दोहरी चुनौतियों पर परखा जाएगा राहुल गांधी का नेतृत्व
कांग्रेस इस समय जिस संक्रमण के दौर से गुजर रही है उसमें राहुल को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
संजय मिश्र, नई दिल्ली। कांग्रेस में राहुल गांधी के नेतृत्व संभालने को लेकर जारी कशमकश खत्म होने जा रहा है और इसके साथ ही देश की सबसे पुरानी पार्टी में पीढ़ी परिवर्तन भी कुछ दिनों की बात रह गई है। राहुल के नेतृत्व को लेकर भी पार्टी में किसी तरह की चुनौती की गुंजाइश नहीं है और शिखर संगठन पर उनकी ताजपोशी बेशक धूम-धड़ाके से होगी। मगर कांग्रेस इस समय जिस संक्रमण के दौर से गुजर रही है उसमें राहुल को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
कांग्रेस इस वक्त अपने राजनीतिक इतिहास के सबसे खराब दौर से गुजर रही है और राहुल गांधी के लिए यह चुनौती और भी ज्यादा इसलिए बड़ी मानी जा रही है क्योंकि उनके नेतृत्व संभालने को लेकर काफी लंबे अर्से तक पार्टी में दुविधा की स्थिति रही है। कांग्रेस 2014 में न केवल लोकसभा चुनाव में सबसे करारी शिकस्त से रूबरू हुई बल्कि बीते साढ़े तीन साल के दौरान पंजाब को छोडकर लगभग सभी राज्यों के चुनाव में उसकी हार हुई। कभी केंद्र से लेकर सूबों में लगभग एक छत्र राज करने वाली कांग्रेस पंजाब और कर्नाटक के अलावा किसी बड़े राज्य में सत्ता में नहीं है।
पार्टी की इस हद तक खिसकी राजनीतिक जमीन को वापस लाने की चुनौती के साथ राहुल के सामने कांग्रेस अध्यक्ष की कमान संभालने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शख्सियत से सियासी मुकाबला करना होगा। बीते सालों में नेतृत्व के लिए चेहरे की अहमियत जिस कदर चुनाव में सामने आयी है उसमें राहुल के लिए मोदी के नेतृत्व की शैली और अंदाज से मुकाबला करना आसान नहीं है।
कांग्रेस के भीतर भी राहुल को कई तरह की चुनौतियों से रूबरू होना पडेगा। इसमें सबसे पहले तो कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर राहुल को अपने वरिष्ठ नेताओं को साथ लेकर चलने के लिए अपनी शैली और उनकी अपेक्षाओं के बीच संतुलन बनाना होगा। पार्टी के कई अहम वरिष्ठ नेता राहुल की शैली को लेकर अंदरखाने दबी जबान में आवाज उठाते रहे हैं और उनकी ताजपोशी में देरी की एक बडी वजह भी वरिष्ठों से उनका तालेमल नहीं बैठने को माना जाता है। इस दिशा में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी राहुल को कई मौकों पर समझाने की कोशिश की और वरिष्ठ नेताओं और राहुल के बीच तालमेल बनाने के लिए सेतु का काम किया। अब राहुल को सीधे वरिष्ठों से डील करना होगा और उनको साथ लेकर चलना पडेगा क्योंकि राहुल की युवा ब्रिगेड की टीम अभी इस लायक नहीं हुई कि भाजपा की मौजूदा राजनीति के दांव से मुकाबला कर सके।
राहुल को सियासी कसौटी पर तो उनके अध्यक्ष बनने के तत्काल बाद ही कसा जाने लगेगा और गुजरात तथा हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे इसकी वजह बनेंगे। हिमाचल में कांग्रेस सत्ता में है और भाजपा को वहां दावेदार माना जा रहा तो गुजरात में कांग्रेस ढ़ाई दशक से बाहर है। इसीलिए राहुल पूरा जोर भी लगा रहे हैं मगर गुजरात पीएम नरेंद्र मोदी का गृह राज्य है और इसके नतीजे अगले लोकसभा चुनाव को भी प्रभावित करेंगे। इसे देखते हुए मोदी और भाजपा गुजरात में कांग्रेस को मौका देने से रोकने के लिए पूरी सियासी ताकत झोंकेंगे।
कांग्रेस अध्यक्ष के रुप में हिमाचल और गुजरात के नतीजे ही राहुल के लिए अहम नहीं होंगे बल्कि इसके बाद अगले साल मई में कर्नाटक और साल के अंत में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के चुनाव में उन्हें कांग्रेस की नैया संभालनी होगी। इन चुनावों के सियासी नतीजों से ही काफी कुछ 2019 के लोकसभा चुनाव की दशा-दिशा तय होने की संभावनाएं हैं। साफ है कि अध्यक्ष की कुर्सी संभालने के बाद राहुल के पास ज्यादा प्रयोग करने के लिए समय नहीं है। अभी सोनिया गांधी की तरह पार्टी के अंदर ही नहीं बाहर भी राजनीतिक सम्मान उन्हें हासिल करना है।
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