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कैदियों की सजा माफी के राज्यों के अधिकार पर सात जजों की पीठ करेगी विचार

जस्टिस यूयू ललित जस्टिस एमएम शांतनागौदर और जस्टिस विनीत सरन की पीठ ने मरुराम मामले में 1978 में पांच सदस्यीय पीठ द्वारा सुनाए गए फैसला का हवाला दिया।

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Sat, 18 Jul 2020 09:51 AM (IST)Updated: Sat, 18 Jul 2020 09:51 AM (IST)
कैदियों की सजा माफी के राज्यों के अधिकार पर सात जजों की पीठ करेगी विचार
कैदियों की सजा माफी के राज्यों के अधिकार पर सात जजों की पीठ करेगी विचार

नई दिल्ली, प्रेट्र। राज्यपाल द्वारा हर मामले के तथ्यों और सामग्रियों की पड़ताल किए बिना और संविधान के तहत एक सामान्य नीति बनाकर क्या राज्य दोषियों को सजा माफी का लाभ दे सकते हैं, इस मसले को सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को सात जजों की पीठ को संदर्भित कर दिया। इस मामले ने शीर्ष अदालत का ध्यान तब आकर्षित किया जब हत्या के एक दोषी प्यारे लाल की जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान बताया गया कि उसे राज्य सरकार की नीति के मुताबिक हरियाणा के राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद-161 के तहत दी गई सजा माफी की वजह से जेल से रिहा कर दिया गया है।

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संविधान के अनुच्छेद-161 के तहत मिले अधिकारों से राज्य देते हैं कैदियों को सजा माफी

हरियाणा सरकार ने पिछले साल स्वाधीनता दिवस के मौके पर संविधान के अनुच्छेद-161 के तहत मिली शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए कुछ वर्ग के कैदियों को विशेष सजा माफी देने का फैसला किया था। मसलन, हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा पाए 75 वर्ष से अधिक उम्र के ऐसे पुरुष कैदियों को सजा माफी दी गई जिन्होंने सजा के आठ साल पूरे कर लिए हों। हालांकि सीआरपीसी की धारा-433ए के तहत उम्रकैद की सजा पाए व्यक्ति को 14 साल जेल में बिताए बिना सजा माफी नहीं दी जा सकती।

सीआरपीसी के मुताबिक, 14 साल से पहले रिहा नहीं हो सकते उम्रकैद की सजा पाए कैदी

जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस एमएम शांतनागौदर और जस्टिस विनीत सरन की पीठ ने मरुराम मामले में 1978 में पांच सदस्यीय पीठ द्वारा सुनाए गए फैसला का हवाला दिया। पीठ ने कहा कि जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर ने बहुमत का फैसला लिखते हुए कहा था कि सजा माफी देने के लिए राज्य को हर मामले में अलग आदेश जारी करने की जरूरत नहीं है, लेकिन सामान्य आदेश इतना स्पष्ट होना चाहिए कि मामलों के समूह की पहचान हो जाए।

पीठ ने कहा कि ऐसे निष्कर्ष की बुनियाद पर चर्चा हो रही थी. लेकिन उसी समय 18 जुलाई, 1978 को संविधान के अनुच्छेद-161 के तहत मिले अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए एक आदेश जारी कर समान रूप से दोषियों को सजा माफी दे दी गई जिसमें अदालत की मंजूरी नहीं ली गई। 1978 के फैसले में विसंगति का जिक्र करते हुए पीठ ने राज्य की ऐसी कवायद की उपयुक्तता और औचित्य की पड़ताल के लिए मामला बड़ी पीठ को संदर्भित कर दिया।

कई चीजों की अनदेखी

पीठ ने कहा कि राज्य सरकार ने भी माना है कि राज्यपाल के समक्ष किसी भी मामले से संबंधित तथ्य या सामग्री नहीं रखी गई थी और नीति के मुताबिक ही सजा माफी दी गई। शीर्ष अदालत ने कहा, 'लिहाजा, राज्यपाल के पास ऐसे मसलों पर गौर करने का मौका नहीं था, मसलन अपराध की गंभीरता, अपराध को किस तरह अंजाम दिया गया या अपराध का समाज पर असर या अपराध के लिए दोषी ठहराते हुए अथवा उसका दोष बरकरार रखते हुए संबंधित अदालतों ने उस मामले को कैसे देखा और विचार किया।'

बड़ी पीठ के विचार के लिए सवाल

पीठ ने बड़ी पीठ के विचार के लिए जो सवाल तय किए हैं उसके मुताबिक, 'क्या संविधान के अनुच्छेद-161 के तहत अधिकार का इस्तेमाल करके नीति बनाई जा सकती है जिसके तहत कुछ मानक या तत्व तय किए गए हैं, क्या उनके पूरा होने के बाद राज्यपाल के समक्ष किसी भी मामले से संबंधित तथ्यों या सामग्रियों को रखे बिना कार्यपालिका सजा माफी दे सकती है और क्या ऐसी कवायद सीआरपीसी की धारा-433ए को नजरअंदाज कर सकती है।'


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