Railway Encroachment : पुलिस, प्रशासन और राजनीति की सांठगांठ से पनपा अतिक्रमण
तमाम शहरों में रेलवे लाइनों के किनारे झुग्गी-झोपड़ी बनाकर सालों से बैठे लोगों को पेयजल आपूर्ति राशन कार्ड बिजली के कनेक्शन और वोटर कार्ड जारी हो जाते हैं। आखिर यह सब कौन करता है?
नई दिल्ली, सुरेंद्र प्रसाद सिंह। रेलवे की जमीनों पर अतिक्रमण कई रूपों में हैं। इसे परिभाषित करने और फिर कार्रवाई करने में होने वाली चूक अतिक्रमण की समस्या को और बढ़ा देती है। रेलवे की नीतियां अपनी जगह भले ही मजबूत हों, लेकिन स्थानीय पुलिस, प्रशासन, राजनीति और रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ) की सांठगांठ इस समस्या को और बढ़ा देती है। इन पर अंकुश लगाने के उपाय कई मर्तबा किए गए, लेकिन मुश्किलें आसान नहीं हो सकीं।
तमाम शहरों में रेलवे लाइनों के किनारे झुग्गी-झोपड़ी बनाकर सालों से बैठे लोगों को पेयजल आपूर्ति, राशन कार्ड, बिजली के कनेक्शन और वोटर कार्ड जारी हो जाते हैं। आखिर यह सब कौन करता है? वोट बैंक के रूप में विकसित हो जाने वाली अवैध बस्तियों को फिर वहां से हटाना स्थानीय रेलवे अफसरों के बूते की बात नहीं रह जाती है।
आरपीएफ के महानिदेशक अरुण कुमार ने इस सवाल पर 'दैनिक जागरण' से कहा- रेलवे की जमीन पर हुए अतिक्रमण को हटाने के लिए अभियान चलता ही रहता है। अतिक्रमण की कई श्रेणियां हैं, जिसमें अस्थाई अतिक्रमण को पुलिस तुरंत हटा देती है। लेकिन अतिक्रमण के कई मामले हैं जो अदालतों में विचाराधीन हैं। इनमें फैसला आने तक इंतजार करना पड़ता है। कुमार ने बताया कि रेलवे के महाप्रबंधक स्तर की हर बैठक में अतिक्रमण के मसले पर चर्चा होती है। अतिक्रमण हटाना रेलवे में सतत प्रक्रिया है। इसे नजरअंदाज नहीं किया जाता है। एक अन्य सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि अतिक्रमण हटाने में आरपीएफ की जहां जरूरत पड़ती है, वहां बल उपलब्ध कराया जाता है।
रेलवे में अतिक्रमण को चार श्रेणियों में बांटा गया है। पहली में सबसे कठिन अतिक्रमण को रखा गया है। यह पुराना होने के साथ पक्के निर्माण वाला होता है। यहां का मामला अदालतों में होता है। इनकी निगरानी जोन महाप्रबंधक स्तर का अधिकारी करता है। इसी तरह के दूसरी श्रेणी के अतिक्रमण की निगरानी डीआरएम स्तर का अधिकारी अपने अफसरों के साथ करता है। तीसरी और चौथी श्रेणी वाले अतिक्रमण की निगरानी करने का दायित्व डिवीजनल स्तर के अफसर को सौंपा गया है। अतिक्रमण रोकने और हटाने का फैसला होने के बाद आरपीएफ के साथ स्थानीय प्रशासन का सहयोग लिया जाता है।पहली और दूसरी श्रेणी वाले अतिक्रमणों को हटाने का फैसला चूंकि अदालतों से होता है, इसमें समय लगता है। हटाए जाने वाले लोगों के पुनर्वास में भी सहयोग देना पड़ता है। इसे लेकर रेलवे को दोहरा नुकसान हो रहा है।
रेलवे के आंकड़ों के मुताबिक, अतिक्रमण की सर्वाधिक घटनाएं नॉर्दर्न रेलवे में हैं, जहां 1145 हेक्टेयर भूमि पर अवैध कब्जा है। वहीं, दूसरे स्थान पर दक्षिणी पूर्वी रेलवे है, जिसमें 182 हेक्टेयर रकबे पर अतिक्रमण है। नॉर्दन फ्रंटियर रेलवे की 175 हेक्टेयर भूमि पर अतिक्रमण है। सेंट्रल रेलवे की 81 हेक्टेयर और वेस्टर्न रेलवे की 47 हेक्टेयर जमीन पर नाजायज कब्जा है। सबसे ज्यादा खाली भूमि (7383 हेक्टेयर) वेस्ट रेलवे के पास है। ईस्टर्न सेंट्रल रेलवे के पास 5923 हेक्टेयर भूमि है। साऊथ सेंट्रल रेलवे के पास 4248 हेक्टेयर रकबा खाली है।
रेलवे को ही उठाना पड़ता है दोहरा नुकसान
आरपीएफ के महानिदेशक अरुण कुमार ने बताया कि ट्रैक के किनारे की या रेलवे की अन्य भूमि पर पुराने या पक्के निर्माण वाले अतिक्रमणों से संबंधित मामले अंततः अदालतों तक जाते हैं। इसलिए फैसला भी अदालतों से होता है। रेलवे अपना पक्ष रखता है। फैसले के अनुरूप अतिक्रमण हटाए जाने पर हटाए जाने वाले लोगों के पुनर्वास में सहयोग देना पड़ता है। इससे आखिरकार रेलवे को ही दोहरा नुकसान उठाना पड़ता है।