कदम छोटे पर असर बड़े
बीते दो साल में मोदी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों में सबसे अहम है उन्हें लेकर सरकार की प्रतिबद्धता और फोकस। इस बात को उद्योग जगत भी स्वीकार करता है।
नई दिल्ली, नितिन प्रधान। आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार के दो साल वैश्विक और आंतरिक चुनौतियों के बीच विकास को रफ्तार देने की कोशिशों के रहे हैैं। वैश्विक मंदी के कारण घटते निर्यात और लगातार सूखे के कारण चरमराती ग्रामीण अर्थव्यस्था के बीच औद्योगिक विकास के रफ्तार पकडऩे की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। लेकिन इन चुनौतियों के बीच भी मोदी सरकार मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया जैसे कार्यक्रमों के साथ-साथ विदेशी निवेश को नई ऊंचाई तक पहुंचाने में सफल रही है। वहीं मुद्रा और जन-धन जैसी योजनाओं से हाशिये पर खड़े लोगों को अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा से जोडऩे का सिलसिला भी शुरू हुआ है।
अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए उठाए जाने वाले कदमों का अब तक मतलब था उद्योगों को राहत, रियायतें और उनके हित में सरकार की नीतियों का निर्माण। यह पहला मौका है जब केंद्र की आर्थिक नीतियों के बीच में देश के गरीब और समाज के निचले तबके से जुड़े लोग बड़े स्तर पर शामिल हुए हैैं। देश में कारोबार करना आसान बनाकर केंद्र ने उद्योगों के लिए बिना किसी रुकावट के आगे बढऩे का मार्ग भी प्रशस्त किया है। यही मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों का सार भी है जिसमें कदम भले ही छोटे दिखते हों, लेकिन उनका असर बेहद बड़ा है।
बीते दो साल में मोदी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों में सबसे अहम है उन्हें लेकर सरकार की प्रतिबद्धता और फोकस। इस बात को उद्योग जगत भी स्वीकार करता है। फिक्की के अध्यक्ष हर्षवर्धन नेवतिया का मानना है, 'मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रमों की सफलता का अगर आज आकलन करने बैठें तो शायद आंकड़ों में हम उसे सफल न मानें, लेकिन इस सरकार ने अब तक इन कार्यक्रमों के लिए जिस तरह का फोकस और प्रतिबद्धता दिखाई है, वह महत्वपूर्ण है।
मैन्यूफैक्चरिंग, निर्यात जैसे क्षेत्रों की धीमी रफ्तार चिंता की वजह जरूर है। लेकिन संप्रग सरकार के वक्त की अर्थव्यवस्था की सुस्ती ने देश में मांग और आपूर्ति की स्थिति को पलट दिया है। इसके साथ-साथ वैश्विक मंदी भी उद्योगों की क्षमता विस्तार में बाधक बनी है। जानकारों का भी मानना है कि मानसून के बाद मांग बढ़ेगी तो मेक इन इंडिया को भी रफ्तार मिलेगी।
सरकार की सकारात्मक नीतियां अर्थव्यवस्था के तमाम मोर्चों को पटरी पर लाती दिख रही हैैं। अलबत्ता दाल, सब्जी जैसे घरेलू उपभोग के खाद्य उत्पादों की कीमतें महंगाई के मोर्चे पर उठे कदमों की सफलता को महसूस करने से रोक रहे हैैं। बड़े और विधायी रास्ते से होने वाले आर्थिक सुधार राज्यसभा के गणित की वजह से उलझे हैैं। इन पर विपक्ष के सहयोग की आवश्यकता है।