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50 वर्ष बीतने के बाद आज भी उतनी ही नई है 'राग दरबारी', व्‍यवस्‍था पर है कुठाराघात

श्रीलाल शुक्ल अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी भाषा के विद्वान थे। श्रीलाल शुक्ल संगीत के शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों के रसिक-मर्मज्ञ थे।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 27 Oct 2018 12:16 PM (IST)Updated: Sun, 28 Oct 2018 08:18 AM (IST)
50 वर्ष बीतने के बाद आज भी उतनी ही नई है 'राग दरबारी', व्‍यवस्‍था पर है कुठाराघात
50 वर्ष बीतने के बाद आज भी उतनी ही नई है 'राग दरबारी', व्‍यवस्‍था पर है कुठाराघात

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। कल्पना करें कि यदि हिंदी अपनी आत्मकथा लिखे तो श्रीलाल शुक्ल का जीवन और साहित्य उसका एक अनिवार्य हिस्सा होगा। 31 दिसंबर 1925 से 28 अक्टूबर 2011 के बीच का समय भाषा और साहित्य के लिये एक जरूरी अध्याय की तरह है। श्रीलाल शुक्ल को लखनऊ जनपद के समकालीन कथा-साहित्य में उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये विख्यात साहित्यकार माने जाते थे। उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की। 1949 में राज्य सिविल सेवासे नौकरी शुरू की। 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त हुए। 'राग दरबारी' सहित उनका समूचा साहित्य किसी न किसी रूप में उपन्यास, कहानी, व्यंग्य और आलोचना को अभिनव अन्त:दृष्टि प्रदान करता है। साहित्य को रूमानी मूर्खताओं से मुक्त करने में उनकी भूमिका की अब शायद ज्यादा याद आएगी।

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व्यक्तित्व
श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व अपनी मिसाल आप था। सहज लेकिन सतर्क, विनोदी लेकिन विद्वान, अनुशासनप्रिय लेकिन अराजक। श्रीलाल शुक्ल अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी भाषा के विद्वान थे। श्रीलाल शुक्ल संगीत के शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों के रसिक-मर्मज्ञ थे। 'कथाक्रम' समारोह समिति के वह अध्यक्ष रहे। श्रीलाल शुक्ल जी ने गरीबी झेली, संघर्ष किया, मगर उसके विलाप से लेखन को नहीं भरा। उन्हें नई पीढ़ी भी सबसे ज़्यादा पढ़ती है। वे नई पीढ़ी को सबसे अधिक समझने और पढ़ने वाले वरिष्ठ रचनाकारों में से एक रहे। न पढ़ने और लिखने के लिए लोग सैद्धांतिकी बनाते हैं। श्रीलाल जी का लिखना और पढ़ना रुका तो स्वास्थ्य के गंभीर कारणों के चलते। श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व बड़ा सहज था। वह हमेशा मुस्कुराकर सबका स्वागत करते थे। लेकिन अपनी बात बिना लाग-लपेट कहते थे। व्यक्तित्व की इसी ख़ूबी के चलते उन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए भी व्यवस्था पर करारी चोट करने वाली राग दरबारी जैसी रचना हिंदी साहित्य को दी।

'राग दरबारी' एक ऐसा उपन्यास है जो गांव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है। यह उपन्यास एक आदर्श स्टूडेंट की कहानी कहता है, जो सामाजिक, राजनीतिक बुराइयों में अपने विश्वविद्यालय में मिली आदर्श शिक्षा के मूल्यों को स्थापित करने के लिए संघर्ष करता है। शुरू से अन्त तक इतने निस्संग और सोद्देश्य व्यंग्य के साथ लिखा गया हिंदी का शायद यह पहला वृहत् उपन्यास है। ‘राग दरबारी’ का लेखन 1964 के अन्त में शुरू हुआ और अपने अंतिम रूप में 1967 में समाप्त हुआ। 1968 में इसका प्रकाशन हुआ और 1969 में इस पर श्रीलाल शुक्ल को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। 1986 में एक दूरदर्शन-धारावाहिक के रूप में इसे लाखों दर्शकों की सराहना प्राप्त हुई।

