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दान की रकम के प्रबंधन पर सवाल, मदद देने का परंपरागत तरीका भी बदले

बात भारत के शहरों की करें तो यहां के महानगरीय विस्तार को सबसे पहले इस आधार पर देखने की जरूरत है कि समुद्र तट पर बसे होने का फायदा किन महानगरों को मिल रहा है और किन पर बगैर इस अनुकूलता के आगे बढ़ने का दबाव है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Wed, 07 Sep 2022 10:01 PM (IST)Updated: Wed, 07 Sep 2022 10:01 PM (IST)
दान की रकम के प्रबंधन पर सवाल, मदद देने का परंपरागत तरीका भी बदले
महानगरों की गिनती के हिसाब से महाराष्ट्र देश का सबसे अव्वल राज्य है।

डॉ. संजय वर्मा। दुनिया के चलने के जितने नियम बताए गए हैं, उनमें दानियों की उदारता सबसे ऊंचे पाए की मानी जाती है। भारतीय दर्शन और आदिपुराणों में इसकी कुछ ज्यादा ही महिमा गाई गई है। इनमें बताया गया है कि कैसे महर्षि दधीचि ने दानवों से संघर्ष के लिए देवताओं को शक्ति प्रदान करने के लिए वज्र बनाने के उद्देश्य से अपनी हड्डियां तक दान में दी थीं। पुराण-ग्रंथों में वर्णित ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा त्याग’ मंत्र का आशय भी यही बताया गया है कि जो आनंद दान करने में है, वह किसी भी पुण्य से बढ़कर है। इधर इन सारे प्रसंगों की चर्चा एक खास मामले में उठी है। हाल में दावा किया गया है कि इंटरनेट मीडिया के जरिये किसी गरीब या असहाय बीमार के इलाज के लिए बेहद महंगी दवाओं या आपरेशन के वास्ते क्राउड फंडिंग से लाखों रुपये का जो दान जुटाया जाता है, उसमें असल में बड़ा भारी फर्जीवाड़ा हो सकता है।

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क्राउड फंडिंग की परदेदारी

कुछ स्वतंत्र जांच और निगरानी करने वाले जागरूक लोगों की खोजबीन में इलाज की ऐसी तमाम मार्मिक पुकारों के पीछे किसी धांधली की आशंका नजर आई है। मुमकिन है कि बहुतेरे मामलों में दानियों से पैसा जुटाकर गरीबों की मदद वाली सद्भावना ही काम कर रही हो, लेकिन क्राउड फंडिंग की ज्यादातर कोशिशों में इतनी परदेदारी है कि दान करने के लिए आगे बढ़ते हाथ सिकुड़ सकते हैं। सच्चाई जानकर दान करने वालों को इसका अहसास हो सकता है कि असल में गरीबों की मदद के नाम पर उन्हें चूना लगाकर किसी ने अपना उल्लू सीधा कर लिया है। इलाज में मदद के लिए क्राउड फंडिंग के ऐसे तौर-तरीकों को लेकर संदेह तो काफी समय से उठ रहे हैं। पूछा जाता रहा है कि जिन बीमार और लाचार लोगों के चेहरे की फोटो और वीडियो इंटरनेट मीडिया पर दिखाकर, जो भारी-भरकम राशि क्राउड फंडिंग के रूप में जमा की जाती है, क्या वास्तव में वह पैसा उन्हीं पर खर्च होता है? कहीं ऐसी राशि में से फंड जुटाने वाला तंत्र (अस्पताल, वेबसाइट या निजी संगठन) अपने लिए मोटा कमीशन तो नहीं काट लेता है? या फिर दिल, किडनी, लिवर के इलाज पर जो 10-12 या 20-25 लाख रुपये खर्च बताया जाता है, असल में इलाज पर उसका दसवां हिस्सा ही खर्च होता है और बची धनराशि को यह तंत्र कथित तौर पर अस्पतालों की मिलीभगत से हड़प कर जाता है?

