सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगी पाबंदी को किया खत्म
सबरीमाला मंदिर में 10-50 साल की उम्र की महिलाओं को प्रवेश की मिली अनुमति, सुप्रीम कोर्ट न सुनाया फैसला।
माला दीक्षित, नई दिल्ली।सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के हक मे एक और अहम फैसला सुनाते हुए केरल के सबरीमाला मंदिर के द्वार सभी महिलाओं के लिए खोल दिये हैं। अब इस मंदिर में हर उम्र की महिलाओं को प्रवेश मिलेगा। कोर्ट ने 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश पर रोक का नियम रद करते हुए कहा है कि यह नियम महिलाओं के साथ भेदभाव है और उनके सम्मान व पूजा अर्चना के मौलिक अधिकार का हनन करता है। शारीरिक कारणों पर महिलाओं को मंदिर में प्रवेश से रोकना गलत है।
केरल के सबरीमाला मंदिर मे 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी थी। इसके पीछे मान्यता थी कि इस उम्र की महिलाओं को मासिक धर्म होता है और उस दौरान महिलाएं शुद्ध नहीं होतीं। मंदिर के भगवान अयैप्पा बृम्हचारी स्वरूप में हैं और इस उम्र की महिलाएं वहां नहीं जा सकतीं। इस रोक को सुप्रीम कोर्ट मे चुनौती दी गई थी।यह फैसला पांच न्यायाधीशों की संविधानपीठ ने चार- एक के बहुमत से सुनाया है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, एएम खानविलकर, आरएफ नारिमन, और डीवाई चंद्रचूड़ ने बहुमत से फैसला देते हुए रोक के नियम को असंवैधानिक ठहराया है।
हालांकि पीठ की पांचवी सदस्य न्यायाधीश इंदू मल्होत्रा ने असहमति जताते हुए रोक के नियम को सही ठहराया है। कहा है कि अयैप्पा भगवान के सबरीमाला मंदिर को एक अलग धार्मिक पंथ माना जाएगा और उसे संविधान के अनुच्छेद 26 में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में संरक्षण मिला हुआ है। वह अपने नियम लागू कर सकता है।मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने स्वयं और जस्टिस खानविल्कर की ओर से दिए गए फैसले में पुराने समय से महिलाओं के साथ चले आ रहे भेदभाव का जिक्र करते हुए कहा है कि उनके प्रति दोहरा मानदंड अपनाया जाता है।
एक तरफ तो उन्हें देवी माना जाता है और दूसरी तरफ धार्मिक आस्था के मामले में उन पर कठोर प्रतिबंध लगाए जाते हैं। इस घिसीपिटी सोच को त्यागना होगा। समाज को महिलाओं से ही ज्यादा पवित्रता और शुद्धता की चाहत रखने की पुरुषवादी धारणा से बराबरी के सिद्धांत की ओर स्थानांतरित होना होगा जो कि महिलाओं को किसी भी तरह से पुरुष से कमतर नहीं समझता।
धर्म में पुरुषवादी धारणा को किसी की धार्मिक आस्था और पूजा के अधिकार के ऊपर मान्यता नहीं दी जा सकती। शारीरिक और जैविक बदलाव की आड़ में महिलाओं के दमन को सही नहीं ठहराया जा सकता। जैविक बदलाव के आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव करने वाला कोई भी नियम संवैधानिक नहीं हो सकता।
बहुमत का फैसला एक नजर में-
1- भगवान अयैप्पा एक अलग धार्मिक सैक्ट नहीं है
2- अनुच्छेद 25(1) के तहत सभी को धार्मिक आस्था और पूजा अर्चना का मौलिक अधिकार प्राप्त है। सभी में महिलाएं शामिल हैं। इस अधिकार का लिंग या महिलाओं के शारीरिक बदलाव से कोई लेना देना नहीं है।
3- 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के सबरीमाला मंदिर में प्रवेश पर रोक लगाने वाला नियम 3(बी) हिन्दू महिलाओं के भगवान अयैप्पा के पूजा अर्चना के मौलिक अधिकार का हनन करता है।
4- निश्चित आयु की महिलाओं पर रोक लगाने का नियम धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं है
5- सार्वजनिक पूजा स्थल मे सभी वर्ग के हिन्दू जा सकते हैं उसमें महिलाएं शामिल हैं। इसमें किसी तरह की रीति रिवाज का कोई फर्क नहीं पड़ता
6- महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाने का नियम 3(बी) असंवैधानिक है।
7- मासिक धर्म के आधार पर महिलाओं को बाहर करना एक तरह से छूआछूत है जिसे संविधान में अभिशाप माना गया है। संविधान में किसी पर पवित्रता या अशुद्धता के धब्बे की कोई जगह नहीं है।
असहमति का फैसला
1- अनुच्छेद 14 मे मिला बराबरी का हक किसी को अनुच्छेद 25 में मिले अपनी धार्मिक आस्था के मुताबिक पूजा अर्चना के अधिकार के ऊपर नहीं हो सकता
2- अयैप्पा एक अलग धार्मिक सैक्ट है और उसे अनुच्छेद 26 में संरक्षण प्राप्त है
3- निश्चित आयु की महिलाओं पर सीमित रोक लगाना अनुच्छेद 17 (छुआछूत की मनाही) का उल्लंघन नहीं है। 4- रोक लगाने वाला नियम 3 (बी) असंवैधानिक नहीं है।