नशे की गिरफ्त में आकर उजड़ रहा भारत का एक राज्य, सरकार अब जाकर हुई सख्त
कितने दुख की बात है कि जो प्रदेश कभी अपने लहलहाते खेतों और सरहदों की रखवाली करने वालों के लिए जाना जाता था, अब बुरी तरह नशे की गिरफ्त में है
[अभिषेक कुमार सिंह]। जो प्रदेश कभी अपने लहलहाते खेतों और सरहदों की रखवाली करने वालों के लिए जाना जाता था, अब बुरी तरह नशे की गिरफ्त में है और वहां की सरकार को इससे दो-दो हाथ करने के लिए कड़े उपाय करने पड़ रहे हैं। बात पाकिस्तान से सटे और अनाज से लेकर हर मामले में धनी कहलाने वाले राज्य पंजाब की हो रही है, जहां कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार ने हाल में नशे के खिलाफ दो बड़े प्रावधान किए हैं।
ड्रग तस्करों को फांसी
ड्रग्स की समस्या से जूझ रहे पंजाब में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने राज्य मंत्रिमंडल की बैठक के बाद केंद्र सरकार से यह सिफारिश की कि वह राज्य में ड्रग तस्करों को पहली बार के अपराध में ही मौत की सजा देने का प्रावधान करे। अभी यह व्यवस्था मादक पदार्थों की तस्करी में दूसरी बार अपराध साबित होने पर लागू थी। हाल में मंत्रिमंडल की बैठक के बाद मुख्यमंत्री ने ट्वीट किया था कि चूंकि मादक पदार्थों की तस्करी पूरी पीढ़ी को बर्बाद कर रही है, ऐसे में इसके लिए मिसाल देने लायक सजा जरूरी है। इसके लिए उन्होंने नशामुक्त पंजाब के प्रति अपनी कटिबद्धता पर अडिग होने की बात कही, जिसका एक प्रस्ताव उन्होंने अपने चुनावी घोषणापत्र में भी किया था।
कर्मचारियों का डोप टेस्ट
कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इस पेशकश के कुछ ही दिन बाद एक और ऐलान किया। उन्होंने कहा कि पंजाब सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए ड्रग्स की जांच करने वाला डोप टेस्ट बाध्यकारी होगा। इन कर्मचारियों में पुलिस अधिकारी भी शामिल होंगे और उनकी जांच सर्विस के हर स्तर पर होगी। इसके अलावा अब पंजाब में नियुक्ति और पदोन्नति के लिए भी कर्मचारियों का यह डोप टेस्ट बाध्यकारी होगा। यह टेस्ट उसी तरह का है जिस तरह का टेस्ट ओलंपिक समेत आज हर बड़ी खेल प्रतियोगिता में एथलीटों व अन्य खिलाड़ियों को देना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि पंजाब में राज्य सरकार के करीब 3.5 लाख कर्मचारी हैं, इसलिए नशे पर रोकथाम के ये उपाय कारगर साबित हो सकते हैं।
समस्या की भयावहता
इन कड़े उपायों को पंजाब सरकार अचानक क्यों आजमाने के लिए प्रेरित या बाध्य हुई, इसकी कुछ वजहें हाल की हैं। पिछले दिनों फरीदकोट (पंजाब) का एक वीडियो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ था, जिसमें एक महिला कूड़े के ढेर में पड़े अपने बेटे के शव के पास विलाप करती दिखाई दे रही थी। वीडियो में यह भी दिख रहा था कि उस लड़के के हाथ की नसों में नशे का इंजेक्शन लगा हुआ था। वीडियो से साफ हो रहा था कि वह लड़का नशे का आदी था और शायद ड्रग्स की ओवरडोज की वजह से उसकी मौत हो गई।
इसी तरह अमृतसर से सोशल मीडिया पर सर्कुलेट हुए एक अन्य वीडियो में एक व्यक्ति अपने बेटे की मौत का शोक मनाता दिख रहा था। बताया गया कि उसका बेटा भी नशे की गिरफ्त में था। इन घटनाओं के संबंध में विपक्षी आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने राज्य में विरोध प्रदर्शन भी किए थे। राज्य में नशे के प्रभाव के बारे में इधर जो रिपोर्ट आईं, उनमें बताया गया कि इस साल सिर्फ जून माह में ही पंजाब में नशे की लत की वजह से 23 लोगों की मौत हो गई। हालांकि राज्य के स्वास्थ्य मंत्री ब्रह्म मोहिंदर ने इन आंकड़ों को स्वीकार नहीं किया और पिछले साल से अब तक सिर्फ दो लोगों की मौत की वजह नशा करना बताया, लेकिन इन सब घटनाओं ने विपक्ष को पंजाब की कांग्रेस सरकार की घेराबंदी करने का मौका दे दिया। इससे बुरी तरह दबाव में आई अमरिंदर सरकार ने आनन-फानन में दो कड़े उपायों का ऐलान कर दिया।
