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Save Earth: रंग लाएगी धरती बचाने की मुहिम, पेरिस समझौते से आगे बढ़ने की आस

Save Earth मौसम की बदलती चाल पूरी दुनिया पर ऐसी कयामत बरपा रही है कि हर कोई हैरान-परेशान है। इससे बचने का एक ही रास्ता अब बचा है। ऐसा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सजर्न में कटौती करके किया जा सकता है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Wed, 27 Oct 2021 09:52 AM (IST)Updated: Wed, 27 Oct 2021 09:52 AM (IST)
Save Earth: रंग लाएगी धरती बचाने की मुहिम, पेरिस समझौते से आगे बढ़ने की आस
पृथ्वी का कोई विकल्प नहीं, इसलिए ऐसा कोई काम न करें जिससे इसे और इसके पर्यावरण को नुकसान पहुंचे। प्रतीकात्मक

अभिषेक कुमार सिंह। Save Earth संयुक्त राष्ट्र का जलवायु परिवर्तन सम्मेलन काप (कांफ्रेंस आफ पार्टीज)-26 ब्रिटेन के शहर ग्लासगो में होने जा रहा है। माना जा रहा है कि 31 अक्टूबर से 12 नवंबर तक चलने वाले इस जलवायु महाकुंभ में पेरिस समझौते के अधूरे प्रविधानों को तार्किक अंजाम तक पहुंचाने की बात होगी, ताकि धरती बचाने की मुहिम सिरे चढ़ सके। इसका आयोजन पिछले वर्ष होना था, लेकिन कोरोना के प्रकोप के चलते इसे टाल दिया गया था। इसमें संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देश भाग लेते हैं। हाल में हमारे देश में केरल से लेकर उत्तराखंड तक लौटते मानसून ने जिस तरह की तबाही के दर्शन कराए हैं, उससे यह अंदाजा हो गया है कि प्रकृति के साथ कोई गंभीर छेड़छाड़ हुई है। इसी साल पूरी दुनिया ने देखा है कि अमेरिका, कनाडा जैसे ठंडे मुल्कों में क्या हुआ।

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अमेरिका में वाशिंगटन और आरेगन तो कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया में तापमान ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंच गया। ब्रिटिश कोलंबिया के लिटन गांव में तापमान करीब 49.6 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। इससे करीब 150 लोगों की मौत हो गई। कनाडा के इन इलाकों के निवासियों को इतनी गर्मी का कभी सामना नहीं करना पड़ा था। यही हाल अमेरिका के पश्चिमी हिस्से में वाशिंगटन और आरेगन जैसे इलाकों का दिखा। वहां आर्कटिक और कैलिफोर्निया से आई गर्म हवाओं ने हीटवेव यानी लू पैदा कर दीं। इसके अलावा रूस, जर्मनी, इटली, फिनलैंड और यहां तक कि सबसे ठंडे इलाकों में से एक माने जाने वाले साइबेरिया तक में लू चलने के समाचार मिले। कहा जा सकता है कि हवाएं अपना रुख बदल रही हैं। पूरी दुनिया पर मौसम की बदलती चाल ऐसी कयामत बरपा रही है कि हर कोई हैरान-परेशान है। ऐसा लग रहा है मानो पृथ्वी पर कोई प्राकृतिक या मौसमी आपातकाल लग गया है और उससे बचने का कोई रास्ता अब नहीं बचा है।

क्लाइमेट इमरजेंसी : क्लाइमेट इमरजेंसी या जलवायु आपातकाल की बात कोई कपोल-कल्पना नहीं है। आज से दो साल पहले नवंबर, 2019 में विज्ञान के एक अंतरराष्ट्रीय जर्नल-बायोसाइंस द्वारा भारत समेत दुनिया के 153 देशों के 11,258 विज्ञानियों के बीच एक शोध अध्ययन कराया गया था। उसमें बताया गया था कि पिछले 40 वर्षो में दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों के अबाध उत्सर्जन और आबादी बढ़ने के साथ-साथ पृथ्वी के संसाधनों के अतिशय दोहन, जंगलों के कटने की रफ्तार बढ़ने, ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने और मौसम के पैटर्न में बदलाव से हालात क्लाइमेट इमरजेंसी वाले हो गए हैं। अगर जल्द ही जलवायु परिवर्तन से निपटने की कोई ठोस कार्ययोजना नहीं बनाई गई तो इंसान के विलुप्त होने तक खतरा पैदा हो सकता है। हालांकि इससे पहले ब्रिटेन और आयरलैंड ने अपने यहां जलवायु आपातकाल घोषित कर दिया था। ब्रिटेन दुनिया का ऐसा पहला देश है, जिसने एक मई, 2019 को सांकेतिक तौर पर अपने यहां जलवायु आपातकाल घोषित किया था। पड़ोसी आयरलैंड ने उसका अनुसरण किया। 10 मई, 2019 को आयरलैंड की संसद ने जलवायु आपातकाल घोषित किया था। सवाल है कि दुनिया में क्लाइमेट इमरजेंसी की नौबत क्यों आई है?

