महंगाई रोकने की दिशा में ठोस प्रयास, समाधान की दिशा में निरंतर आगे बढ़ते कदम
अर्थशास्त्र के पारंपरिक सिद्धांत के अनुसार महंगाई का मूल कारण आपूर्ति कम और मांग का अधिक होना होता है लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था जब लंबे समय से मांग की कमी से जूझ रही है तो फिर प्रश्न यह उठता है कि महंगाई क्यों है?
राहुल लाल। अप्रैल में खुदरा महंगाई दर 7.79 प्रतिशत रही, जो मई 2014 के बाद सबसे ज्यादा है। इसी प्रकार अप्रैल में थोक महंगाई की दर बढ़कर 15.08 प्रतिशत पर पहुच गई, जो दिसंबर 1998 के बाद सबसे ज्यादा है। मुद्रास्फीति एक तरफ लोगों की क्रय शक्ति कम कर देती है, वहीं दूसरी तरफ लोग निवेश करने से बचते हैं। इस तरह मांग में कमी होती जाती है और उत्पादन भी घटता जाता है। जब निवेश नहीं होता तो विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है और इस प्रकार एक दुष्चक्र बन जाता है, जिससे निकलना कठिन होता है।
भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार खुदरा महंगाई की दर छह प्रतिशत से ऊपर नहीं जानी चाहिए। लेकिन यह लगातार चौथा महीना है, जब खुदरा महंगाई दर आरबीआइ की तय सीमा से भी ऊपर पहुंच गई है। आरबीआइ के पास महंगाई दर चार प्रतिशत पर बनाए रखने की जिम्मेदारी है, जिसमें वह दो प्रतिशत ऊपर-नीचे होने की गुंजाइश रखता है। जनवरी से खुदरा महंगाई दर इस सीमा से बाहर है। यही वजह है कि रिजर्व बैंक ने मई में अचानक रेपो रेट में 0.40 प्रतिशत की वृद्धि की। यह अगस्त 2018 के बाद पहली बढ़ोतरी थी। इसके बाद कर्ज और महंगा हो गया। आरबीआइ गवर्नर ने जून में पुन: रेपो रेट में वृद्धि के संकेत दिए हैं। अनुमान है कि जून में रेपो रेट में 50 आधार अंकों का इजाफा किया जाएगा। अब वित्तीय बाजार को आरबीआइ के संशोधित मुद्रास्फीति अनुमानों की प्रतीक्षा है ताकि भविष्य में मौद्रिक कदमों का अंदाजा हो सके।
गेहूं के बाद चीनी निर्यात पर रोक : महंगाई को नियंत्रित करने के लिए इस माह के मध्य में केंद्र सरकार ने गेहूं के निर्यात पर रोक लगाने की घोषणा की थी। इसी क्रम में बुधवार को सरकार ने चीनी निर्यात पर भी प्रतिबंध लगा दिया, जो एक जून से लागू होगा। चीनी की घरेलू स्तर पर उपलब्धता और दरों में स्थिरता बनाए रखने के लिए चालू वित्त वर्ष में इसके निर्यात को एक करोड़ टन तक सीमित करने के लिए यह निर्णय लिया गया है। चालू वित्त वर्ष में अब तक 82 लाख टन चीनी निर्यात के लिए निकाली जा चुकी है, जबकि वर्ष 2020-21 में निर्यात 70 लाख टन और 2019-20 में 59.6 लाख टन था।
खाद्य तेलों के आयात शुल्क में कटौती : फरवरी में कच्चे पाम आयल पर सरकार ने कृषि अवसंरचना विकास उपकर को 7.5 प्रतिशत से घटाकर 5.5 प्रतिशत कर दिया था। इसी सप्ताह इंडोनेशिया ने पाम आयल के निर्यात पर प्रतिबंध हटा लिया है। ऐसे में सरकार महंगे तेल से राहत दिलाने के लिए क्रूड पाम आयल पर 5.5 प्रतिशत कृषि उपकर को शून्य कर सकती है। बुधवार को सरकार ने सोयाबीन तथा सूरजमुखी तेल पर आयात शुल्क समाप्त करने की घोषणा की है।
डीजल-पेट्रोल एक्साइज ड्यूटी में कटौती : रिकार्ड महंगाई के बीच पिछले सप्ताह सरकार ने पेट्रोल पर आठ रुपये और डीजल पर छह रुपये प्रति लीटर एक्साइज ड्यूटी में कटौती का ऐलान किया। इसके अतिरिक्त सरकार ने प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के लाभार्थियों के लिए गैस सिलिंडर में 200 रुपये प्रति सिलिंडर की कमी की घोषणा भी की। कीमतों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों के अलावा कुछ प्रकार के स्टील उत्पादों तथा इस क्षेत्र के कच्चे माल पर आयात शुल्क घटाया तथा निर्यात शुल्क बढ़ाया। सरकार द्वारा ईंधन में कर कटौती के कारण जून तक खुदरा महंगाई दर में 20 आधार अंक की कमी आ सकती है। इससे समस्त मुद्रास्फीति नतीजों पर कोई खास बदलाव आता नहीं दिखता। इस कारण आरबीआइ पर दबाव भी लगातार बना रहेगा।