नशे के खिलाफ बनता माहौल
हालांकि इससे पहले भी कैप्टन अमरिंदर सरकार ड्रग्स के कारोबार को थामने की के लिए कुछ कदम उठा चळ्की है। जैसे सत्ता में आने के कुछ समय बाद उन्होंने नशे की रोकथाम के लिए तत्कालीन एडिशनल डीजीपी हरप्रीत सिद्धू की अध्यक्षता में एक स्पेशल टास्क फोर्स का गठन किया था। लेकिन डेपुटेशन पर आए सिद्धू को नक्सलविरोधी अभियान में उनकी विशेषज्ञता को देखते हुए वापस बुला लिया गया। पर इसके बावजूद स्पेशल टास्क फोर्स ने कामकाज शुरू किया और मादक पदार्थों की सप्लाई रोकने के सिलसिले में एक साल के अंदर करीब 19 हजार नशाखोरों- कारोबारियों को पकड़ा।
इसी अवधि में दो लाख से ज्यादा नशापीड़ितों को इलाज मुहैया कराया गया। इन्हीं प्रयासों का नतीजा है कि नशाविरोधी कानूनों के तहत वहां करीब 4000 लोगों को नशा व्यापार में दोषी करार दिया गया और राज्य की जेलों में साढ़े पांच हजार से ज्यादा ऐसे लोगों को भेजा गया। एक आकलन है कि पिछले कुछ वर्षों में नशाविरोधी कानून के तहत सजा दिलाने के मामले में पंजाब सबसे आगे है और यहां सजा का प्रतिशत 82 फीसद से ज्यादा है।
सिर्फ पंजाब सरकार ही नहीं, बल्कि नशा विरोधी अभियानों की शुरुआत इधर कुछ सामाजिक संगठनों ने भी की है। जैसे इसी 7 जुलाई को सिखों की सर्वोच्च संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) के अध्यक्ष ने ऐलान किया कि अगर कोई अपनी मर्जी से नशा छोड़ना चाहता है तो एसजीपीसी उसका मुफ्त इलाज श्री गुरु रामदास अस्पताल में करवाएगी। इससे पहले इसी साल मार्च में पंजाब सरकार ने जिस ड्रग प्रीवेंशन ऑफिसर प्रोजेक्ट (डीएपीओ) की शुरुआत की थी, उसमें सिख समुदाय के जागरूकता फैलाने के लिए हजारों स्वयंसेवियों ने खुद को रजिस्टर करवाया था। साथ ही राज्य सरकार ने घोषणा की थी कि उसके सभी 3.5 लाख सरकारी कर्मचारी और पंचायती राज संस्थाओं में चुने गए करीब एक लाख प्रतिनिधि डीएपीओ अधिकारी की तरह भी काम करेंगे। इसके अलावा स्पेशल टास्क फोर्स ने राज्य के सभी स्कूलों में छात्रों को जागरूक बनाने के मकसद से तरनतारण से बड़ी प्रोजेक्ट (सहयोगी प्रोजेक्ट) शुरू किया था, जिसमें छात्रों, अध्यापकों और अभिभावकों को जोड़कर नशे के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है।
फैसलों का जमीन पर असर
कहने को तो पंजाब सरकार नशे के खिलाफ कई उपाय करते दिखाई दे रही है, लेकिन जमीन पर इन उपायों की एक हकीकत एडिशनल डीजीपी हरप्रीत सिद्धू के साथ हुए बर्ताव ने जाहिर कर दी है। उल्लेखनीय है कि सिद्धू राज्य के पुलिस महानिदेशक के बजाय सीधे मुख्यमंत्री कार्यालय को रिपोर्ट करते थे, लेकिन उन पर सरकार की तरफ से तब सवाल उठाए गए, जब पिछले साल जून 2017 में स्पेशल टास्क फोर्स ने कपूरथला के एक पुलिस इंस्पेक्टर इंदरजीत सिंह को हेरोइन के साथ रंगे हाथों गिरफ्तार कर लिया। उससे हुई पूछताछ के बाद मोगा जिले के एसएसपी राज जीत सिंह को सवालों के घेरे में लिया गया। इस प्रकरण के फौरन बाद स्पेशल टास्क फोर्स के कामकाज पर बंदिशें लगती दिखाई देने लगीं। यही नहीं, सिद्धू को वापस नक्सली अभियान में भेज दिया गया। इसके संकेत साफ हैं कि सरकार और प्रशासन में ही बैठे कुछ लोगों को नशाविरोधी अभियानों में क्यों कोई रुचि नहीं है।
