विजयादशमी पर रावण तो सिर्फ प्रतीक है, लेकिन इस दिन असली महत्व तो कुछ और है
विजयदशमी पर महज रावण का पुतला फूंक देना ही काफी नहीं है। रावण तो केवल बुराई का प्रतीक है। जरूरत है अपने अंदर की बुराई को खत्म करने की।
शास्त्री कोसलेंद्रदास। रामलीला में श्रीराम दसवें दिन रावण का वध करते हैं। रावण वध के अभिनय को रोचक व लोकप्रिय बनाने हेतु खपच्चियों और घास-फूस से उसका पुतला बनाकर दहन करने की रस्म चल पड़ी। पहले यह उल्लास और हंसी-खुशी के लिए जोड़ा गया अभिनय मात्र था, पर धीरे-धीरे यह इस रूप में स्थापित हो गया कि दशहरे के दिन ही श्रीराम ने रावण को मारा था। भारतीय समाज में वैदिक काल से जो चार त्योहार मनाए जा रहे हैं, उनमें ‘विजयादशमी’ एक है। रक्षाबंधन, दीपावली और होली के साथ विजयादशमी प्राचीन उत्सवों में शामिल है। पर अब विजयादशमी का महत्व और इसे मनाने की परंपरा जितनी बिगड़ी, बदली और बनी, उतनी किसी दूसरे त्योहार की नहीं।
विजयादशमी को आम बोलचाल में दशहरा कहते हैं। आम लोगों की धारणा में यह दिन धर्म के मूर्तिमान विग्रह श्रीराम की रावण पर विजय से जुड़ा है। अत: लोग इसे अधर्म पर धर्म की विजय के प्रतीक का पर्व मानते हैं। आजकल दशहरा का सीधा-सा मतलब रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतले जलाकर श्रीराम विजय का हर्ष-उल्लास मनाना मात्र है। इससे आगे-पीछे के तथ्य जाने बिना ‘विजयादशमी’ को समझना बहुत कठिन है।
विजयादशमी अंधेरी शक्तियों के प्रतीक रावण को मारने का दिन है। उसके दस सिर अधर्म के दस स्वरूप हैं। इनमें पंचक्लेश अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश के साथ काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ जैसे भयानक धर्मविरोधी तत्व हैं। परंतु ऐसा नहीं है कि हमारे अंदर का ‘त्रेता’ मर गया है, वह शुद्धतम रूप में सदैव जीवित रहता है। हमारे भीतर ‘त्रेता’ का भाव शक्ति का अतुल भंडार है। जरूरत किसी योग्य योजक की है, जिसके मिलते ही हम अंधकार की शक्तियों का, गर्दभमुख असुर का और दसों दिशाओं में व्याप्त दशमुखी रावण का संहार कर सकने में समर्थ हैं। आवश्यकता है राम-जैसी पारदर्शी चरित्र प्रतिभा की, जो हमारे भीतर के ‘त्रेता’ में बैठकर अधर्म के विरुद्ध ‘कोदंड’ धनुष उठा सके।
खीझ और कुत्सा के स्थान पर उत्साह, धैर्य और शाश्वत ज्ञान को स्थापित कर सके! सुर-असुर प्राण दोनों ही हमारे भीतर बैठे हैं। आत्मा में विराजे ब्रह्म का अविद्या से आच्छादित होना ही आसुरी प्राण का अतिरेक हो जाना है। त्रैगुण्य प्रकृति के नकारात्मक भावों का आधिक्य होने पर व्यक्ति आसुरी कर्म के लिए प्रवृत्त हो जाता है। ऐसे में भीतर बैठा ब्रह्मरूप राम गौण हो जाता है और आसुरी रावण विकराल होकर लंकीय वातावरण का सृजन करने लगता है। तब मन की अयोध्या से राम का निर्वासन हो जाता है। इस अरण्य-अंधकार में सीता मात्र ‘देह’ रह जाती है। उसमें प्रतिष्ठित शक्ति का बोध मानव भूल बैठता है और सतीत्व का अपमान करने पर उतारू हो जाता है। ऐसा होते ही, व्यक्ति अविद्या के अंधकार में रावण बन जाता है।
