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अपील में देरी पर सुप्रीम कोर्ट ने यूपी पर लगाया 15 हजार का जुर्माना, कहा- चेतावनी का नहीं है असर

जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने उत्तर प्रदेश सरकार के प्रति नाखुशी जताते हुए कहा कि विलंब के लिए जिम्मेदार कर्मियों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं की गई और उन्हें बचाने के लिए न्यायिक समय बर्बाद करते हुए ये अपीलें दायर की जाती हैं।

By Dhyanendra SinghEdited By: Published: Mon, 30 Nov 2020 06:48 PM (IST)Updated: Mon, 30 Nov 2020 06:48 PM (IST)
अपील में देरी पर सुप्रीम कोर्ट ने यूपी पर लगाया 15 हजार का जुर्माना, कहा- चेतावनी का नहीं है असर
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकारों को समय-समय पर जारी चेतावनी का कोई असर नहीं

नई दिल्ली, एएनआइ। एक मामले में 1,006 दिनों की देरी से अपील दायर करने पर सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार पर 15 हजार रुपये जुर्माना लगाया है। शीर्ष अदालत ने कहा कि राज्य सरकारों को समय-समय पर जारी चेतावनी का उन पर कोई असर नहीं हुआ है।

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जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने उत्तर प्रदेश सरकार के प्रति नाखुशी जताते हुए कहा कि विलंब के लिए जिम्मेदार कर्मियों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं की गई और उन्हें बचाने के लिए न्यायिक समय बर्बाद करते हुए ये अपीलें दायर की जाती हैं।

समयसीमा में बदलाव के लिए कानून में संशोधन के लिए विधायिका को कर सकते हैं राजी

जुर्माना लगाकर अपील को खारिज करते हुए पीठ ने कहा कि अदालत ऐसे मामलों से निपट चुकी है और राज्य सरकारों को चेतावनी दे चुकी है कि सिर्फ खारिज किए जाने का प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए इस अदालत में न आएं, जिन्हें हम 'प्रमाणपत्र मामले' कहते हैं। पीठ ने कहा कि अगर याचिकाकर्ता को लगता है कि विधायिका द्वारा निर्धारित समयसीमा पर्याप्त नहीं है, तो वे समयसीमा में बदलाव के लिए कानून में संशोधन के लिए विधायिका को राजी कर सकते हैं। जब तक यह कानून है, तब तक यह जैसा है वैसा ही लागू होगा।

प्रेमचंद्र नामक व्यक्ति के पक्ष में सुनाए गए फैसले के खिलाफ दायर की गई थी याचिका

दरअसल, यह अपील श्रम अदालत द्वारा पांच नवंबर, 2009 को प्रेमचंद्र नामक व्यक्ति के पक्ष में सुनाए गए फैसले के खिलाफ दायर की गई थी। प्रेमचंद्र को एक अगस्त, 1985 को बेलदार या चौकीदार के रूप में भर्ती किया गया था और दावे के मुताबिक उसने 30 अप्रैल, 1987 तक लगातार काम किया था। उसने औद्योगिक विवाद का मुद्दा उठाया था क्योंकि कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बगैर हुए उसे हटा दिया गया था। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2017 में ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था।


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