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कांग्रेस के राज में कराए जा चुके हैं केंद्र राज्‍यों में एक साथ चुनाव, अब विपक्ष कर रहा शोर, डालें एक नजर

कांग्रेस और विपक्ष भले ही आज एक देश एक चुनाव पर सवाल उठा रहा है लेकिन पूर्व में उनकी ही सरकारों में ये व्‍यवस्‍था रह चुकी है। 1951 से 1967 तक राज्यों के साथ केंद्र में चुनाव साथ कराने की व्यवस्था थी।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 27 Nov 2020 09:49 AM (IST)Updated: Fri, 27 Nov 2020 09:49 AM (IST)
कांग्रेस के राज में कराए जा चुके हैं केंद्र राज्‍यों में एक साथ चुनाव, अब विपक्ष कर रहा शोर, डालें एक नजर
पहले भी भारत में काम कर चुकी है एक देश एक चुनाव की व्‍यवस्‍था

नई दिल्‍ली (जेएनएन)। सभी चुनाव साथ कराए जाने की मांग का मूल मर्म समय और धन की बचत है। भाजपा ने समय-समय पर इस मांग को राष्ट्रीय चर्चा का विषय बनाया। 1951 से 1967 तक केंद्र और राज्यों के चुनाव साथ कराने की व्यवस्था थी। इस समयावधि के दौरान राज्यों के चुनाव पूर्ण या आंशिक रूप से लोकसभा चुनावों के साथ होते रहे हैं। 1951-52 में तो सभी राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ हुए, लेकिन राज्यों के पुनर्गठन और सरकारों की बर्खास्तगी के चलते धीरे-धीरे यह क्रम बिगड़ता गया। 1957 में लोकसभा चुनाव के साथ 76 फीसद राज्यों के ही चुनाव हुए जबकि 1962 और 1967 में यह आंकड़ा 67 फीसद तक पहुंच गया। 1970 आते आते साथ-साथ चुनाव कराने की परंपरा पूरी तरह से खत्म हो गई।

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फिर से चर्चा में आया मसला

पिछली सदी के आखिरी दशक में जब भारतीय जनता पार्टी का चुनावों में दबदबा कायम होना शुरू हुआ तो एक साथ लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव कराए जाने की बहस फिर से उठी भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी इस प्रणाली को देश में लागू किए जाने के मुखर समर्थक हैं।

विधि आयोग की सिफारिश

1999 में तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान विधि आयोग ने इस मसले पर एक रिपोर्ट सौंपी। आयोग ने अपनी सिफारिशों में कहा कि अगर किसी सरकार के खिलाफ विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लेकर आता है तो उसी समय उसे दूसरी वैकल्पिक सरकार के पक्ष में विश्वास प्रस्ताव भी देना सुनिश्चित किया जाए। 2018 में विधि आयोग ने इस मसले पर एक सर्वदलीय बैठक भी बुलाई जिसमें कुछ राजनीतिक दलों ने इस प्रणाली का समर्थन किया तो कुछ ने विरोध। कुछ राजनीतिक दलों का इस विषय पर तटस्थ रुख रहा।

पीएम मोदी की खास रुचि

जनवरी, 2017 में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक देश एक चुनाव के संभाव्यता अध्ययन कराए जाने की बात कही। तीन महीने बाद नीति आयोग के साथ राज्य के मुख्यमंत्रियों की बैठक में भी इस जरूरत को दोहराया। इससे पहले दिसंबर 2015 में राज्यसभा के सदस्य ईएम सुदर्शन नचियप्पन की अध्यक्षता में गठित संसदीय समिति ने भी इस चुनाव प्रणाली को लागू किए जाने पर जोर दिया था।

नीति आयोग का नोट

नीति आयोग द्वारा एक देश एक चुनाव विषय पर तैयार किए गए एक नोट में कहा गया है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को 2021 तक दो चरणों में कराया जा सकता है। अक्टूबर 2017 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने कहा था कि एक साथ चुनाव कराने के लिए आयोग तैयार है, लेकिन  निर्णय राजनीतिक स्तर पर लिया जाना है।

