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भारत और अमेरिका का स्‍वाभाविक दुश्‍मन है चीन, यूएस की नई सरकार भी इसी राह पर करेगी काम

नए अमेरिकी निजाम में भारत तथा अमेरिका के रिश्तों में कोई बाधा या हिचकिचाहट सामने नहीं आएगी। लेकिन हमें अपनी अपेक्षाओं को जमीनी हकीकत से जुड़ा रखना होगा। उपकार की आशा नहीं करनी चाहिए। इसलिए अपने दम पर ही आगे बढ़ना होगा।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 09 Nov 2020 09:53 AM (IST)Updated: Mon, 09 Nov 2020 12:30 PM (IST)
भारत और अमेरिका का स्‍वाभाविक दुश्‍मन है चीन, यूएस की नई सरकार भी इसी राह पर करेगी काम
भारत को अपने दम पर आगे बढ़ना होगा।

प्रो पुष्पेश पंत। बाइडन के अमेरिकी राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित होने पर हर कोई यह जानना चाहता है कि भारत के साथ उनके रिश्ते कैसे रहेंगे? भारत इस समय विवादग्रस्त हिमालयी सीमांत पर चीन की आक्रमणकारी घुसपैठ का सामना कर रहा है। इस सैनिक-सामरिक संघर्ष में संयुक्त राज्य अमेरिका ही सबसे भरोसेमंद सामरिक साझीदार नजर आता है। इसका कारण भारत के प्रति अमेरिका का कोई स्वाभाविक स्नेह या पारंपरिक भाईचारा नहीं बल्कि दोनों देशों के राष्ट्रहितों का परस्पर जुड़ाव है।

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चीन के दक्षिण में चीनी सागर तथा प्रशांत क्षेत्र में नौसैनिक विस्तार को देखते हुए अमेरिका को यह लगता रहा है कि चीन विश्व में सबसे ताकतवर शक्ति के रूप में ख़ुद को प्रतिष्ठित करने के अभियान में जुटा है। शी जिनपिंग का मानना है कि आज अमेरिका ट्रंप की अदूरदर्शिता के कारण खस्ताहाल है और फिलहाल पुतिन भी यूक्रेन, क्रीमिया तथा मध्यपूर्व में उलझे हैं। यही मौका चीन के एक-ध्रुवीय वर्चस्व को स्थापित करने का है। यूरोपीय समुदाय ब्रेक्जिट संकट से घिरा है तथा एशिया एवं अफ्रीका के कई देशों को चीन अपने अरबों डॉलर के उधार के बोझ से दबा अपने शिकंजे में फंसा चुका है।

यह काम उसने एक बड़ी शातिर साजिश रचकर संपन्न किया है जिसे ‘वन बेल्ट वन रोड’ नाम दिया जाता है जिसे शी अपने कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि बनाना चाहते हैं। ऐतिहासिक रेशम राजपथ तथा मसाला समुद्री मार्ग का संगम कही जानी वाली यह परियोजना वास्तव में चीन के नेतृत्व वाले एकध्रुवीय विश्व का ही प्रस्तावित मानचित्र है। संक्षेप में, यह सामरिक परिदृश्य अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों के नतीजे के बाद रत्ती भर भी बदलने वाला नहीं। लिहाजा बिना सैनिक मित्र संधि के भी भारत के लिए उसकी प्राथमिकता बरकरार रहेगी। आर्थिक मामलों में भी भारत और अमेरिका के रिश्तों में ज्यादा उलटफेर की संभावना नजर नहीं आती।

जब से भारत ने आर्थिक उदारीकरण तथा सुधारों का सूत्रपात किया है, हमारे और उनके बीच कोई विचारधारा जनित दरार शेष नहीं। कमोबेश समाजवादी कट्टरपंथी को तिलांजलि देकर भारत भी पूंजीवादी व्यवस्था को अपना चुका है। अब यहां भी बाजार के तर्क और जरूरत के अनुसार ही आर्थिक विकास की नीतियां तय की जाती रही हैं। बीच-बीच में जो मनमुटाव देखने को मिलते हैं वह ऐसे नहीं जिनका समाधान राजनयिक संचार से न किया जा सकता हो। अमेरिका में चुनाव के वर्ष ‘सर्वप्रथम अमेरिका’ या ‘मेड इन अमेरिका’ के नारे बुलंद करना उम्मीदवारों की मजबूरी रही है।

अमेरिका मतदाता को अपने पक्ष में करने के लिए एच-1, एच-बी आदि वीजा की बहस भी समझ में आती है। अमेरिका ने चीन के विरुद्ध बाकायदा वाणिज्य युद्ध की घोषणा की है और उसके विरुद्ध कड़े आíथक प्रतिबंध लगाए हैं। ऐसा कोई कदम भारत के खिलाफ प्रस्तावित भी नहीं। आखिरकार अमेरिकी कंपनियां अपने लाभ और लागत का हिसाब लगाकर ही अपनी सरकार पर यह दबाव डालेंगी कि बीपीओ और कॉल सेंटर्स के अलावा भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना कारोबार बढ़ाएगी।

जैसे जैसे चीन में वातावरण इनके प्रतिकूल होगा भारत का विपुल बाजार और कुशल श्रमिक भंडार इनको अधिक आकर्षक लगने लगेगा। तेल-गैस हो या स्वच्छ ऊर्जा, (परमाणविक, सौर, पवन आदि) अमेरिका के उद्यमी इनके निर्यात के लिए भारतमुखी बने रहेंगे। सैनिक साजोसामान तथा परिष्कृत कंप्यूटर एवं फार्मा तकनीक के संदर्भ में भी भारत की तुलना किसी और देश से नहीं की जा सकती।

भारत तथा अमेरिका के बीच जनतांत्रिक बिरादरी का रिश्ता है। अमेरिका सबसे पुराना गणराज्य है और भारत सबसे बड़ा। इसके अलावा अंग्रेजी भाषा, अमेरिकी खानपान, पहनावे, मनोरंजन की विश्वव्यापी लोकप्रियता से भारत अछूता नहीं। अमेरिका में रहने वाले भारतवंशियों की सौम्य शक्ति को कोई भी अमेरिकी प्रशासन अनदेखा नहीं कर सकता। अनेक महत्वपूर्ण अमेरिकी कंपनियों की कमान आज अमेरिकी-हिंदुस्तानियों के हाथ में है। ऐसे भारतवंशी अमेरिकियों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है।

(लेखक स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू में कार्यरत हैं)

यह भी देखें: Joe Biden की जीत से भारत-अमेरिका के रिश्तों में क्या बदलेगा


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