समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्णय दिया है वह परिवार व्यवस्था को नष्ट करेगा
सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिक संबंधों को वैधानिक स्वीकृति प्रदान करने से निजता के अधिकार को मजबूती तो मिली है लेकिन सामाजिक तौर पर इसका दूरगामी प्रभाव दिख सकता है
शास्त्री कोसलेंद्रदास। समलैंगिकता को सुप्रीम कोर्ट ने अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है। भारत में समलैंगिकता को आइपीसी की धारा 377 के तहत अपराध माना जाता था, जिसकी वैधानिकता सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दी। कोर्ट में समलैंगिक मामलों पर सुनवाई की शुरुआत 2001 में तब हुई जब एक गैर-सरकारी संगठन ‘नाज फाउंडेशन’ ने इस संबंध में याचिका दायर की थी। कोर्ट ने 2013 में समलैंगिक व्यक्तियों द्वारा परस्पर सहमति से यौन संबंध स्थापित करने को दंडनीय अपराध बनाने वाली धारा 377 को असंवैधानिक करार दिया। इस धारा के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करना दंडनीय अपराध है, जिसके तहत दोषी व्यक्ति को उम्र कैद या निश्चित अवधि के लिए सजा होती है और जुर्माना देना पड़ता है। बाद में नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने 24 अगस्त, 2017 के फैसले में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना था। तब कोर्ट ने कहा था कि समलैंगिक लोगों को निजता के अधिकार से मात्र इस वजह से वंचित नहीं किया जा सकता कि उनका यौन रुझान गैर-पारंपरिक है।
भारतीय समझ की परिभाषा
जो अप्राकृतिक है वह अपराध है। पर यूरोप की फोटोकॉपी करने में हम इतने मशगूल हो गए हैं कि इसे अपराध मानने की बजाय सही साबित करना शुरू कर दिया है। जरूरी नहीं कि अनैतिक आचरण अपराध हो लेकिन जो अप्राकृतिक है, वह निश्चित तौर पर अपराध है, पाप है। पाप और अपराध की भारतीय समझ से यही परिभाषा है जिससे कानून बनाने वाले संस्थान को कोई मतलब नहीं है। कभी-कभार लगता है कि भारत का समाज पागलखाने में परिवर्तित होता जा रहा है। वह अप्राकृतिक को अपराध नहीं मान रहा। स्त्री को प्रेम के लिए आकर्षित करना अपराध बन गया है, जबकि पुरुष का पुरुष से संबंध बनाना अपराध नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्णय दिया है वह परिवार व्यवस्था को नष्ट करेगा।
इस फैसले के बाद लगता है कि अब वे दिन दूर नहीं जब मां-बाप अपने बेटे से कहेंगे कि तुम अपने जीवन के लिए ‘औरत’ खोजना। अपनी बेटी को भी वे समझा सकते हैं कि उन्हें अपनी बेटी के लिए ‘मर्द’ चाहिए! यह हवाई कल्पना नहीं बल्कि दुनिया में घट रहा सच है, जो अब भारत में भी दिखेगा। इससे पहले अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट भी साल 2015 में समलैंगिक संबंधों को जायज ठहरा चुका है। तब इस अदालती फैसले पर धार्मिक मान्यताओं के बीच बहस छिड़ी थी। समान लिंग वाले आपसी रिश्तों को महत्व दिया जाए या नहीं, इस पर विमर्श शुरू हुआ। समलैंगिकता के पैरोकारों का तर्क है कि किसी स्त्री या पुरुष को किससे संबंध बनाना है, यह तय करना उनका व्यक्तिगत निर्णय है। उधर सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं से जुड़े लोगों का तर्क है कि ईश्वर के बनाए संसार में जो आदर्श चले आ रहे हैं, उनसे छेड़खानी करना प्रथाओं की बर्बादी और सामाजिक तानेबाने को रसातल में ले जाना है।