राग दरबारी व्यंग्य-कथा नहीं है। इसमें श्रीलाल शुक्ल जी ने स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत-दर-परत उघाड़ कर रख दिया है। राग दरबारी की कथा भूमि एक बड़े नगर से कुछ दूर बसे गाँव शिवपालगंज की है जहाँ की जिन्दगी प्रगति और विकास के समस्त नारों के बावजूद, निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्वों के आघातों के सामने घिसट रही है। शिवपालगंज की पंचायत, कॉलेज की प्रबन्ध समिति और कोआपरेटिव सोसाइटी के सूत्रधार वैद्यजी साक्षात वह राजनीतिक संस्कृति हैं जो प्रजातन्त्र और लोकहित के नाम पर हमारे चारों ओर फल फूल रही हैं।

उनकी प्रसिद्ध रचनाएं
'स्वर्णग्राम और वर्षा' का उल्लेख इसलिए किया जाता है क्योंकि इस व्यंग्य लेख से श्रीलाल जी ने ठहरी हुई शाब्दिक समझ और सामाजिक दृष्टि के खिलाफ हल्ला सा बोल दिया था। यह उनका प्रस्थान बिन्दु था, जहां से चलकर वे अविश्वसनीय मंजिलों तक पहुंचे। इस लेख से पता चलता है कि 'प्रसृण मसृण' और 'सुबुक सुबुक' वादी लेखन के प्रति उनके मन में कितना क्षोभ था। जीवन के प्रति उस दृष्टिकोण से गहरा असंतोष भी जिसके लिए यथार्थ शब्द का अर्थ विचित्र भावुकता से होकर गुजरता था। 'सूनी घाटी का सूरज' और 'अज्ञातवास' उपन्यास से इस असंतोष की झलक मिलने लगती है। 'अंगद का पांव' से उनकी अद्भुत व्यंग्य क्षमता की खबर लगती है। श्रीलाल शुक्ल का जाना एक गहरी उदासी का सबब है। श्रीलाल जी अपनी उपस्थिति भर से समय के उस हिस्से को बदल देते थे। उनके व्यक्तित्व के बहुत से पहलू हैं या कई रंग हैं। उनके जीवनकाल में ही कुछ लोगों ने उन पर भांति-भांति के संस्मरण लिखे हैं।

पुरस्कार
उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के अतरौली में वर्ष 1925 में जन्मे श्रीलाल शुक्ल को हिन्दी साहित्य में कथा, व्यंग्य लेखन के लिए जाना जाता है।1969 में श्रीलाल शुक्ल को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। लेकिन इसके बाद ज्ञानपीठ के लिए 42 साल तक इंतज़ार करना पड़ा। इस बीच उन्हें बिरला फ़ाउन्डेशन का व्यास सम्मान, यश भारती और पद्म भूषण पुरस्कार भी मिले। लंबे समय से बीमार चल रहे शुक्ल को 18 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बी. एल. जोशी ने अस्पताल में ही ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया था। वर्ष 2008 में शुक्ल को पद्मभूषण पुरस्कार नवाजा गया था। वह भारतेंदु नाट्य अकादमी लखनऊ के निदेशक तथा भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की मानद फैलोशिप से भी सम्मानित थे।

निधन
ज्ञानपीठ पुरस्कार और पद्म भूषण से सम्मानित तथा 'राग दरबारी' जैसा कालजयी व्यंग्य उपन्यास लिखने वाले मशहूर व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल को 16 अक्टूबर को पार्किंसन बीमारी के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 28 अक्टूबर 2011 को सुबह 11.30 बजे सहारा अस्पताल में श्रीलाल शुक्ल का निधन हो गया। वह 86 वर्ष के थे। उनके निधन पर लखनऊ के साहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ गई। 


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