बीते कई वर्षों में ऐसी असंख्य तस्वीरें और वीडियो लोगों ने अक्सर इंटरनेट मीडिया के मंचों पर देखे होंगे, जहां किसी अस्पताल या क्राउड फंड जुटाने वाले संगठन के नाम-पते के साथ कोई मां या लाचार पिता अपने मासूम बच्चे के बेहद महंगे इलाज में होने वाले खर्च के लिए कुछ धनराशि की गुहार लगाता है। ऐसे वीडियो देखकर पत्थरदिल भी पसीज जाते हैं। इस पर वे लोग, जो मानवता के नाम पर ऐसी पुकार अनसुनी नहीं कर सकते या फिर जिन्हें शास्त्रों में वर्णित दान-पुण्य की रीतियों के अनुसार परोपकार करना सबसे बड़ा धर्म लगता है, दिल खोलकर दान करते हैं। निश्चय ही ऐसे धर्मात्मा गलत नहीं हैं। हमारी भारतभूमि ऐसे धर्मात्माओं से कभी रिक्त नहीं हो-यह कामना भी की जा सकती है, लेकिन पुण्यार्जन के उद्देश्य से इतर भी इंसानियत के नाम पर बटोरी गई सहायता अगर किसी फर्जी खाते में जा रही हो तो ऐसे खुलासे तमाम लोगों को मदद से हाथ खींचने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

मदद वाले इलाज का खर्च ज्यादा क्यों

हाल में एक अंग्रेजी अखबार ने एक बाल हृदयरोग चिकित्सक के ट्वीट पर ऐसे मामलों की पड़ताल की तो कई चौंकाने वाले निष्कर्ष सामने आए। उन्होंने अपने ट्वीट में धन जुटाने की इस प्रक्रिया (क्राउड फंडिंग) पर यह कहते हुए सवाल उठाया था कि एक मरीज की जिस चिकित्सा के लिए पैसा जुटाया गया था, वह राशि देश की राजधानी में स्थित एक शीर्ष निजी अस्पताल में खर्च होने वाली राशि से कई गुना ज्यादा थी। उस समाचार पत्र ने मामले की तह में जाने के लिए क्राउड फंडिंग के मंचों से अस्पताल और उसके चिकित्सक के पत्रों को जमा किया। ये सुबूत दिल्ली के उसी शीर्ष अस्पताल में भेजे गए, जिस अस्पताल और चिकित्सक का हवाला देकर मदद की मांग की जा रही थी। इन पत्रों में दावा किया था कि उस अस्पताल में एक बीमार बच्चे के दिल के इलाज पर 12 लाख रुपये का खर्च आ रहा है, जिसे उसके अभिभावक वहन करने में असमर्थ हैं। पूछताछ पर अखबार को अस्पताल के प्रवक्ता ने पहले तो जवाब दिया कि जिस डाक्टर का संदर्भ देकर मदद मांगी गई है, उसने मदद की मांग करने वाले पत्र जारी नहीं किए हैं। साथ ही दावा किया कि उपलब्ध रिकार्ड की जांच में ऐसा कोई मरीज नहीं मिला, जिससे संबंधित इलाज के नाम पर पैसा जमा कराया जा रहा था। अखबार ने जुटाए गए धन के इस्तेमाल की बाबत जब संबंधित क्राउड फंडिंग संगठन से पूछताछ की तो उसने इसके विवरण दिए कि कैसे वह सारा धन दिल्ली के उसी अस्पताल को हस्तांतरित किया गया है। इसके बावजूद अस्पताल अपने इस तथ्य पर कायम रहा कि उसका मदद की अपील वाले पत्रों से कोई लेना-देना नहीं है।