हमें नहीं धरती की चिंता : इसके पीछे कुछ कारण तो बिल्कुल साफ हैं। जैसे हर किस्म का प्रदूषण फैलाना और दूसरे जीवों की फिक्र छोड़कर सिर्फ अपने विकास के लिए पृथ्वी के संसाधनों का बेतहाशा दोहन करना। प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जैसी चीजें एक समस्या हैं, पर ये असल में इंसान की उस प्रवृत्ति की देन हैं, जिसमें उसने इस जीवनदायिनी धरती से सिर्फ लेना सीखा है, लौटाना नहीं। यही वजह है कि पृथ्वी की स्थिति दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है। हम भले ही विश्व पर्यावरण दिवस और पृथ्वी दिवस जैसे दिखाऊ आयोजन कर लें, पर सच्चाई यह है कि इसकी परवाह कोई नहीं कर रहा है कि पृथ्वी का इतने तरीकों से और इतनी अधिक बेदर्दी से दोहन हो रहा है कि धरती हर पल कराह रही है।

हर साल पर्यावरण संबंधी जो रिपोर्ट आती हैं, उनसे पता चलता है कि पृथ्वी के वायुमंडल में पहले से ज्यादा जहरीली ग्रीनहाउस गैसें और गर्मी घुल गई हैं। इनके चलते ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगे हैं। इन वजहों से पृथ्वी के जीवन में रंग घोलने वाली तितलियों, मधुमक्खियों, चिड़ियों, दुर्लभ सरीसृपों और विभिन्न जीव-जंतुओं की सैकड़ों किस्में हमेशा के लिए विलुप्त हो गई हैं। जंगल खत्म हो रहे हैं। पानी का अकाल पड़ रहा है। मरुस्थलों के फैलाव की रफ्तार में तेजी आ रही है। कार्बन डाईआक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों की मात्र काफी ज्यादा बढ़ गई है। नदियों से भी आस टूट रही है। उम्मीद थी कि पृथ्वी का कुछ जीवन ये नदियां बचा लेंगी, पर उन्हें भी भयानक ढंग से प्रदूषित कर दिया गया है।

बढ़ता तापमान : धरती का तापमान पूर्व औद्योगिक काल (1750) के तापमान के स्तर से 1.5-2.0 डिग्री से ऊपर नहीं जाने दिया जाए-इसे लेकर दिसंबर 2015 में संयुक्त राष्ट्र के 21वें जलवायु सम्मेलन के तहत पेरिस समझौता हुआ था। पेरिस में हुई इस संधि के तहत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती और पर्यावरण सुधार के वास्ते किए जाने वाले खर्चे को लेकर सभी देशों ने हामी भरी थी। सभी देशों ने ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करते हुए दुनिया में बढ़ रहे तापमान (ग्लोबल वार्मिग) को रोकने पर सहमति जताई थी। साथ ही कहा गया था कि जलवायु परिवर्तन थामने के लिए विकासशील देशों को वित्तीय सहायता के रूप में 100 अरब डालर हर साल दिए जाएंगे और इस राशि को आने वाले वर्षो में बढ़ाया जाएगा, लेकिन अमेरिका वर्ष 2015 में तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के निर्देश पर इससे बाहर हो गया। ट्रंप प्रशासन ने कहा कि जलवायु परिवर्तन असल में एक गलत अवधारणा है। विकसित देशों का यह रवैया कितना घातक साबित हुआ है, यह हाल में संयुक्त राष्ट्र की संस्था डब्ल्यूएमओ की एक ताजा रिपोर्ट से पता चला है। रिपोर्ट के मुताबिक कार्बन डाईआक्साइड के जमाव के वैश्विक औसत ने पिछले साल 413.2 प्रति मिलियन का स्तर छू लिया।

