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पूर्णिमा देवी बर्मन सारस की दुर्लभ प्रजाति को बचाने में 13 सालों से जुटीं, UN ने किया सम्‍मानित

‘बर्डमैन आफ इंडिया’ सालिम अली की भांति पूर्णिमा देवी बर्मन ने भी अपना जीवन पक्षियों के संरक्षण में समर्पित कर दिया है। गिद्ध की तरह ये भी प्राकृतिक सफाईकर्मी का कार्य करते हैं। ये मछली और सरीसृप के अलावा शव एवं कचरा खाते हैं और धरा को स्वच्छ बनाते हैं।

By Jagran NewsEdited By: TilakrajPublished: Wed, 30 Nov 2022 08:47 AM (IST)Updated: Wed, 30 Nov 2022 08:47 AM (IST)
पूर्णिमा देवी बर्मन सारस की दुर्लभ प्रजाति को बचाने में 13 सालों से जुटीं, UN ने किया सम्‍मानित
गिद्ध की तरह सारस भी प्राकृतिक सफाईकर्मी

नई दिल्‍ली, सुधीर कुमार। हाल में संयुक्त राष्ट्र ने अपने सर्वोच्च पर्यावरण सम्मान ‘चैंपियंस आफ द अर्थ’ के विजेता घोषित किए हैं। विजेताओं में भारत की वन्यजीव जीवविज्ञानी पूर्णिमा देवी बर्मन का नाम भी है। पूर्णिमा सारस की दुर्लभ और लुप्तप्राय प्रजातियों में से एक ‘ग्रेटर एडजुटेंट’ के संरक्षण में पिछले 13 वर्षों से जुटी हैं। ‘बर्डमैन आफ इंडिया’ सालिम अली की भांति पूर्णिमा ने भी अपना जीवन पक्षियों के संरक्षण में समर्पित कर दिया है। उनकी इस मुहिम में हजारों महिलाओं का साथ भी मिला है, जो सारसों के संरक्षण के लिए पेड़ों को सहेजने, घायल सारसों के उपचार और जागरूकता के प्रसार में पूरे मनोयोग से जुटी हैं।

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‘ग्रेटर एडजुटेंट’ की वैश्विक आबादी 1200 के करीब

अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ के अनुसार, ‘ग्रेटर एडजुटेंट’ की वैश्विक आबादी 1200 के करीब है। यह भारत के मुख्यतः दो हिस्सों-असम के गुवाहाटी और बिहार के भागलपुर में तथा कंबोडिया में ही पाए जाते हैं। असम में इसकी तादाद 80 प्रतिशत तक है। असम की स्थानीय भाषा में इसे ‘हरगिला’ और बिहार में ‘गरुड़’ कहा जाता है। एक समय असम में ‘ग्रेटर एडजुटेंट’ की बहुलता थी, लेकिन सारस की इस प्रजाति को वहां के लोग अपशकुन और रोग-वाहक के रूप में देखते थे। इस कारण, उसके ठिकानों को हटा दिया जाता था।

धरा को स्वच्छ बनाते हैं सारस

हालांकि, गिद्ध की तरह ये भी प्राकृतिक सफाईकर्मी का कार्य करते हैं। ये मछली और सरीसृप के अलावा शव एवं कचरा खाते हैं और धरा को स्वच्छ बनाते हैं। इनके लुप्त होने की प्रमुख वजह वनों का उजड़ना, अंधविश्वास और मानव के साथ संघर्ष है। पूर्णिमा ने इस पक्षी के संरक्षण के लिए अनोखी तरकीब निकाली। उन्होंने 2009 में ‘हरगिला सेना’ नामक संस्था बनाई। फिर हजारों महिलाओं को इससे जोड़ा। इस संस्था से जुड़ी महिलाएं वस्त्रों पर पक्षी का चित्र उकेरती हैं और उन्हें बेचती हैं। इससे जहां उन्हें आर्थिक संबल मिलता है, वहीं लुप्त होती सारस की प्रजाति के संरक्षण के प्रति जागरूकता का प्रसार भी होता है।

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हरगिला सेना ऐसी कर रही लोगों को सारस के संरक्षण के लिए जागरूक

हरगिला सेना से जुड़ी महिलाएं कपड़ों की थैलियों पर और सामाजिक आयोजनों के दौरान अपने हाथों में मेंहदी के जरिये सारस की छवि उकेरकर लोगों को जागरूक करती हैं। संरक्षण की इस मुहिम को अब अंतरराष्ट्रीय सराहना मिली है। यह सफलता औरों को प्रेरित करती है। चिड़ियों की चहचहाहट से घर-आंगन की शोभा बढ़ती है, लेकिन औद्योगीकरण और शहरीकरण ने एक तरफ जहां पेड़-पौधों का गला घोंट दिया, वहीं इससे पेड़ों पर घोंसला बनाकर रहने वाली पक्षी प्रजातियां भी बेघर होती गईं। बढ़ते शोरगुल के कारण भी चिड़ियों का कलरव गुम-सा हो गया है। अतः इस दिशा में व्यक्तिगत स्तर पर भी कोशिशें जारी रखनी होंगी।

( लेखक बीएचयू में शोध अध्येता हैं)

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