डीजल-पेट्रोल के मूल्य घटाने में राज्यों की भूमिका : केंद्र सरकार द्वारा डीजल पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी घटाने के बाद अब राज्य सरकारों से अपेक्षा की जा रही है कि वे भी वैट घटाकर इसे और सस्ता करें। पिछले वर्ष तीन नवंबर को केंद्र सरकार ने जब पेट्रोल पर पांच रुपया और डीजल पर 10 रुपया प्रति लीटर एक्साइज ड्यूटी घटाई, तब केंद्र की इस बड़ी कटौती के बाद 19 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों ने ईंधन पर अपना वैट कम कर दिया था। इस बार केंद्र के निर्णय के बाद महाराष्ट्र, राजस्थान, केरल और ओडिशा ने पेट्रोल और डीजल पर वैट घटाया है। स्पष्ट है कि राज्यों ने अभी तक पिछले वर्ष की तरह वैट घटाने का उत्साह नहीं दिखाया है। यह कहना आसान है कि राज्य पेट्रोल और डीजल पर वैट कम क्यों नहीं करते, लेकिन थोड़ा गहराई में जाने पर समझ में आएगा कि अब राज्यों के पास आय के ज्यादा स्रोत नहीं हैं। राज्य पेट्रोलियम उत्पादों और शराब पर ही वैट लगा सकते हैं। राज्यों को जीएसटी रिफंड सही समय पर नहीं हो पाता है। वित्त मंत्रलय के अनुसार राज्यों का 78,704 करोड़ रुपया जीएसटी रिफंड में बकाया है।
अगर राज्य और केंद्र सरकार के खजाने में पेट्रोलियम सेक्टर के योगदान की बात करें तो केवल वर्ष 2014 ही ऐसा था, जब केंद्र सरकार को पेट्रोलियम पदार्थो पर लगाए गए टैक्स का 51.7 प्रतिशत हिस्सा मिला और राज्य सरकारों की झोली में शेष 48.3 प्रतिशत हिस्सा गया था। इसके बाद हर साल केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थो पर लगने वाले टैक्स में अपना हिस्सा 60 प्रतिशत बरकरार रखा। वित्त वर्ष 2021-22 के आरंभिक नौ माह के दौरान केंद्र सरकार को 3.5 लाख करोड़ रुपये टैक्स मिला, जबकि राज्यों के खजाने में 2.07 लाख करोड़ रुपये गए। इस प्रकार इसमें केंद्र को 63 प्रतिशत तथा राज्यों को 37 प्रतिशत टैक्स प्राप्त हुआ।
एक्साइज ड्यूटी का गणित : केंद्र सरकार जो एक्साइज ड्यूटी लगाती है, उसमें दो घटक होते हैं- बेसिक एक्साइज ड्यूटी और दूसरा अन्य एक्साइज ड्यूटी व सेस। बेसिक एक्साइज ड्यूटी पर टैक्स से सरकार जो कमाई करती है, उसका 41 प्रतिशत हिस्सा राज्यों को भी मिलता है। अभी पेट्रोल पर 1.40 रुपये प्रति लीटर और डीजल पर 1.80 रुपये प्रति लीटर बेसिक एक्साइज ड्यूटी लगती है, जिसका बंटवारा राज्यों के साथ होता है। वर्तमान में प्रति लीटर पेट्रोल पर स्पेशल एडिशनल एक्साइज ड्यूटी 11 रुपये, एग्रीकल्चर एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर सेस 2.50 रुपये तथा रोड एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर सेस पांच रुपये लगता है। इसी प्रकार प्रति लीटर डीजल पर स्पेशल एडिशन एक्साइज ड्यूटी 11 रुपये, एग्रीकल्चर सेस चार रुपये तथा रोड सेस दो रुपये है। स्पष्ट है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाले कुल एक्साइज डयूटी में बेसिक एक्साइज डयूटी काफी कम है। शेष एक्साइज ड्यूटी पर केंद्र सरकार का पूर्ण हक होता है।
पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्र को उपकर और अधिभार द्वारा राजस्व बढ़ाने की कोशिशों की समीक्षा करनी चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि इसके पीछे मंशा राजस्व को राज्यों के साथ साझा न करने की अधिक है। करों को तार्किक बनाने के क्रम में पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी में शामिल किया जाए, तो इस पर इनपुट क्रेडिट का लाभ प्राप्त किया जा सकता है। सरकार एक अलग कार्बन कर लगा सकती है, जिससे पर्यावरण अनुकूल परियोजनाओं को रकम उपलब्ध करायी जा सकती है। संभव है कि जीएसटी काउंसिल पेट्रोलियम उत्पादों पर अधिभार इस प्रकार लगाने के लिए राजी हो जाएगा कि राजस्व की कोई कमी नहीं हो तथा राज्यों में भी इसका बंटवारा हो सके।
अमेरिका के विरोध के बावजूद भारत रूस से सस्ता क्रूड आयल यानी कच्चा तेल खरीद रहा है, जो भारत के स्वतंत्र विदेश नीति को प्रदर्शित करता है। लेकिन रूस से कच्चा तेल भारत लाना परिवहन की दृष्टि से खर्चीला है। भारत सरकार को ईरान से भी कच्चा तेल खरीदना चाहिए। भारत ने अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण ईरान से तेल लेना बंद कर दिया है, जबकि भारत की अधिकृत नीति रही है कि वह केवल संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों को मानता है। ईरान भारत को अंतरराष्ट्रीय मूल्य से 25 प्रतिशत सस्ते दर पर यह देने के लिए तैयार है। ईरानी तेल सस्ता होने के साथ ही गुणवत्ता में भी बेहतर है। ईरानी तेल से भी भारतीय महंगाई को जवाब दिया जा सकता है।
इसके साथ ही डालर के लगातार मजबूत होने तथा रुपये के कमजोर होने से भी आयातित वस्तुएं स्वाभाविक रूप से महंगी हो जाती हैं। भारत अपनी जरूरत का लगभग 85 प्रतिशत कच्चा तेल विदेश से आयात करता है, जिसकी कीमत डालर में चुकानी होती है। इससे भारत का आयात बिल बढ़ जाता है। कच्चे तेल और स्वर्ण के बाद भारत का सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा भंडार खाद्य तेल पर खर्च होता है। भारतीय अर्थव्यवस्था मूल रूप से आयात आधारित अर्थव्यवस्था है, ऐसे में सरकार को रुपये को मजबूत करने के लिए हरसंभव कदम उठाने होंगे। महंगाई को नियंत्रित करने के लिए आरबीआइ द्वारा मई में अचानक रेपो रेट में 40 आधार अंकों की वृद्धि की गई जिसमें जून में भी वृद्धि का अनुमान है।
इस वृद्धि से सस्ते कर्ज के आधार पर ग्रोथ में तेजी लाने की पुरानी रणनीति पर विराम लग चुका है। जब बाजार में लिक्विडिटी अधिक हो जाती है, तो उससे भी महंगाई बढ़ जाती है। ऐसे में रेपो रेट बढ़ने से कर्ज महंगा होता है और लोगों के कर्ज लेने की क्षमता घट जाती है। परंतु इस समय पहले से ही लोगों के कर्ज लेने की क्षमता घटी हुई है। अत: आरबीआइ की इस नीति से महंगाई में कमी नहीं, अपितु ईएमआइ में वृद्धि से लोगों को महंगाई का नया झटका लग रहा है। अगर ब्याज दरें बढ़ने की वजह से ग्रोथ इंजन सुस्त पड़ गया तो इससे आर्थिक रिकवरी खतरे में पड़ सकती है और बेरोजगारी की समस्या गंभीर हो सकती है।
वास्तव में सरकार को इस समय महंगाई से संघर्ष करने के लिए अर्थव्यवस्था के आधारभूत तत्वों को ही मजबूत करना होगा। चालू वित्त वर्ष 2022-23 में अप्रैल से लेकर मई प्रथम सप्ताह तक ही भारतीय बाजार से विदेशी संस्थागत निवेशक 5.8 अरब डालर का विदेशी निवेश निकाल चुके हैं। अक्टूबर से अप्रैल के बीते सात महीनों में विदेशी निवेशक 1.65 लाख करोड़ से अधिक राशि की निकासी कर चुके हैं। ऐसे में रुपया कमजोर होगा ही। ऐसे में भारतीय उद्योगों में एफडीआइ को प्रोत्साहित करने तथा अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने की आवश्यकता है।
[आर्थिक मामलों के जानकार]