क्या रास्ता बचा है : इससे इन्कार नहीं है कि जैसी धरती हमें सदियों पहले मिली थी, उसका चेहरा हमेशा ठीक वैसा ही तो नहीं रह सकता था, क्योंकि विकास की कीमत हमारे इसी पर्यावरण को अदा करनी थी, लेकिन असल समस्या संसाधनों के दोहन को लेकर इंसान के बढ़ते लालच की है। असल में मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन कर रहा है, पर उसकी भरपाई का जरा सा प्रयास नहीं हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण इकाई ने आकलन किया है कि धरती के दोहन की रफ्तार प्राकृतिक रूप से होने वाली भरपाई के मुकाबले 40 प्रतिशत तक ज्यादा है। यानी मनुष्य एक साल में जितने प्राकृतिक संसाधनों-हवा, पानी, तेल, खनिज आदि का इस्तेमाल करता है, उतने संसाधनों की क्षतिपूर्ति में पृथ्वी को न्यूनतम डेढ़ साल लग जाता है। धीरे-धीरे भरपाई के मुकाबले दोहन का प्रतिशत बढ़ता भी जा रहा है। दावा है कि इसकी भरपाई अब तभी हो सकती है जब इंसानों के रहने के लिए डेढ़ पृथ्वियां मिल जाएं।

चूंकि हम अपने इस ग्रह का विस्तार नहीं कर सकते, इसलिए कोशिश यही है कि इसी पृथ्वी को फिर से रहने लायक बनाया जाए, जिसकी एक राह जलवायु परिवर्तन को थामने के लिए की जाने वाली संधियां हैं। ऐसे में हर कोई दुआ करेगा कि ग्लासगो हमारी आशाओं के पात्र को इतना तो जरूर भरेगा, जिनसे इस धरती और इंसानी भविष्य के बचे रहने की कोई सूरत बनती हो। संयुक्त राष्ट्र के क्लाइमेट चेंज फ्रेमवर्क कन्वेंशन के अंतर्गत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर लगाम लगाने के उद्देश्य से 1994 में कांफ्रेंस आफ पार्टीज यानी काप का गठन किया गया था। स्थापना के अगले ही साल यानी 1995 से इसकी सालाना बैठकों का क्रम शुरू हुआ। संयुक्त राष्ट्र का कोई भी सदस्य देश इसकी मेजबानी का जिम्मा ले सकता है।

वर्ष 1995 में जर्मनी के बर्लिन में हुई पहली बैठक के बाद 1997 में जब जापान के क्योटो में बैठक हुई तो इसकी गूंज पूरी दुनिया में गई। क्योटो प्रोटोकाल में यह कानूनी प्रविधान किया गया कि विकसित देश कार्बन उत्सर्जन घटाएंगे। वर्ष 2002 (काप-8) में नई दिल्ली में हुई बैठक के बाद तैयार दिल्ली घोषणा में गरीब देशों की विकास संबंधी जरूरतों और जलवायु परिवर्तन को रोकने के मकसद से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के प्रविधान किए गए। इंडोनेशिया के बाली में 2007 में आयोजित काप-8 में एक कार्ययोजना बनाई गई। उसमें 2012 को आधार बनाते हुए जलवायु परिवर्तन को थामने के लिए एक रोडमैप तैयार किया गया।

काप-16 (वर्ष 2010) में हुए कानकुन समझौते में विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए व्यापक पैकेज दिलाने और काप-17 (वर्ष 2011) में डरबन में एक नए सार्वभौमिक जलवायु समझौते के लिए प्रतिबद्धता जताई गई। ये बातें वर्ष 2015 में पेरिस में आयोजित हुए काप-21 का जमीनी आधार बनीं। पेरिस संधि में इस बात को उठाया गया कि अगर धरती को बचाना है तो वैश्विक तापमान को पूर्व-औद्योगिक समय से 2.0 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ने से रोकना होगा। इसमें ग्रीनहाउस गैसों के उत्सजर्न को कम करने पर सहमति बनी। वर्ष 1750 को वह समय माना जाता है, जब इंसानों ने अपनी गतिविधियों से कुदरत के संतुलन को बिगाड़ना शुरू कर दिया था। हालांकि इसके बाद वर्ष 2016 में काप-22, वर्ष 2017 में काप-23, वर्ष 2018 में काप-24 और वर्ष 2019 में काप-25 में कई अन्य फैसले हुए, लेकिन बात पेरिस समझौते से आगे नहीं बढ़ सकी। नई बैठकों से कुछ नया मिलना तो दूर पेरिस समझौते को समुचित तरीके से लागू कराना ही मुश्किल हो गया है। यह तब है, जबकि काप-24 में वर्ष 2015 के पेरिस समझौते को लागू करने के लिए एक ‘नियम पुस्तिका’ को अंतिम रूप दिया गया, जिसमें जलवायु वित्तपोषण सुविधा को शामिल किया जा चुका है। अच्छा होगा कि दुनिया जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए अपनी जिम्मेदारी समझे और तय की गई योजनाओं पर ईमानदारी से अमल करे।

[संस्था एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध]


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