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दूर करनी होंगी सिस्टम की खामियां ताकि कोई और न उठाने पाए इनका लाभ

स्पष्ट कानूनी प्रावधान न होने के कारण प्रक्रियात्मक खामियों का लाभ उठाकर जब दोषियों ने कानूनी पैंतरेबाजी दिखानी शुरू की तो न्याय में देरी को लेकर सवाल उठे और सरकार हरकत में आयी।

By Dhyanendra SinghEdited By: Published: Fri, 20 Mar 2020 10:54 PM (IST)Updated: Fri, 20 Mar 2020 10:55 PM (IST)
दूर करनी होंगी सिस्टम की खामियां ताकि कोई और न उठाने पाए इनका लाभ
दूर करनी होंगी सिस्टम की खामियां ताकि कोई और न उठाने पाए इनका लाभ

माला दीक्षित, नई दिल्ली। निर्भया के दोषियों को फांसी के फंदे तक पहुंचने में सात साल से ज्यादा समय लगा। चारो दोषियों को फांसी होने के बाद यह जरूर कहा जा रहा है कि न्याय के घर देर है पर अंधेर नहीं, लेकिन सवाल उठता है कि इतनी देर क्यों? क्या देर से मिला न्याय उसकी अहमियत को कम नहीं कर देता। क्यों हमारी न्यायिक प्रक्रिया में इतनी खामियां हैं जिनका लाभ उठाकर निर्भया के गुनाहगार पूरे सिस्टम को अपनी मर्जी से नचाते रहे और कानून के दायरे में बंधा सिस्टम बस उनकी एक के बाद एक कानूनी पैंतरेबाजी का निशाना बनता रहा। यह मामला एक नजीर है जिसमें न्याय में देरी की जिम्मेदार न्याय प्रदान प्रणाली (जस्टिस डिलीवरी सिस्टम) की खामियां उजागर हुईं। अब सिस्टम की खामियां दूर करने का समय आ गया है। अगर सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की लंबित दो याचिकाओं को स्वीकार करते हुए फांसी की सजा पाए जघन्य अपराध के दोषियों के मामले में कानूनी विकल्पों की टाइम लाइन तय कर दी तो समस्या बहुत कुछ सुलझ सकती है।

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सुप्रीम कोर्ट ने लगा दिए तीन साल

निर्भया केस पर अगर निगाह डाली जाए तो घटना 16 दिसंबर 2012 की है। 13 सितंबर 2013 को निचली अदालत ने चारो दोषियों को फांसी की सजा सुनाई और अगले ही साल हाईकोर्ट ने भी मुहर लगा दी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट मे तीन साल लग गये। 5 मई 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने चारो की फांसी को सही ठहराया। इसके बाद भी दोषियों को फांसी के फंदे तक पहुंचाने में तीन साल का और समय लग गया। सुप्रीम कोर्ट से अपील खारिज होने के बाद दोषियों के पास पुनर्विचार, क्यूरेटिव और राष्ट्रपति के पास दया याचिका दाखिल करने का कानूनी विकल्प बचा था। यही वह स्टेज थी जहां दोषियों ने किसी समय सीमा का पालन नहीं किया। चारो ने अलग अलग मनमर्जी की देरी से याचिकाएं दाखिल कीं। कानून कहता है कि जबतक दोषियों के कानूनी विकल्प समाप्त नहीं होते फांसी नहीं दी सकती। साथ ही सभी को एक साथ फांसी देने के हाईकोर्ट के आदेश से भी सिस्टम को बांध दिया।

न्याय में देरी को लेकर उठे सवाल

स्पष्ट कानूनी प्रावधान न होने के कारण प्रक्रियात्मक खामियों का लाभ उठाकर जब दोषियों ने कानूनी पैंतरेबाजी दिखानी शुरू की तो न्याय में देरी को लेकर सवाल उठे और सरकार हरकत में आयी। केन्द्र सरकार ने गत 22 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर मांग की कि फांसी की सजा पाए दोषियों की दया याचिका खारिज होने के बाद सात दिन के भीतर डेथ वारंट जारी कर दिया जाए और उसके बाद सात दिन के भीतर उन्हें फांसी दे दी जाए। इस पर सह अभियुक्तों की पुनर्विचार, क्यूरेटिव या दया याचिका लंबित रहने का कोई असर नहीं पड़ना चाहिए। केन्द्र ने अर्जी में न्याय का इंतजार करते दुर्दात अपराध के पीडि़तों का हवाला देते हुए कोर्ट से इस बारे में दिशानिर्देश तय करने का आग्रह किया है। सरकार ने शत्रुघन चौहान मामले में दिए गए पूर्व फैसले में फांसी के लिए तय की गई 14 दिन की समय सीमा को घटा कर 7 दिन करने का आग्रह किया है। केन्द्र की यह अर्जी अभी लंबित है। अगर कोर्ट ने मामले में टाइम लाइन तय करने वाले दिशा निर्देश जारी कर दिये तो प्रक्रियात्मक देरी समाप्त हो सकती है।

23 मार्च को होनी है सुनवाई

इसके अलावा केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक और अर्जी दाखिल कर रखी है जिसमें मांग की गई है कि सभी दोषियों को एक साथ फांसी देने की बात ठीक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट से अपील खारिज होने के बाद जिस जिस दोषी के कानूनी विकल्प समाप्त होते जाएं उन्हें फांसी देने की इजाजत मिलनी चाहिए। इस अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट में 23 मार्च को सुनवाई होनी है। कोर्ट ने साफ कहा था कि वह कानूनी मुद्दे पर विचार करेगा। इस बारे में आने वाला फैसला भी महत्वपूर्ण होगा।


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