इसी से पता चलता है कि नानक की वाणी और सूफी संतों की भक्ति के लिए मशहूर राज्य भीषण नशाखोरी की जद से बाहर क्यों नहीं आ पा रहा है। अफीम, चरस और शराब आदि नशों की चपेट में आई यहां की युवा पीढ़ी को बचाने के जो उपाय आज तक आजमाए गए हैं, वे असल में अंदर से खोखले रहे हैं। इसका संकेत दिल्ली स्थित एम्स के नेशनल ड्रग्स डिपेंडेंस ट्रीटमेंट सेंटर की एक रिपोर्ट कर चुकी है, जिसके अनुसार पंजाब सरकार जिस ढुलमुल तरीके से इस समस्या को काबू में करने की कोशिश करती रही है, उससे तो लगता है कि यह राज्य नशाखोरी के खिलाफ अपनी लड़ाई शुरू करने के पहले ही हार चुका है।
नशा करना आसान, छुड़ाना मुश्किल
नशे की गिरफ्त में आए शख्स को उस दुनिया से सही-सलामत वापस ले आना काफी मुश्किल और तकलीफदेह होता है। इधर जिस तरह से पंजाब ही नहीं, देश की युवा आबादी का बड़ा हिस्सा नशे की गिरफ्त में है और उससे बाहर आने को तैयार नहीं है, उससे यह सवाल काफी मौजूं हो गया है कि आखिर सरकार नशे की रोकथाम के अपने उपायों में कितना कामयाब हो पाएगी।
आज स्थिति यह है कि देश की राजधानी का दिल कहलाने वाले कनॉट प्लेस तक में सड़क किनारे या अंडरपासों में युवा समूह में नशा करते दिख जाते हैं। दिल्ली-एनसीआर में आए दिन चरस, गांजा, अफीम, स्मैक, हेरोइन, कोकीन, एलएसडी, म्याऊं-म्याऊं जैसे नशाखोरी के सामानों और लोगों की धरपकड़ की खबरें आती रहती हैं। तकरीबन हर हफ्ते कोई नाइजीरियाई शख्स नशे की खेप के साथ पकड़ा जाता है। सवाल उठता है कि हमारी सुरक्षा एजेंसियां आखिर क्या कर रही हैं जो बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, म्यांमार और नेपाल से आने वाली ऐसी खेपों को रोक नहीं पाती हैं। एक बड़ा सवाल नशा छुड़ाने वाली तकनीकों और इलाज की पद्धतियों का भी है। हमारी सरकार की मौजूदा नीति ड्रग एडिक्शन से निपटने के लिए सिंगल कोर्स ट्रीटमेंट देने की है, जिसमें नशे के शिकार शख्स को चार से छह हफ्ते तक वैकल्पिक दवाओं से ट्रीटमेंट दिया जाता है।
संयुक्त राष्ट्र नशे के इलाज की इस पद्धति को मान्यता तो देता है, लेकिन मौजूदा संसाधनों में आज के घोषित नशेड़ियों का इलाज शुरू किया जाए तो उन सभी का इलाज करने में दस से बीस साल लग जाएंगे। एक समस्या यह भी है कि भले ही नशे के आदी युवक को उनके परिजन इलाज दिलाना चाहते हैं, लेकिन अक्सर उन्हें इन चिकित्सा पद्धतियों और इलाज के केंद्र का पता ही नहीं होता। ऊपर से सरकार का ज्यादा ध्यान सिर्फ पुनर्वास और सुधार केंद्रों पर टिका है जिससे समस्या का संपूर्ण निराकरण संभव नहीं है।
एक दिक्कत यह भी है कि नशा सिर्फ एक खास इलाके तक सीमित नहीं रहता है, बल्कि नशे के कारोबारी धीरे-धीरे आसपास के इलाकों में भी अपना जाल फैला लेते हैं। जैसे-नशे की समस्या आज पंजाब तक सीमित नहीं है, बल्कि पड़ोसी राज्य हरियाणा इसकी चपेट में है, दिल्ली के स्कूल-कॉलेजों के सामने भी बच्चों को नशे से दूर रखना चुनौती बन गया है। हालात ये हैं राजस्थान का कोटा ड्रग्स का गढ़ माना जाने लगा है, उत्तराखंड के देहरादून में शाम ढलते नशे का धुआं और शराब की गंध माहौल में फैलने लगती है। यह असल में एक सामाजिक
समस्या भी है जो परंपरागत पारिवारिक ढांचों के बिखराव, स्वच्छंद जीवनशैली, सामाजिक अलगाव आदि के हावी होने और नैतिक मूल्यों के पतन के साथ और बढ़ती जा रही है। कितने दुख की बात है कि जो प्रदेश कभी अपने लहलहाते खेतों और सरहदों की रखवाली करने वालों के लिए जाना जाता था, अब बुरी तरह नशे की गिरफ्त में है और वहां की सरकार को इससे दो-दो हाथ करने के लिए कड़े उपाय करने पड़ रहे हैं। बात पाकिस्तान से सटे और अनाज से लेकर हर मामले में धनी कहलाने वाले राज्य पंजाब की हो रही है, जहां कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार ने हाल में नशे की समस्या से लड़ने के लिए कुछ कड़े कदम उठाए है।
[लेखक एफएसआइ ग्लोबल संस्था से जुड़े हैं]