चुनिंदा मामलों में अदालतें धारा 167 में हाउस अरेस्ट का दे सकती हैं आदेश : सुप्रीम कोर्ट
अदालत का फैसला भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में गौतम नवलखा की याचिका पर आया जिन्होंने बांबे हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती दी। कोर्ट ने कहा दोषी करार दिए जाने के बाद के मामलों में विधायिका कुछ मामलों में आरोपितों को नजरबंद करने पर विचार करने के लिए स्वतंत्र है।
नई दिल्ली, जागरण ब्यूरो। जेलों में कैदियों की बढ़ती भीड़ से चिंतित सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि यह अदालतों पर निर्भर करता है कि वह चुनिंदा मामलों में आरोपितों को सीआरपीसी के तहत हाउस अरेस्ट करने का आदेश देने पर विचार कर सकती हैं। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दोषी करार दिए जाने के बाद के मामलों में विधायिका कुछ मामलों में आरोपितों को नजरबंद करने पर विचार करने के लिए स्वतंत्र है।
जेलों में भीड़भाड़ और जेलों की देखभाल पर राज्यों को आने वाले खर्च का जिक्र करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि नजरबंदी की अवधारणा को अपनाया जा सकता है। न्यायमूर्ति यूयू ललित और केएम जोसेफ की पीठ ने कहा, हम उम्र, स्वास्थ्य स्थिति और आरोपित के इतिहास, अपराध की प्रकृति, अन्य तरह से हिरासत में रखने की जरूरत जैसे मानकों और नजरबंदी लागू करने की शर्तों के बारे में बता सकते हैं। हमारी टिप्पणी है कि धारा (सीआरपीसी) 167 के तहत चुनिंदा मामलों में अदालतें नजरबंदी का आदेश दे सकती हैं। सीआरपीसी की धारा 167 के तहत यदि 24 घंटे में जांच पूरी नहीं होती है तो अदालत हिरासत का आदेश दे सकती है।
शीर्ष अदालत का फैसला भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में गौतम नवलखा की याचिका पर आया जिन्होंने बांबे हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने इस आधार पर उन्हें जमानत देने से इन्कार कर दिया था कि कानून के तहत एनआइए ने एक निश्चित समय के अंदर आरोपपत्र दायर नहीं किया है।
गौतम नवलखा ने कानून में तय अवधि के भीतर आरोपपत्र न दाखिल होने को आधार बनाते हुए अनिवार्य जमानत दिए जाने की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने नवलखा की याचिका खारिज करते हुए कहा कि हाउस अरेस्ट को सीआरपीसी की धारा 167 के तहत दिया आदेश नहीं माना जा सकता। यानी कानून में तय समयसीमा के भीतर आरोपपत्र न दाखिल होने पर जमानत मिलने के लिहाज से इस अवधि को सुप्रीम कोर्ट ने धारा 167 के तहत हिरासत की अवधि नहीं माना।
कोर्ट ने कहा कि हाउस अरेस्ट की संकल्पना को सीआरपीसी की धारा 167 के तहत इस अदालत समेत कोई अदालत हिरासत नहीं मानती रही है। अब जब मामला प्रकाश में आया है और उसके तमाम पहलुओं को देखते हुए हमारा नजरिया है कि हाउस अरेस्ट में हिरासत कहीं न कहीं आ जाती है जो कि धारा 167 का हिस्सा है।
नवलखा ने कानून में तय 90 दिन की अवधि के भीतर आरोपपत्र दाखिल न होने के आधार पर जमानत दिए जाने की मांग की थी। नवलखा ने 34 दिन हाउस अरेस्ट में रखे जाने को भी हिरासत की अवधि में जोड़ते हुए 90 दिन की अवधि के भीतर आरोपपत्र दाखिल न होने को जमानत का आधार बनाया था।
कोर्ट ने आंकड़ों के आधार पर जेलों में कैदियों की भीड़ और जेलों के रखरखाव पर आने वाले सरकार के खर्च का भी जिक्र किया है। अदालत ने कहा कि सिर्फ 2019 में जेलों में कैदियों की संख्या में 18,86,092 की बढ़ोतरी हो गई।