समलैंगिकता संयम के विरोध से उपजती है। सरल और सहज सुख प्राप्ति का सबसे आसान उपाय सेक्स है। सुख पाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। व्यापार हो या नौकरी सबमें परिश्रम करना पड़ता है पर सेक्स प्रकृति का दिया ऐसा वरदान है कि इससे स्त्री-पुरुष दोनों को आसानी से ‘सुख’ मिलता है। लेकिन सेक्स की मर्यादा है, सीमा है। उस पर धार्मिक तथा सामाजिक स्तर पर लगाम है। यौन चिकित्सकों का दावा है कि यदि संयम न हो तो सेक्स व्यक्ति की मृत्यु का कारण बन जाता है।
संयम से मिलता है स्थाई आनंद
‘कामसूत्र’ के रचयिता महर्षि वात्स्यायन ने संभोग के आनंद को ‘आभिमानिक’ माना है। आभिमानिक अस्थाई आकर्षण को कहते हैं। इस नाते हकीकत में वह आनंद शाश्वत नहीं बल्कि अल्पकालिक है। यह बार-बार पैदा होने वाला है। इसी नाते दार्शनिक परंपराओं ने सेक्स को महत्व न देकर संयम की वकालत की है। वैदिक और अवैदिक दोनों दर्शन परंपराओं ने भोग की बजाय योग को कल्याण का रास्ता बताया। संयम मनुष्य को पुरुषार्थी और चरित्रवान बनाता है तथा स्थाई आनंद देता है। भारतीय परंपरा संयम पर आधारित है। उसके आराध्य यौन जीवन के प्रति पवित्र चरित्र वाले श्रीराम और माता सीता हैं। ‘रामायण’ पति-पत्नी के आपसी पवित्र रिश्तों का सबसे बड़ा महाकाव्य है, जो जीवन का उच्चादर्श है। साधु-संत संयम के सहारे श्रद्धा-वंदना और आकर्षण के केंद्र हैं। भारतीय परंपरा चार पुरुषार्थो को मानती है, उनमें धर्म और मोक्ष के बीच अर्थ और काम हैं।
काम को सेक्स कहा जा सकता है। वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ में सेक्स के आध्यात्मिक और भौतिक स्वरूपों को तात्विक रूप से प्रकट किया। लेकिन इस बेजोड़ ‘कामशास्त्र’ में समलैंगिक संबंधों का कहीं जिक्र नहीं है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने जीवन में ब्रह्मचर्य को जोड़ा था। ब्रह्मचर्य में कई अपराधों का समाधान गांधी ने खोजा था। बलात्कार और यौनापराध का इलाज ब्रह्मचर्य के पास है। दुखद है कि मौजूदा शिक्षा पद्धति सेक्स के पक्ष में तो खड़ी है पर ब्रह्मचर्य पर मौन है! ‘कठोपनिषद’ के अनुसार भोग इंद्रियों के तेज को क्षीण करता है। मन को भटकाता है, एकाग्रता में बाधा पैदा करता है। इसीलिए छात्रवस्था में ब्रह्मचर्य पर जोर दिया गया है।
सेक्स में दोष नहीं है। यह मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। सेक्स नर्वस सिस्टम को शिथिल बनाता है, मानसिक तथा शारीरिक शांति देता है। पर यदि सेक्स साधना है तो संयम उसका फल है। मैथुन का नियंत्रण संयम से किया जाता है। मैथुन में एक-दूसरे का उपभोग करने की बजाय उपयोग करने पर जोर है। यह पति-पत्नी के बीच मात्र संतान उत्पत्ति के लिए है, उससे बाहर नहीं। नीतिशास्त्र ने संयम को सेक्स के साथ जोड़कर मनुष्य को पशु बनने से रोका। पर ऐसी बातें युवाओं में अब मजाकिया रह गई है। ऐसे में जरूरी है कि भारत ब्रह्मचर्य का वैज्ञानिक विवेचन करे। ब्रह्मचर्य को जीवन शैली का अंग बना इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित करे, जिससे समलैंगिकता का समाधान हो सके, जिसके परिणाम में विश्व योग दिवस की तर्ज पर विश्व ब्रह्मचर्य दिवस भी मनाया जाने लगेगा। ब्रह्मचर्य यौन अपराधों के समाधान में रामबाण सिद्ध होगा।
(लेखक राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय सहायक आचार्य हैं)