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जारी है सामाजिक बहिष्कार का दंश, वंचित वर्गों के प्रति नजरिया बदलने की जरूरत

गांव की परंपरा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति जेल जाता है तो उसे जाति भोज देना पड़ता है। उसका मुंडन कराया जाता है। ऐसा न करने पर समाज व जाति से व्यक्ति का बहिष्कार कर दिया जाता है।

By Neel RajputEdited By: Published: Mon, 29 Nov 2021 11:36 AM (IST)Updated: Mon, 29 Nov 2021 11:36 AM (IST)
जारी है सामाजिक बहिष्कार का दंश, वंचित वर्गों के प्रति नजरिया बदलने की जरूरत
किसी कानून से ज्यादा हमारे समाज को वंचित वर्गों के प्रति अपना संकुचित नजरिया बदलने की जरूरत है

रिजवान अंसारी। आज दुनियाभर में मंगल और चांद पर मानव बस्तियां बसाने के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन हमारा समाज दकियानूसी सोच से बाहर नहीं आ पा रहा है। समय-समय पर वंचित वर्ग के लोगों के उत्पीड़न की घटनाएं बताती हैं कि हमारा समाज अभी कितना पीछे है। ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले की एक हालिया घटना बताती है कि सामाजिक बहिष्कार किस तरह हमारे समाज के लिए नासूर बन गया है। दरअसल साल भर पहले एक व्यक्ति को किसी विवाद में जेल जाना पड़ा था। उसकी रिहाई पर गांव वालों ने उसे जाति भोज आयोजित करने का प्रस्ताव दिया। व्यक्ति के इन्कार से ग्रामीणों ने उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया।

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गांव की परंपरा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति जेल जाता है तो उसे जाति भोज देना पड़ता है। उसका मुंडन कराया जाता है। ऐसा न करने पर समाज व जाति से व्यक्ति का बहिष्कार कर दिया जाता है। दरअसल गांवों में जाति एवं वर्ग के आधार पर भेदभाव की लकीरें अब भी नहीं मिटी हैं। हाशिये पर बैठा समूह आज भी नासूर बन चुकी सामाजिक व्यवस्थाओं का शिकार हो रहा है। गांवों में जाति पंचायतों का काफी प्रभाव रहा है। सामाजिक व पारिवारिक समस्याओं का निपटारा जाति पंचायत द्वारा ही करने की परंपरा रही है, मगर उनमें ताकतवर वर्गों का बोलबाला रहा है। उनके फैसले अतार्किक और पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के बावजूद समाज के पिछड़े तबकों पर बाध्यकारी होते हैं।

नि:संदेह सामाजिक बहिष्कार समाज और राष्ट्र को पिछड़ेपन की ओर धकेलता है। यह राष्ट्रीय शर्मिंदगी का कारण तो है ही, सामाजिक समरसता के लिए भी गंभीर खतरा है। दरअसल यह स्थिति हमारी संकुचित मानसिकता और झूठी शान का ही नतीजा है। हम अपने ही आसपास के लोगों को दोयम दर्जे की जिंदगी गुजारने पर विवश कर रहे हैं और फिर भी खुद को सभ्य और साक्षर नागरिक की श्रेणी में गिनते हैं। इसीलिए कानून से ज्यादा हमारे समाज को दबे-कुचले वर्गों के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है, क्योंकि यह मानसिकता हमारे समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी है।

यही कारण है कि तमाम तरह के कानून भी अप्रभावी साबित हो रहे हैं। लिहाजा हमारे नीति-नियंताओं को कानून बनाने के बजाय सामाजिक बहिष्कार जैसी समस्याओं के मूल कारण निवारण पर बल देना होगा। समझना होगा कि एक न्यूनतम मानवीय गरिमा के साथ जीना हरेक व्यक्ति का अधिकार है। इस अधिकार में उसकी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि रुकावट नहीं बन सकती। संविधान के अनुच्छेद-21 में जीने के अधिकार की गारंटी दी गई है। इसमें निहित है कि नागरिकों को केवल जीवन का ही नहीं, बल्कि गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। आज हमारे समाज को इसी गरिमा की जरूरत है।

(लेखक सामाजिक मामलों के जानकार हैं)


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