SC/ST ACT में अनिवार्य मृत्युदंड की सजा खत्म करने की मांग, सुप्रीम कोर्ट का केंद्र को नोटिस
एससी एसटी कानून में अनिवार्य रूप से फांसी की सजा देने के क़ानूनी प्रावधान को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है।
नई दिल्ली, माला दीक्षित। एससी एसटी कानून में अनिवार्य रूप से फांसी की सजा देने के क़ानूनी प्रावधान को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल हुई है, जिसमें एससी एसटी कानून के उस प्रावधान को रद किये जाने की मांग की गई है। इसमें अनिवार्य रूप से मृत्युदंड दिये जाने का प्रावधान है। वकील ऋषि मल्होत्रा ने याचिका दाखिल कर सजा देने में अदालत का विवेकाधिकार न होने को असंवैधानिक बताते हुए एससी एसटी कानून की धारा 3(2)(1) रद करने की मांग की है। यह धारा कहती है कि अगर कोई व्यक्ति जो एससी एसटी वर्ग का नहीं है किसी एससी एसटी वर्ग के खिलाफ जानबूझ कर झूठे साक्ष्य देता है और उसके कारण उस व्यक्ति को फांसी हो जाती है तो झूठे साक्ष्य देने वाले व्यक्ति को मृत्युदंड दिया जाएगा।
याचिकाकर्ता का कहना है कि सजा के मुद्दे पर अदालत को परिस्थितियों के मुताबिक फैसला लेने का विवेकाधिकार न देना असंवैधानिक है। सुप्रीम कोर्ट इस याचिका पर 12 अप्रैल को सुनवाई कर सकता है। याचिका में आइपीसी की धारा 194 से तुलना की गई है जिसमें ठीक वैसे ही अपराध के लिए अनिवार्य मृत्युदंड का प्रावधान नहीं है बल्कि अदालत को मृत्युदंड और कैद में चुनाव करने का विवेकाधिकार दिया गया है। दोनों कानूनों में सिर्फ अंतर इतना है कि एससी एसटी कानून में झूठे साक्ष्य देने वाला सामान्य वर्ग का और जिसके खिलाफ साक्ष्य दिये गए हैं वह एससी एसटी वर्ग का होता है जबकि आइपीसी में दोनों व्यक्ति सामान्य वर्ग के होते हैं। याचिका में अनिवार्य मृत्युदंड का प्रावधान करने वाले अन्य कानूनों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त कर दिये जाने या सरकार द्वारा संशोधित किये जाने का उदाहरण देते हुए इस कानून को रद करने की मांग की है।
मल्होत्रा ने याचिका में अनिवार्य मृत्युदंड का प्रावधान करने वाली आइपीसी की धारा 303 का उदाहरण दिया है जिसमें कहा गया था कि अगर कोई व्यक्ति हत्या के जुर्म में उम्रकैद काट रहा हो और उस दौरान वह फिर हत्या का जुर्म करता है तो उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने 1983 के मिट्ठू बनाम पंजाब राज्य के मामले में धारा 303 को असंवैधानिक घोषित करते हुए रद कर दिया था। उस फैसले में कोर्ट ने कहा था कि सजा देने की प्रक्रिया में अगर विधायिका अदालत का परिस्थितियों के मुताबिक फांसी की सजा न देने का विवेकाधिकार खत्म करती है और कोर्ट को बाध्य करती है कि वह परिस्थितियों से आंख मूंद ले और सिर्फ मृत्युदंड दे, तो ऐसा कानून असंवैधानिक है।
कहा गया है कि इसी तरह कोर्ट ने अनिवार्य रूप से मृत्युदंड देने वाले शस्त्र अधिनियम की धारा 27(3) को 2012 में पंजाब राज्य बनाम दलबीर सिंह के मामले में असंवैधानिक ठहराते हुए निरस्त कर दिया था। ये धारा कहती थी कि अगर कोई प्रतिबंधित हथियार रखता है और उससे किसी की हत्या कर देता है तो उसे मृत्युदंड होगा। कोर्ट ने इसे रद करते हुए कहा था कि यह संविधान की मूल भावना और कोर्ट द्वारा विकसित की गई व्यवस्था के खिलाफ है। याचिका में कहा गया है कि इसी तरह एनडीपीएस एक्ट की धारा 31ए में सरकार ने 2014 में संशोधन करके अनिवार्य रूप से मृत्युदंड देने का प्रावधान खत्म किया था और मृत्युदंड को वैकल्पिक बनाया था। याचिकाकर्ता का कहना है कि अनिवार्य मृत्युदंड के प्रावधान को बनाए रखने से सीआरपीसी की धारा 235(2) और 354(3) का उल्लंघन होता है जो कहती हैं कि सजा से पहले सजा के मुद्दे पर सुनवाई होगी तथा अदालत सजा देने के कारण दर्ज करेगी।
क्या कहती है धारा
एससी एसटी कानून की धारा 3(2)(1) कहती है कि जो व्यक्ति एससी या एसटी वर्ग का सदस्य नहीं है, वह व्यक्ति अगर किसी एससी एसटी वर्ग के सदस्य के खिलाफ जानबूझकर उस अपराध में झूठा साक्ष्य देता है जिसमें मृत्युदंड की सजा हो सकती हो। और उस झूठे साक्ष्य से अगर उस निर्दोष एससी एसटी वर्ग के व्यक्ति को दोषी ठहराकर फांसी पर चढ़ा दिया जाता है तो, झूठे साक्ष्य देने वाले व्यक्ति को भी मृत्युदंड की सजा दी जाएगी, जबकि आइपीसी की धारा 194 भी ठीक ऐसे ही अपराध और सजा की बात करती है। हालांकि, उसमें अपराध एससी एसटी के खिलाफ नहीं होता, इस कानून में अनिवार्य रूप से मृत्युदंड देने का प्रावधान नहीं है कोर्ट को फांसी या कैद की सजा तय करने का विवेकाधिकार दिया गया है।
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