भीतर के ‘पुरुषोत्तम’ को जगाने का अनुष्ठान विजया दशमी है। यह उत्सव प्रेरित करता है कि भले ही रावण के आसुरी भाव का कद कितना ही क्यों न बढ़ जाए, पर अंतत: विजय धर्म के धारक राम की ही होती है। वाल्मीकि रामायण में श्रीराम ने किष्किंधा के ऋष्यमूक पर्वत पर चातुर्मास अनुष्ठान किया था। श्रीराम का यह अनुष्ठान आषाढ़ी पूर्णिमा से शुरू होकर आश्विन मास में शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि तक चला था। इसके ठीक तुरंत बाद ‘विजयादशमी’ को श्रीराम ने अनुज लक्ष्मण, वानरराज सुग्रीव और वीर हनुमान के साथ शस्त्र पूजन कर रावण का विनाश करने के लिए लंका की ओर प्रस्थान किया।
पद्मपुराण के अनुसार श्रीराम का रावण से युद्ध पौष शुक्ल द्वितीया से शुरू होकर चैत्र कृष्ण तृतीया तक चला। चैत्र कृष्ण तृतीया को श्रीराम ने रावण का संहार किया था। इसके बाद अयोध्या लौट आने पर नव संवत्सर की प्रथम तिथि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ। अत: आश्विन शुक्ल दशमी को रावण वध की बात न केवल अतार्किक है, बल्कि पौराणिक मान्यता के भी विरुद्ध है। हां, रामलीला के उल्लास के लिए रावण का पुतला दहन मनोरंजक अवश्य है।
रामलीला की शुरुआत पंद्रहवीं शताब्दी के आसपास काशी से मानी जाती है। रामभक्ति परंपरा के विस्तार से रामलीला का मंचन शुरू हुआ। जब गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ की रचना की तो रामलीला के आयोजन बढ़ने लगे। काशी से शुरू होकर रामलीला का व्यापक असर उत्तर भारत में फैल गया। रामलीला में श्रीराम दसवें दिन रावण का वध करते हैं। पहले यह उल्लास और हंसी-खुशी के लिए जोड़ा गया अभिनय मात्र था, पर धीरे-धीरे यह इस रूप में स्थापित हो गया कि दशहरे के दिन ही श्रीराम ने रावण को मारा था।
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से लेकर नवमी तक दुर्गापूजा का उत्सव, जिसे नवरात्र भी कहते हैं, किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। वैसे शक्ति को पूजने का नवरात्र-उत्सव वर्ष में दो बार आता है, फिर भी आश्विन मास का दुर्गा पूजा-उत्सव अधिक जगहों पर धूमधाम से मनाया जाता है।
महाकवि कालिदास के ‘रघुवंश’ में ‘विजयादशमी’ पर शरद ऋतु होने से महाराज रघु ‘वाजिनीराजना’ नामक शांति कृत्य का अनुष्ठान करते थे। आचार्य वराहमिहिर ने ‘बृहत्संहिता’ में दशहरे पर राजाओं द्वारा शस्त्र व अश्व पूजन का शास्त्रीय विधान किया है। राजवंशों में दशहरे पर ‘शस्त्र पूजन’ की सुदृढ़ परंपरा है। न केवल क्षत्रियों में, बल्कि देश की सुरक्षा में समर्पित सेना व पुलिस संस्थाओं के वीर सपूत भी इस दिन ‘शस्त्र पूजन’ करते हैं।
वस्तुत: सत्ययुग में सुर 75 प्रतिशत, त्रेता में आधे-आधे और द्वापर में 25 प्रतिशत ही शेष रह गए। कलियुग में असुर प्राणों का सर्वत्र प्रभाव है। आज समाज में नारी के अपमान का जो घोर वातावरण बना दिखाई दे रहा है, उसमें इन्हीं आसुरी प्रवृत्तियों का वर्चस्व है! प्रगाढ़ रिश्तों के बीच कब ‘रावण’ उठ खड़ा होता है, पता ही नहीं चल पाता! इस अंधेरे रावण को देख पाने के लिए प्रकाश जरूरी है। राम रूपी प्रकाश भीतर देख पाएं तो ‘राम राज्य’ को स्थापित कर पाएंगे और अंदर से शक्तिमान बन पाएंगे! दशहरा को समझने के लिए कई शताब्दियों से देश देश-दुनिया में चली आ रही रामलीला की परंपरा और उससे जुड़े हुए इतिहास को समझना आवश्यक है।
(लेखक राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में सहायक आचार्य हैं)
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