पक्ष में दलीलें

महंगा चुनाव: एक अध्ययन के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव पर करीब साठ हजार करोड़ रुपये खर्च हुए। इसमें पार्टियों और उम्मीदवारों के खर्च भी शामिल हैं। एक साथ एक चुनाव से समय के साथ धन की बचत हो सकती है। सरकारें चुनाव जीतने की जगह प्रशासन पर अपना ध्यान केंद्रित कर पाएंगी।

हुए हैं एक साथ चुनाव: पहले एक साथ सभी चुनाव होते रहे हैं। 1951-52, 1957, 1962 और 1967 के चुनाव एक साथ कराए गए।

अविश्वास प्रस्ताव की काट: इस चुनाव प्रणाली में सबसे ज्यादा चिंता इस बात की जताई जाती है कि पांच साल से पहले ही अगर कोई सरकार गिर जाती है तो क्या होगा। इसके लिए किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के तुरंत बाद दूसरी वैकल्पिक सरकार के लिए विश्वास प्रस्ताव लाने की व्यवस्था बनानी होगी।

कई देशों में है यह प्रणाली: स्वीडन इसका रोल मॉडल रहा है। यहां राष्ट्रीय और प्रांतीय के साथ स्थानीय निकायों के चुनाव तय तिथि पर कराए जाते हैं जो हर चार साल बाद सितंबर के दूसरे रविवार को होते हैं। इंडोनेशिया में इस बार के चुनाव इसी प्रणाली के तहत कराए गए। दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय और प्रांतीय चुनाव हर पांच साल पर एक साथ करा  जाते हैं जबकि नगर निकायों के चुनाव दो साल बाद होते हैं। विरोध में तर्क

खर्च इसमें भी: एक साथ एक चुनाव में धन के खर्च को रोका नहीं जा सकेगा। विधि आयोग के अनुसार यदि 2019 के चुनाव इसी प्रणाली से कराए गए होते तो नई ईवीएम खरीदने के लिए 4500 करोड़ रुपये की दरकार होती। 2024 में दूसरी बार एक साथ सभी चुनाव कराने के लिए पुरानी ईवीएम (15 साल जीवनकाल) को बदलने में 1751.17 करोड़ रुपये खर्चने होंगे। 2029 में 2017.93 करोड़ और चौथे चुनाव यानी 2034 में यह खर्च 13981.58 करोड़ रुपये बैठेगा।

सरकार गिरी तो क्या होगा: संविधान में लोकसभा या राज्य विधानसभाओं का तय कार्यकाल नहीं है। लोकसभा या विधानसभाओं के कार्यकाल को बढ़ाना संविधान सम्मत नहीं हैं। अगर कोई सरकार समय पूर्व गिर जाती है तो क्या होगा? 16 में से 7 लोकसभाएं समय से पूर्व भंग हो चुकी हैं।

अनुच्छेद 356: इस उपबंध के तहत जब तक किसी राज्य सरकार को बर्खास्त करने का अधिकार केंद्र के पास रहेगा, एक साथ सभी चुनाव नहीं कराए जा सकेंगे।

राष्ट्रीय बनाम क्षेत्रीय मुद्दे: विधानसभा चुनाव में भी राष्ट्रीय मसलों पर मतदाता वोट कर सकते हैं। इससे बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को फायदा हो सकता है। क्षेत्रीय दलों को नुकसान उठाना पड़ सकता है। जिन देशों में यह प्रणाली लागू है उनमें से अधिकांश में प्रेसीडेंसियल सरकारें हैं।

किसका क्या रुख: 2018 में विधि आयोग की बैठक में भाजपा और कांग्रेस ने इससे दूरी बनाए रखी। चार दलों (अन्नाद्रमुक, शिअद, सपा, टीआरएस) ने समर्थन किया। नौ राजनीतिक दलों (तृणमूल, आप, द्रमुक, तेदेपा, सीपीआइ, सीपीएम, जेडीएस, गोवा फारवर्ड पार्टी और फारवर्ड ब्लाक) ने विरोध किया।


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