छोटे उद्योगों को ज्यादा सुविधाएं देने से बढ़ेंगे रोजगार के अवसर
अगर बड़े उद्योगों से हटकर छोटे और मझोले उद्योगों को ज्यादा सुविधाएं दी जाएं तो रोजगार के अवसर ज्यादा तेजी से पैदा होंगे।
बीते दिनों अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की ओर से अनुमान व्यक्त किया था कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर, जो की 2017 में चीनी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 6.9 प्रतिशत से .2 प्रतिशत काम 6.7 प्रतिशत थी अगले दो वर्षो 2018 और 2019 में चीन की अर्थव्यवस्था के अनुमानित वृद्धि दर 6.6 और 6.4 से क्रमश: .8 और 1.4 प्रतिशत ज्यादा 7.4 और 7.8 रहेगी। इससे पहले एशियन डेवलपमेंट बैंक ने भी 2018 में भारत की अर्थव्यवस्था के 7.3 प्रतिशत की दर से बढ़ने की उम्मीद जताई थी तथा इस अर्धवार्षिकी रिपोर्ट के जारी होने के पहले विश्व बैंक ने भी अपने दक्षिण एशिया इकोनॉमिक फोकस में यह माना था कि जहां 2018 में विकास दर 7.3 प्रतिशत पर पहुंचने की उम्मीद है वहीं बाद में निजी निवेश और निजी खपत में निरंतर प्रगति होने की स्थिति में यह दर आगे भी बनी रहेगी, ऐसा भी कहा जा सकता है। अगर हम इन रिपोर्ट का लब्बोलुआब देखें तो भारतीय अर्थव्यवस्था वृद्धि दर के मामले में अपने बुरे दौर से बाहर आ चुकी है।
मगर इसका कतई यह मतलब नहीं है कि सरकार की आर्थिक मोर्चे पर चुनौतियां खत्म हो गई हैं, क्योंकि जैसा कि विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है, भारत में हर महीने 13 लाख नए लोग कार्य बल में जुड़ते हैं। अगर सिर्फ वर्तमान के रोजगार दर को भी बनाए रखना है तो इसके लिए भी सालाना 81 लाख नए रोजगार पैदा करने होंगे। इतने अधिक संख्या में रोजगार पैदा करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को 18 प्रतिशत प्रतिवर्ष के रफ्तार से बढ़ना होगा, जो कि नामुमकिन प्रतीत होता है। फिर एक दूसरी समस्या जो विश्व बैंक की रिपोर्ट में रेखांकित की गई है, वह है हमारा निर्यात, जो कि रोजगार सृजन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, उस रफ्तार से नहीं बढ़ा जिस रफ्तार से बढ़ने की उम्मीद विश्व बैंक को थी। यानी वृद्धि दर में तेजी के इस सफल दौर में भी बेरोजगारी न सिर्फ एक चुनौती के तौर पर बनी रहेगी, बल्कि अगर जरूरी कदम नहीं उठाए गए तो यह आगे अन्य समस्याएं भी पैदा कर सकती है। यह आम चुनाव के लिहाज से मोदी सरकार के लिए बिल्कुल ठीक नहीं होगा, क्योंकि युवा, जिन्होंने 2014 में मोदी सरकार को लाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, सिर्फ सकल घरेलू उत्पाद के वृद्धि दर को देख कर नहीं, बल्कि अपने रोजगार वृद्धि दर को भी देख कर वोट करेंगे।
