएं नहीं कर सकतीं। आज हर तरह की नौकरी और कामकाज के साथ महिलाएं पुरानी धारणा को तोड़ नई पीढ़ी के लिए मिसाल बन रही हैं। जाहिर है कि वैश्विक परिदृश्य में यदि भारत को अपनी ताकत सामाजिक और आर्थिक तौर पर और बुलंद करनी है तो सकल घरेलू उत्पाद से लेकर श्रम बाजार तक में महिलाओं की भूमिका को महत्व देना होगा। 21वीं सदी के दूसरे दशक में बड़े बदलाव और विकास को सतत करना और साथ ही समावेशी धारणा से युक्त होना है तो महिलाओं को साथ लेकर चलना ही होगा।
(लेखक वाइएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक हैं)