कहीं मकसद कमीशनखोरी तो नहीं

क्राउड फंडिंग से जुड़े फर्जीवाड़ों पर देश का ध्यान खींचने वाले चिकित्सक प्रशांत मिश्रा का कहना है कि मार्मिक वीडियो बनाकर धन उगाहने वाले संगठनों के कर्मचारी कुछ बड़े अस्पतालों से इलाज के लिए ऊंची कोटेशन देने का आग्रह करते हैं, ताकि जुटाई गई रकम में से अस्पताल और क्राउड फंड लेने वाले संगठन अपना मोटा कमीशन बना सकें। उनके मुताबिक ऐसे ही एक गंभीर मरीज के इलाज के लिए 25 लाख रुपये की रकम जुटाई गई, जिसमें से 21 लाख अस्पताल और डाक्टरों ने ली, जबकि चार लाख रुपये क्राउड फंडिंग करने वाले संगठन ने बतौर कमीशन रख लिए।

फिर भी यह सवाल तकरीबन अनुत्तरित ही है कि आखिर उसी अस्पताल में एक ही बीमारी के इलाज-आपरेशन के खर्च की लागत क्राउड फंडिंग के मामले में कई गुना तक ज्यादा क्यों हो जाती है? इस बारे में क्राउड फंडिंग संगठन-मिलाप का दावा है कि वह फंड जुटाने की मदद के काम में कोई कमीशन नहीं लेता है। जबकि दूसरे संगठन-केट्टो ने ‘केट्टो सक्सेस फीस’ के नाम पर लिए जाने वाले शुल्क की व्यवस्था कर रखी है, जिसमें कुल जमा की गई धनराशि में से शून्य से लेकर पांच प्रतिशत तक का हिस्सा लिया जाता है। केट्टो के मुताबिक यह शुल्क मरीज की मदद के लिए इंटरनेट मीडिया पर अभियान चलाने से लेकर दानकर्ताओं की तलाश पर होने वाले खर्च की भरपाई के लिए लिया जाता है। यानी यहां मामला दान-पुण्य या धर्म-कर्म का नहीं, किसी कंपनी की तरह सेवाओं के संचालन और कमाई का है। एक सवाल यह भी है कि जब देश में बहुत सारे अस्पतालों में उन सभी बीमारियों के इलाज और सर्जरी तक मुफ्त उपलब्ध हैं, तब गरीब मरीजों-तीमारदारों का रुदन दिखाकर क्राउड फंडिंग करने वाले मंच लाखों का दान जुटाने के बजाय पहले उन्हीं अस्पतालों का रुख क्यों नहीं करते? जो चिकित्सा मुफ्त में हो सकती है, उस पर लाखों रुपये जुटाना कहां तक उचित है?

खुली अर्थव्यवस्था के साथ विकास की जो छतरी पूरी दुनिया में तनी थी, उसके अंतर्विरोध अब इतने बढ़ गए हैं कि विकास के दर्शन और प्रतिमान पर अब नए सिरे से बात हो रही है। कोरोना संकट के बीते दो वर्षों में अमेरिका से लेकर यूरोप तक में अर्थव्यवस्था को लेकर एक संरक्षणवादी सोच खासतौर पर उभरा है। विकास की नई वैश्विक दिशा और दशा को लेकर मचे इस ऊहापोह के बीच कुछ ऐसे तथ्य हैं, जो दिखाते हैं कि आने वाले दो-तीन दशकों में पूरी दुनिया में तरक्की का महानगरीय जोर खासा प्रभावी होने जा रहा है। दरअसल दुनिया में शहरीकरण की प्रक्रिया न सिर्फ तेज हुई है, बल्कि आजीविका और जीवनशैली के नए विकसित हो रहे सरोकार भी शहरों के प्रति आकर्षण बढ़ा रहे हैं।