रोजगार वृद्धि की वर्तमान स्थिति अगर बानी रहती है तो यह देश के लिए भी अच्छी नहीं होगी, क्योंकि जैसा कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष प्रमुख क्रिस्टीना लेगार्ड भी मानती हैं कि बढ़ती बेरोजगारी न सिर्फगरीबी, बल्कि युवाओं में कट्टरता भी बढ़ाती है। और एक ऐसे समय में जब विभिन्नताओं में एकता वाला यह देश आंतरिक और बाह्य, दोनों मोर्चे पर उन शत्रुओं से जूझ रहा है जो युवाओं को भड़काने और उनके असंतोष का फायदा उठाने में लगे हों, कतई ऐसा नहीं चाहेगा। ऐसा नहीं है कि रोजगार का सृजन नहीं हो सकता है या इसको लेकर सरकार के भीतर या उनके शुभचिंतकों में चिंता नहीं है। यहां ध्यान रहे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारधारा से प्रेरित ऐसे कई संगठन हैं, जो कि आर्थिक और श्रमिकों के मसलों पर काम करते रहे हैं और सबसे खास बात यह है कि संघ के आर्थिक चिंतन में रोजगार और अंत्योदय सकल घरेलू उत्पाद से ज्यादा महत्वपूर्ण रहे हैं। संघ यह भी मानता रहा है कि अगर बढ़ती हुई आर्थिक समृद्धि का समुचित बंटवारा नहीं हुआ तो वह समाज में रोष पैदा करेगी न कि परस्पर भाईचारा, जो किसी भी देश की नींव होती है।
ऐसा भी नहीं है कि सरकार इन परिस्थितियों को नहीं समझ रही है या इनसे निपटने के लिए प्रयासरत नहीं है, मगर एक महत्वपूर्ण बात जो काबिलेगौर है-अब वह जमाना नहीं रहा जब नौकरियां देने का काम सरकार खुद किया करती थी या कर सकती थी। आज के हालात में नौकरियां निजी क्षेत्र में पैदा होती हैं जिन पर सरकार की नीतियां प्रभाव तो डाल सकती हैं, मगर उन्हें संचालित नहीं कर सकती हैं। रोजगार सृजन और गांव, किसान तथा खेती के लिए अगर बजट में किए गए प्रावधानों को देखें तो वे कहीं न कहीं ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण में मददगार होंगे। अच्छे रोजगार (डिसेंट जॉब) की दृष्टि से देखें तो नोटबंदी और जीएसटी के कारण बड़ी संख्या में असंगठित क्षेत्र का संगठित क्षेत्र में परिवर्तन हुआ है जिसके फलस्वरूप संगठित क्षेत्र में रोजगार बढ़ते दिखाई पड़ रहे है, जो कि एक अच्छी स्थिति है, लेकिन जैसा कि कई अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इसका कतई यह मतलब नहीं निकाल लेना चाहिए कि नौकरियां बढ़ी हैं।
रोजगार संबंधित आंकड़ों को लेकर जो भी बहस चल रही हो, एक बात जिस पर सभी एक मत हैं, वह है कि अगर बड़े उद्योगों से हटकर छोटे और मझोले उद्योगों को ज्यादा सुविधाएं दी जाएं तो रोजगार के अवसर ज्यादा तेजी से पैदा होते हैं। अभी हाल ही में इन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की रिपोर्ट के आने के बाद सरकार ने छोटे और मझोले उद्योगों के ऋण को लेकर और सहूलियतें देने, विशेष तौर से एनपीए यानी फंसे हुए कर्ज को लेकर मानदंडों में बदलाव, के लिए जो प्रयास किए हैं वह एक स्वागतयोग्य कदम है, क्योंकि लघु उद्योगों को कर्ज का नहीं मिलना उनके विकास के लिए एक बड़ी समस्या है।1और जब वैचारिक स्तर पर कोई समस्या और चुनावों में ज्यादा देरी, दोनों ही नहीं हैं तो यह सही वक्त है कि आर्थिक वृद्धि दर से कहीं ज्यादा जोर रोजगार वृद्धि दर को बढ़ाने पर दिया जाय। कोशिश यह होनी चाहिए कि निवेश का एक माहौल ऐसा बने कि बड़े उद्योगपतियों से कहीं ज्यादा छोटे और मझोले उद्यमी निवेश को आगे आएं और उनकी उन्नति हो, क्योंकि ज्यादा लोगों को रोजगार तो वही देंगे।