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बिना किसी लोभ और लालच के करते रहे देश की सेवा, ऐसे थे राजगोपालाचार्य, आज है जन्मदिन

वो भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान “भारत रत्न” के प्रथम हकदार बने। उन्होंने भारत के आखिरी गर्वनर जनरल राजगोपालाचार्य के तौर पर देश के स्वतंत्रता संग्राम में अहम रोल निभाया है।

By Vinay TiwariEdited By: Published: Mon, 09 Dec 2019 10:30 PM (IST)Updated: Mon, 09 Dec 2019 10:30 PM (IST)
बिना किसी लोभ और लालच के करते रहे देश की सेवा, ऐसे थे राजगोपालाचार्य, आज है जन्मदिन
बिना किसी लोभ और लालच के करते रहे देश की सेवा, ऐसे थे राजगोपालाचार्य, आज है जन्मदिन

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। एक सच्चा राजनेता वही होता है जो देश की सेवा बिना किसी लोभ और लालच के करता है। ना तो उसको किसी पद की चाह होती है ना ही किसी पुरस्कार की। ऐसे ही राजनेता थे चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य। सी राजगोपालाचार्य ने एक आदर्श नेता का उदाहरण प्रस्तुत किया जिन्होंने अपने देश की सेवा करते हुए किसी चीज की चाह नहीं रखी। 

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नरम और गरम तेवर वालों से मिली आजादी 

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम दुनिया के उन गिनी चुनी लड़ाइयों में से है जहां नायकों ने गरम और नरम दोनों तेवरों से अपनी आजादी को हासिल किया। इस लड़ाई में ऐसे कई नायक हुए जिन्होंने पर्दे के पीछे से चुपचाप कार्य किया और देश की सेवा की। ऐसे नेताओं ने शोर-शराबे से दूर रहकर अपना काम किया। ऐसे ही एक महान पुरुष थे चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य जिन्हें प्यार से लोग राजाजी कहकर बुलाते थे। वो भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान “भारत रत्न” के प्रथम हकदार बने। उन्होंने भारत के आखिरी गर्वनर जनरल राजगोपालाचार्य के तौर पर देश के स्वतंत्रता संग्राम में अहम रोल निभाया है।

जीवन परिचय

चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य का जन्म 10 दिसंबर, 1878 को मद्रास के थोराप्पली गांव के मुंसिफ चक्रवती वेंकटरैया आयंगर के घर हुआ था। बचपन में वह बहुत कमजोर थे, पांच साल की उम्र में उनके माता पिता ने उन्हें होसुर सरकारी स्कूल में दाखिल करवा दिया। मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने 1884 में सेंट्रल कॉलेज, बैंगलोर से ग्रेजुएशन पूरी की। इसके बाद मद्रास के विख्यात प्रेसिडेंसी कॉलेज से उन्होंने लॉ की पढ़ाई की।

परिवारिक जीवन

लॉ की पढ़ाई पूरी करते ही 1897 में राजगोपालाचार्य ने अलामेलू मंगम्मा से शादी की। जिस समय उन्होंने लॉ की पढ़ाई पूरी की उस समय किसी भी नए वकील को अपने से वरिष्ठ वकील के साथ कुछ समय काम करना पड़ता था, पर राजाजी (उन्हें यह नाम महात्मा गांधी ने दिया था) ने यह परंपरा तोड़कर अकेले ही मुकदमे लड़ने शुरू किए। सभी पुराने वकीलों की आशा के विपरीत उनकी वकालत न केवल चली, वरन् चमकी। देशसेवा की भावना से वे 1904 में कांग्रेस में सम्मिलित हुए।

व्यक्तित्व

उनकी दिनचर्या संन्यासी की दिनचर्या के समान थी। नित्य प्रात: नियत समय पर उठना, पूजा-पाठ तथा आसन-प्राणायाम आदि करना और फिर लिखने-पढ़ने बैठ जाना उनकी आदत में शुमार था। इसीलिए 94 वर्ष की लंबी आयु उन्हें मिली और वे सदैव शारीरिक तथा बौद्धिक दृष्टि से स्वस्थ रहे।

राजनैतिक कॅरियर

चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य ने राजनीतिक समस्याओं के अतिरिक्त धार्मिक तथा सांस्कृतिक विषयों पर भी कलम चलाई। गीता, रामायण और महाभारत के अनुवाद उन्होंने अपने ढंग से किए। मौलिक कहानियों के सृजन में वे सिद्धहस्त थे। मोपासां और खलील जिब्रान की तरह उन्होंने जीवन के गहन से गहन तत्व पर बड़ी सहज-सरल भाषा में अपनी अभिव्यक्ति दी।

साहित्य अकादमी ने उन्हें उनकी पुस्तक चक्रवर्ती थिरुमगम् पर सम्मानित किया। उन्होंने कुछ दिनों तक महात्मा गांधी के यंग इंडिया का संपादन कर इस क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा प्रदर्शित की थी, वे शराब की बिक्री और लाटरी पर प्रतिबंध लगाने के प्रबल पक्षधर थे। शराब से होने वाली आय की कमी पूरी करने के लिए उनके सुझाव पर सबसे पहले मद्रास में बिक्री कर लगाया गया था। 1946 में जब नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बनी तब उन्हें उद्योग तथा वाणिज्य मंत्री बनाया गया। बाद में शिक्षा व वित्त मंत्रालय भी उन्हें दे दिया गया।

स्वराज्य मिला तो बने पहले गवर्नर जनरल

स्वराज्य मिलने पर उन्हें भारत का प्रथम गवर्नर जनरल मनोनीत किया गया। इस पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद जब सरदार पटेल का निधन हो गया तो वह गृहमंत्री बने। लेकिन आजादी के बाद बदले हुए राजनैतिक परिवेश में उन्होंने कांग्रेस का साथ छोड़ एक अलग पार्टी बनाना ही सही समझा और साल 1959 मॆं उन्होंने “स्वतंत्रता पार्टी”का गठन किया।

इस पार्टी ने नेहरू की विचारधारा का विरोध किया हालांकि इस पार्टी को 1962 के लोकसभा चुनाव में खास सफलता नहीं मिली पर फिर भी इस पार्टी ने कांग्रेस के अंदर खलबली पैदा कर दी थी। 25 दिसंबर, 1972 को 92 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया। साल 1954 में जब भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान देने की शुरूआत हुई तो वह इस पुरस्कार के पहले हकदार बने।  


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