अगले 25 साल के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकसित भारत का जो नक्शा खींचा है, उसमें शहरीकरण और शहरी विकास पर जोर स्वाभाविक तौर पर दिखाई देता है। भारत में फिलहाल तो हर 10 में से सात भारतीय जहां रहते हैं, उन्हें ग्रामीण क्षेत्र का दर्जा मिला हुआ है। अलबत्ता इनमें से कई इलाके अब ऐसे दिखने लगे हैं कि उन्हें सीधे तौर पर ग्रामीण नहीं माना जा सकता। जनसंख्या घनत्व में बढ़ोतरी और रोजगार के पैटर्न में बदलाव से शहरों के पास के कई ग्रामीण इलाके भारत के जनगणना कार्यालय के शहरी क्षेत्र की शर्तों को पूरा करने लगे हैं। इसलिए अब इन्हें शहरी क्षेत्र माना जा रहा है। बड़े शहरों में जगह न बचने, टियर-2 शहरों में आबादी बढ़ने और आर्थिक गतिविधियों में तेजी आने से भी शहरीकरण की प्रक्रिया प्रभावित हो रही है। मसलन अब टियर-2 शहर विकास के नए केंद्र बन रहे हैं। नेशनल कमीशन आन पापुलेशन का अनुमान है कि अगले तकरीबन डेढ़ दशक में यानी 2036 तक 38.6 प्रतिशत भारतीय शहरी इलाकों में रहेंगे। यानी तब 60 करोड़ लोगों का बसेरा इनमें हो जाएगा। संयुक्त राष्ट्र ने भी कहा है कि 2018 से 2050 के बीच भारत में शहरी आबादी 46.1 करोड़ से बढ़कर 87.7 करोड़ यानी दोगुनी हो जाएगी।

शहरीकरण का जो जोर भारत में दिख रहा है, वह वैश्विक रुझान का ही हिस्सा है। पिछली सदी के सातवें दशक में दुनिया की करीब 33 प्रतिशत आबादी शहरी क्षेत्रों में निवास करती थी, जो 2020 तक बढ़कर 55 प्रतिशत पर पहुंच गई। उत्तरी अमेरिका में सबसे ज्यादा शहरी क्षेत्र हैं, जहां 82 प्रतिशत आबादी शहरी क्षेत्रों में निवास करती है। इसके विपरीत वर्ष 2020 तक एशिया में शहरीकरण की दर 50 प्रतिशत थी, जिसका मतलब है कि तब इसकी आधी आबादी शहरों में रहती थी। वहीं अफ्रीका में शहरीकरण की दर महज 43 प्रतिशत थी।

विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का करीब 80 प्रतिशत हिस्सा शहरों में सृजित हो रहा है। इस आलोक में देखें तो भारत का वित्त वर्ष 2022-23 का आम बजट काफी महत्वपूर्ण है। अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि भारत जब अपनी आजादी का शताब्दी मना रहा होगा तब देश की आधी जनसंख्या शहरों में निवास कर रही होगी। वर्तमान समय में देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी गांव‍ों में निवास कर रही है। साफ है रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विकास के पैमानों पर भारत सरकार अगले 25 वर्षों में जिस तरफ आगे बढ़ना चाहती है, वह दिशा काफी हद तक शहरीकरण की ओर है। हालांकि इसके लिए देश में एक सुव्यवस्थित शहरी विकास की जरूरत होगी। मेगा सिटी के पोषण की जरूरत होगी तथा आसपास के क्षेत्रों को आर्थिक विकास के केंद्रों के रूप में विकसित करने की जरूरत होगी। केंद्र सरकार को इस दिशा में राज्यों को भी साथ लेकर बढ़ना होगा।

समुद्र तट को छूता महाराष्ट्र का भूगोल उसकी शहरी क्षमता को कई अनुकूलताओं और संभावनाओं से जोड़ता है। इन अनुकूलताओं और संभावनाओं के बिना आगे बढ़ने का सबसे ज्यादा दबाव जिस प्रदेश पर है, वह है उत्तर प्रदेश। अच्छी बात यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार भी इस चुनौती को समझ रही है और इसी के अनुरूप उसने कुछ ठोस कदम उठाए हैं। इस सूबे में शहरी विकास से जुड़े कदम देश की तरक्की और अर्थव्यवस्था को नई संभावनाओं से जोड़ेंगे। यह देश को आने वाले दिनों में शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर आजीविका से जोड़ने वाला विकासवादी उपक्रम साबित होगा।

[एसोसिएट प्रोफेसर, बेनेट विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा]


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